गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

पप्पूजी बड़े हुए

पप्पूजी बड़े हुए

(बाल पत्रिका ‘पराग’ में ही प्रकशित हरिकृष्ण तैलंग की एक और यादगार बाल कहानी)

सुबह हुई। पप्पू उठकर आँखें मलता हुआ बिस्तर पर बैठ गया। कमरे में उसने नजर घुमाई, फिर पुकारा, ‘मम्मी, मम्मी’। दो क्षण चुप रहकर उसने फिर इधर-उधर देखा और रोना शुरु कर दिया, ‘मम्मी, मम्मी ...ऊं ऊं ... मम्मी कहाँ हो ? म.. म्मी म.. म्मी, ऊं ऊं ऊं, ओ ओ ओ’। वह इधर-उधर देखता हुआ ऊँचे स्वरों में रो रहा था।
दूसरे कमरे से पापा ने जल्दी-जल्दी हाथ पोंछते हुए कमरे में प्रवेश किया। ‘पप्पू, पप्पू, चुप हो जा बेटा ! मम्मी अभी आती हैं। नंदा, उठो तो। देखो, पप्पू रो रहा है।’ पापा ने पप्पू को गोदी में उठा लिया। पास ही सोई नंदा की चादर उन्होंने खींची और बोले, ‘नंदा, उठो। देखो पप्पू रो रहा है।’
पप्पू रोता ही जा रहा था। पापा ने उसके बिखरे बालों को पीछे हटाया और आँसू पोंछते हुए बोले, ‘चलो तो बेटा, तुम्हारा मुँह धुला दें। मेरा पप्पू तो राजा बेटा है। कहीं राजा बेटे भी रोते हैं।’ कहकर उन्होंने पप्पू के गाल की मिट्ठी ले ली।
नंदा ने चादर से मुँह निकाला। उनींदी आँखों से पप्पू और पापा की ओर देखा। अंगड़ाई ली, करवट बदली और पैर सिकोड़कर फिर आँखें बंद कर लीं। पापा ने नंदा की यह हरकत देखी तो झल्लाकर उसकी चादर एकदम खींच दी। बोले, ‘नंदा, सात बज रहे हैं। उठो, पप्पू रो रहा है। उठकर हाथ मुँह धो लो, पप्पू भी धुला दो। तब तक मैं गैस जलाकर दूध गरम करता हूँ। उठो, उठो, जल्दी उठो।’ पापा का स्वर तेज हो गया था। नंदा हड़बड़ा कर उठी और पलंग पर बैठ गई।
पापा पप्पू को लेकर बाथरूम की ओर चले। ‘लो बेटा, दाँत साफ करो’, बाथरूम में पहुँच कर पापा ने पप्पू को गोद से उतारकर खड़ा कर दिया। पप्पू सुबकता हुआ बोला, ‘पापा, मम्मी कहाँ गईं ?’
‘मम्मी अभी आ जाएंगी, बेटा। तुम ब्रश तो कर लो। लो, यह पेस्ट लो। चीं-चीं तो करो बेटा !’ पापा ने पुचकारते हुए पेस्ट का ट्यूब पप्पू के हाथ में थमा दिया। ट्यूब लेकर पप्पू चुप तो हो गया पर उसकी आँखें इधर-उधर घूम रही थीं। आज मम्मी कहाँ चली गईं ? रोज सवेरे जब वह उठता तो मम्मी उसे उठाकर उसकी मिट्ठी ले लेतीं। वह लाड़ में आकर मम्मी के गले में अपनी बाँहें डाल देता था। वह ही उसका हाथ-मुँह धुलाती थीं। पर आज मम्मी का पता नहीं। वह रो रहा है, फिर भी मम्मी नहीं दिख रहीं। आखिर मम्मी गईं कहाँ ? उसकी आँखें बार-बार बाथरूम के बाहर की ओर घूम जाती थीं। बीच-बीच में वह सिसक उठता।
‘बेटा, टूयूब खोलो न ! दाँतों को साफ करो’, पापा उसे समझा रहे थे।
‘मम्मी गई कहाँ हैं, पापा ?’ पप्पू ने फिर पूछा।
‘मम्मी आ जाएंगी, बेटा ! तुम तब तक ब्रश तो कर लो।’ पापा बड़े लाड़ से बोल रहे थे। पप्पू ने ट्यूब खोलकर दबाया, सफेद पेस्ट बाहर आ गया। उसे ब्रश में लेकर सुबकते हुए वह दाँत घिसने लगा।
‘नंदा’, तेज आवाज में पापा चिल्लाये। उनकी कठोर आवाज से पप्पू सहम गया। ‘जल्दी आओ। पप्पू, नंदा दीदी आकर अभी तुम्हारा मुँह धुलाती है।’ कहते हुए पापा बाथरूम से बाहर निकल गये। पप्पू पेस्ट से दाँत घिस रहा था। पिपरमेंट की गोलियों-सा पेस्ट का स्वाद उसे अच्छा लगता है।
‘पप्पू दाँत साफ कर लिए न ?’ बाथरूम में आते ही नंदा ने पूछा।
‘मम्मी कहाँ गईं दीदी ?’ पप्पू ने रुआंसे स्वर में पूछा। उसे मम्मी की याद सता रही थी।
‘मम्मी अस्पताल में हैं पप्पू। डाॅक्टरनी के पास। वहाँ से वह भैया लायेंगी। तुम जल्दी पेस्ट कर लो, फिर हम अस्पताल चलेंगे’। नंदा ने उल्लास में भर कर कहा।
‘नहीं, नहीं। हम अस्पताल अभी चलेंगे। हमें मम्मी छोड़ गईं। ऊं, ऊं, ...ऊं ...’ पप्पू ने ठुनकना शुरु किया और गुस्से से टूथ पेस्ट का ट्यूब फेंक दिया।
‘हाँ, हाँ चलेंगे न अस्पताल। पर तुम पहले नहा लो, अच्छे कपड़े पहन लो। फिर चलेंगे मम्मी के पास’। ट्यूब उठाकर रखते हुए नंदा ने समझाया। वह पप्पू को कुल्ला कराने की कोशिश कराने लगी। पप्पू ने सिर हिलाकर कुल्ला किया। पानी ऐसा थूका कि नंदा की फ्राॅक गीली हो गई, पर नंदा को गुस्सा नहीं आया। वह समझदार लड़की है और पाँचवीं कक्षा में पढ़ती है। पापा मम्मी के बाद वही घर में बड़ी है। उसे अभी-अभी पापा ने बताया था कि मम्मी को वह रात में अस्पताल छोड़ आये हैं। नंदा जानती थी कि मम्मी किसी दिन अस्पताल जाएंगी। वहाँ से वह एक नन्हा-सा भैया लाएंगी। फिर उसके दो भाई हो जायेंगे। एक की जगह दो भाई हो जाने की कल्पना करके उसे बड़ी खुशी होती थी। इसकी चर्चा वह अपनी सहेलियों से कई बार कर चुकी थी।
नहा-धोकर नंदा और पप्पू किचन में आये। पापा चाय छान रहे थे। नंदा ने उनका चेहरा देखा तो उसे हँसी आ गई। हँसते हुए वह बोली, ‘पापा, आपके चेहरे पर काला-काला क्या लगा है ?’
‘क्या लगा है ? अचकचा कर पापा बोले और केतली नीचे रख गालों पर हाथ फेरने लगे। ‘कालिख लग गई है पापा चेहरे पर, कैसी मूँछें-सी बन गई हैं’ कहते हुए नंदी हँसी से दुहरी हो गई।
पप्पू पापा की ओर आँखें फाड़ कर देख रहा था। फिर ‘पापा मूँछें, पापा मूँछें’ कहता हुआ हँसने लगा। उसकी आँखों की उदासी कम हो गई और चेहरा खिल उठा। पापा भी हँस पड़े। ‘लग गई होगी कालिख ! अभी चाय के लिए तवेली साफ की थी’, कहते हुए उन्होंने टाॅवल से अपना चेहरा पौंछा।
‘हाँ, अब साफ हो गई’, नंदा ने बताया और प्याला सरकाकर अपने सामने रख लिया। दूसरा पप्पू के सामने रख दिया। पापा ने दोनों प्यालों को दूध से भर दिया। फिर अपने प्याले में चाय भरते हुए बोले, ‘पियो, बेटा पियो।’
पप्पू ने पापा की ओर देखा। फिर अपने प्याले की ओर देखकर बोला, ‘नहीं, नहीं पीते दूध ! हमें भी चाय दो।’ पैर फटकारते हुए वह मचल उठा।
‘लो, चाय लो, पर रोओ मत’, कहते हुए पापा ने थोड़ी-सी चाय पप्पू के प्याले में उडे़ल दी।
‘पापा हऊआ खाएंगे। हऊआ’, पप्पू फिर रोने लगा।
‘क्या मुसीबत है। अभी नहीं हऊआ। पहले दूध पी लो, फिर हऊआ खाना !’ पापा ने झुंझलाकर कहा।
‘नहीं, नहीं। हऊआ।’ पप्पू रो पड़ा।
‘अच्छा, अच्छा। बना देते हैं हलुआ’, पापा ने झल्लाकर कहा और कड़ाही ढूँढने लगे।
इतने में काॅल बेल बजी। पापा ने दरवाजा खोला। नौकरानी श्यामा की माँ थी। वह अस्पताल से आई थी।
‘क्या हुआ ?’ पापा एकदम पूछ बैठे। ‘बच्ची हुई’, श्यामा की माँ ने धीमे से उत्तर दिया।
‘क्या मिला, बब्बू मिला क्या’, नंदा ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
‘नहीं बेटी, गुडि़या मिली है। पप्पू की छोटी बहन।’ नौकरानी ने किचन में प्रवेश करते हुए कहा।
नंदा कुछ उदास-सी हुई। उसे भाई मिलने की आशा थी। मम्मी ने उसे बताया था कि इस बार भी वह अस्पताल से भैया लायेंगी।
‘पप्पू की माँ कैसी हैं’, पापा ने पूछा।
‘अच्छी हैं’, श्यामा की माँ ने उत्तर दिया। फिर उसने नंदा से कहा, ‘नंदा, तुम और पप्पू तैयार हो जाओ। थोड़ी देर से हम सब अस्पताल चलेंगे।’
‘मम्मी के पास’, पप्पू ने पूछा।
‘हाँ, बेटा’, श्यामा की माँ ने कहा।
थोड़ी देर बाद नंदा और पप्पू बाल सँवार कर, अच्छे कपड़े पहन कर तैयार हो गये। श्यामा की माँ ने दूध की बोतल तथा अन्य चीजें थैली में रखीं और नंदा व पप्पू से चलने के लिए कहा। पप्पू जूते पहनकर पापा के पास पहुँचा। पापा अखबार पढ़ने में तल्लीन थे। कुछ क्षण चुपचाप खड़े रहकर उसने पापा को हिला दिया और बोला, ‘हम अस्पताल जाएँ पापा ? मम्मी को बुला लाएँ ?’ पापा चौंक पड़े।
‘हाँ, बेटा। हो आओ अस्पताल। पर मम्मी को अभी मत लाना। चार-पाँच दिन बाद आएंगी मम्मी’, पापा ने पप्पू के गाल थपथपाते हुए प्यार से कहा।
‘नहीं पापा, हम मम्मी को लाएंगे। उनके बिना हमें अच्छा नहीं लगता है।’ पप्पू ने भारी गले से कहा।
‘अच्छा, अच्छा। अभी तो जाओ। नंदा, लो यह रुपया। तुम लोग कुछ खरीद लेना’, पापा ने सौ रुपये का नोट नंदा को देते हुए कहा।
आॅटो में बैठकर वे लोग अस्पताल पहुँचे। रास्ते भर पप्पू और नंदा बातें करते रहे। अस्पताल आया तो वे लोग आॅटो से उतरे। पप्पू की उंगली नंदा ने पकड़ ली। बहुत से लोग आ-जा रहे थे। कइयों के हाथों में दवाइयाँ और डाॅक्टर के परचे थे। कभी-कभी नर्सें बगल से खटपट खटपट करतीं तेजी से निकल जातीं। सफेद स्वच्छ कपड़ों में तनकर चलने वाली स्मार्ट नर्सें पप्पू को बड़ी अच्छी लगीं।
तीन-चार बरांडे और कई कमरे पार कर श्यामा की माँ के साथ नंदा और पप्पू एक कमरे में घुसे। लोहे के पलंग पर मम्मी लेटी हुई थीं। नंदा तो सीधे जाकर मम्मी के पास खड़ी हो गई पर पप्पू कुछ दूर से ही मम्मी को टुकुर टुकुर ताकने लगा। उसकी आँखों में आश्चर्य तैर आया था और चेहरा गंभीर हो उठा था।
सफेद, रूखे से चेहरे वाली मम्मी उसे अजीब लग रही थीं। ऐसा तो उसने मम्मी को पहले कभी नहीं देखा था।
‘आ गईं, नंदा’, मम्मी बोली और उन्होंने मुस्कराकर पप्पू को बुलाया, ‘आओ, पप्पू देखो यह छोटी-सी गुड़िया। तुम इसे खिलाओगे न ?’ मम्मी अपने बगल में लेटी बच्ची की ओर इशारा कर कह रही थीं।
पप्पू सहमा-सा मम्मी के पलंग के पास आकर खड़ा हो गया। नंदा ने उसे उठाकर पलंग पर बिठा दिया। पप्पू ने देखा, सफेद कपड़ों में लिपटा एक छोटा-सा लाल चेहरा आँखें बंद किये हुए पड़ा हुआ है। एक छोटी गुड़िया-सी दिख रही थी वह। पप्पू उसे घूरकर देखने लगा।
इतने में ही डाॅक्टरनी राउंड लेने आईं। वह मम्मी के पलंग के पास आकर पूछने लगीं, ‘कहिए, कैसी तबियत है आपकी ?’
‘ठीक है। थोड़ा कमर में दर्द हो रहा है।’ मम्मी ने उत्तर दिया, ‘अच्छा, एक इंजेक्शन लगवा देती हूँ। यह आपका बाबा है ?’ पप्पू की ओर इशारा कर डाॅक्टरनी ने पूछा।
‘हाँ, यह मेरा पप्पू है’, मम्मी ने उत्तर दिया।
‘बड़ा प्यारा है’, कहते हुए डाॅक्टरनी ने पप्पू के गालों पर हाथ फेरा। उसने सहमकर अपना सिर पीछे कर लिया।
‘क्यों पप्पू, गुड़िया को खिलाओगे न ? यह तुम्हारी छोटी-सी नन्ही बहन है। अब तो तुम भाई साहब बन गए हो।’ डाॅक्टरनी ने पप्पू से कहा।
पप्पू ने समझदार लड़कों की तरह अपना सिर हिलाया। डाॅक्टरनी मुस्कराती हुई चली गई।
अब पप्पू का मुँह खुला। बोला, ‘मम्मी, यह गुड़िया उन्होंने दी है ?’ और उसने जाती हुई डाॅक्टरनी की ओर इशारा किया। ‘हाँ, बेटा। अच्छी है न ? तुम भाई साहब बन गये हो। बड़े हो गये हो तुम अब।’ मम्मी ने प्यार भरे शब्दों में कहा।
पप्पू खुश हो गया। वह अब भाई साहब बन गया है। गुड़िया उसे ‘भाई साहब’ कहेगी, पप्पू ने सोचा। उसके चेहरे पर गर्व झलक आया। आँखों में प्यार भर आया और ललक भरी आँखों से उसने गुड़िया की ओर देखा।
थोड़ी देर बाद श्यामा की माँ के साथ नंदा और पप्पू चलने लगे तो मम्मी ने दोनों बच्चों को समझाया, ‘नंदा, तुम पापा और पप्पू का काम कर दिया करो। घर की फिक्र रखना। और पप्पू तुम बेटा, तंग मत करना नंदा दीदी को। अब तुम बड़े हो गये हो। अपना काम खुद कर लिया करो और रोना मत बेटा’, मम्मी ने बड़े दुलार से पप्पू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
पप्पू ने गंभीरता से अपना सिर हिला दिया।
‘मम्मी, तुम घर कब आओगी ?’ पप्पू ने पूछा। उसका गला भर आया था।
‘जल्दी ही आऊंगी बेटा। तीन-चार दिन में ही। अब तुम लोग घर जाओ।’ मम्मी ने कहा।
श्यामा की माँ, नंदा और पप्पू पैदल ही घर की ओर चल पड़े। घर कोई दूर नहीं था और कोई जल्दी भी नहीं थी।
‘कित्ती-सी है गुड़िया !’ पप्पू बोला।
‘हाँ, बिल्कुल गुड़िया-सी’, नंदा ने उत्तर दिया।
‘पर अभी आँखें नहीं खोलती’, पप्पू और नंदा अपस में मुन्नी की बातें करते चल रहे थे।
सड़क के किनारे एक खिलौने वाला दिखाई दिया। कई तरह के खूबसूरत खिलौने सजे-सजाये रखे थे। नंदा और पप्पू खड़े होकर उन्हें देखने लगे। तरह-तरह के जानवर, पक्षी, गुड्डे और गुड़िया रखे हुए थे। पप्पू को एक गुड़िया पसंद आई। उसने नंदा से कहा, ‘दीदी, यह गुड़िया ले लो। हम, तुम और मुन्नी मिलकर खेलेंगे।’
गुड़िया बड़ी सुंदर थी। हरे रंग की स्कर्ट, गुलाबी रंग का टाॅप और सुनहरे रंग के गहने पहने गुड़िया बड़ी प्यारी लग रही थी। नंदा ने वह गुड़िया खरीद ली और पप्पू को दे दी। पप्पू कुछ क्षण तक आँखें मटकाता प्रसन्न मुद्रा में उसे ताकता रहा। नंदा ने जब उसका हाथ खींचते हुए चलने को कहा तब उसका ध्यान टूटा।
गुड़िया बगल में दबाये पप्पू घर आया। पापा ने दरवाजा खोलते हुए पूछा, ‘आ गये ! देख आये गुड़िया को ? कहो ! कैसी लगी ?’
‘गुड़िया अच्छी है पापा। वह हमें भाई साहब कहेगी। अब हम बड़े हो गये ... हैं न, नंदा दीदी ?’ पप्पू ने नंदा की ओर देखकर कहा और आगे बढ़कर गुड़िया टेबल पर रख दी। फिर अपने जूतों के लैस खोलने लगा।
‘अच्छा, तुम्हें भाई साहब कहेगी गुड़िया ! अरे वाह ! अब तो तुम भाई साहब बन गये। अरे, यह क्या लाए ? देखें तो’, कहते हुए पापा गुड़िया उठाकर देखने लगे।
‘अरे, अरे। वहीं रखी रहने दीजिये। गुड़िया गिर पड़ी तो उसे अस्पताल भेजना पड़ेगा न’, पप्पू ने तेज स्वर में बड़े रौब से कहा।
‘ओहो ! अब तुम बड़े हो गये हो न, भाई साहब !’ गुड़िया ज्यों की त्यों मेज पर रखते हुए पापा बोले।
चार साल के पप्पू की ओर वह आँखें फाड़कर देख रहे थे।

हास्य क्या है ? व्यंग्य क्या है ?

हास्य क्या है ? व्यंग्य क्या है ?

//इस माह 27 दिसंबर को वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग की 80वीं सालगिरह है। ईश्वर ने गत हिंदी दिवस, 14 सितंबर 2014 को उन्हें अपने पास बुला लिया परंतु अपनी यादगार रचनाओं के बलबूते स्व. तैलंग हमारे बीच सदैव रहेंगे। बाल साहित्यकार के साथ ही उन्हें कुशल व्यंग्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त रही। आम पाठक हास्य और व्यंग्य को लेकर कुछ ‘कन्फ्यूज’ रहता है, इसलिए अनूठे रचनाकार की स्मृति स्वरूप प्रस्तुत है दोनों शैलियों के फर्क और समानता को समझाता उनका लिखा व्यंग्य जो बरसों पूर्व देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित पत्रिका "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में छपा था //

सुबह-सुबह एक सज्जन आ गये। बोले -‘एक कारण से कष्ट दे रहा हूँ। बहुत वर्षों से पाठक हूँ, मेरे पिता और स्वर्गीय दादा-परदादा भी अच्छे पाठक थे। मुझ तक वंश परम्परा ने कोई तरक्की नहीं की। अब चाहता हूँ कि मेरी संतान यथास्थिति भंग करे। मेरा कुलभूषण उपाध्याय या आचार्य बन जाये।’
‘इस तरह की वंशोन्नति में मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ? मेरी सिफारिश भला क्या काम आयेगी ?’ मैंने पूछा।
वह बोले -’सिफारिश नहीं, समझाइश चाहता हूँ। बात यह है कि साहित्य की अनेक विधाएँ मुझे अज्ञानी बनने पर विवश कर रही हैं। मैं उनमें अंतर नहीं कर पाता और विद्वानों के सामने मात्र पाठक की हैसियत रखता हूँ। आप मुझे वह ज्ञान दृष्टि दीजिये जिससे मैं किसी साहित्य रचना की नई विशिष्टता पहचान सकूँ।’
मैं सोफे पर उकड़ूं बैठकर बोला -‘आप किन-किन साहित्यिक विधाओं में गड़बड़ा जाते हैं ? किन-किन रचना शैलियों में आपको शंकाएँ उत्पन्न होती हैं ?’
वह शांत भाव से बोले -’कई वर्षों से उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता, प्रगतिवादी, जनवादी, प्रतीकवादी, परम्परावादी, आतंकवादी, अश्लीलतावादी शैलियों आदि में लिखी जा रही हैं, गीत, नवगीत, अगीत का मसला है। कौन-सा गीत कब गीत है, कब और कैसे वह नवगीत हो गाता है, गीत कब अगीत होता है, समझ में नहीं आता।’
मैं बोला -‘भाई, यह सब साहित्य की बारीक बातें हैं। अच्छा होता यदि आप किसी यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर के पास जाते। वह साहित्य विधाओं का पोस्टमार्टम ज्यादा बारीकी से करते हैं। उनके पास पचासों शास्त्रीय औजार हैं जो विधाओं का रेशा-रेशा अलग करने में सक्षम हैं। वह साहित्यिक बारीकियों को शास्त्रीय ढंग से समझा सकते हैं।’
वह सज्जन तपाक से बोले -‘आदरणीय, पहले मैंने भी यही सोचा था, पर मैं किसी प्राध्यापक के पल्ले नहीं पड़ना चाहता। वह अकेला महारथी मुझ नासमझ अभिमन्यु को जमीन पर खड़ा देख अपने साहित्यशास्त्र के चक्रव्यूह में फँसाकर मेरा दम तोड़ देगा। तब मेरी संतान फिर पाठक की पाठक रह जायेगी। नहीं, नहीं, अगली पीढ़ी के लिए मैं यह संकट मोल लेना नहीं चाहता। फिर प्राध्यापकीय समझ तो शिक्षा सचिव के अनुसार बदलती रहती है। शिक्षा सचिव जिसे कविता कहे, प्राध्यापक उसके साँचे तैयार करता है। कभी-कभी कविता को उसके साँचे सविता और परहिता की तरह इस्तेमाल के लिए रूपायित कर देते हैं। हम जैसे उस परिवर्तनीय शिक्षा सचिवीय समझ को अपने पल्लू में नहीं बाँध पायेंगे। आप ज्यादा अच्छे ढंग से मुझे साहित्यिक समझ ग्रहण करा सकते हैं इसलिए आपकी शरण आया हूँ।’
मैं मन ही मन पुलकित हुआ। आनंदातिरेक से मुझे तुलसीकालीन रोमांच हो आया। बोला -‘आपको यह विश्वास कैसे जमा कि मैं आपको साहित्यिक रचनाओं की आधुनिक बुनावट समझा सकता हूँ ?’
वह बोले -’देखिये, मैं पहले ही बता चुका हूँ कि खानदानी पाठक हूँ। आपकी फोटो समेत संक्षिप्त जीवनी आपकी रचनाओं के साथ कई बार पढ़ चुका हूँ। आप उन्नीस सौ फिफ्टी सिक्स के हिंदी एमए हैं। साहित्य मार्तण्ड, साहित्यचंद्र, साहित्य शिरोमणि की उपाधियाँ देकर साहित्यिक संस्थाएँ धन्य हो चुकी हैं। आप नगर में सर्वाधिक प्रकाशित साहित्यकार हैं। भला आपकी विद्वता में शक कैसे हो सकता है ? आप तो मुझे सबसे पहले हास्य और व्यंग्य में अंतर समझा दीजिये। मैं इन विधाओं की पहचान में गड़बड़ा जाता हूँ।’
मैं आश्वस्त हो गया कि जिज्ञासु की मुझमें पूरी-पूरी आस्था है। पालथी मारकर बैठते हुए मैंने पूछा -’मैं आपको हास्य-व्यंग्य शास्त्रीय शैली में समझाऊँ कि प्रायमरी शैली में ?’
‘आप प्रायमरी शैली में ही समझाइए। बहुत वर्ष हो गये उस शैली से दूर रहते। आह, क्या ढंग था ! सारे अक्षर, शब्द, लिंग भेद के साथ थोड़े ही समय में सीख गया था।’ वह प्रसन्न भाव से बोले।
‘‘इस शैली में मुझे और आपको, दोनों को सहूलियत होगी’, मैंने बोलना षुरु किया -‘तो पाठकजी, हास्य और व्यंग्य दोनों विधाएँ हिंदी साहित्य की भूमि पर इधर कुछ दशकों से खूब फल-फूल रही हैं। अच्छा किसान वह होता है जो मिश्रित खेती करता है अर्थात् गेहूँ के साथ सोयाबीन भी बोता है और अच्छे दाम कमाता है। उसी प्रकार अच्छा संपादक वह है जो अन्य विधाओं के साथ हास्य-व्यंग्य भी छापता है। इससे पत्र-पत्रिकाओं की फसल याने सर्कुलेशन काफी बढ़ जाता है।’
‘पर पाठकों की मुसीबत तो बढ़ जाती है, कौन-सी रचना गेहूँ हैं, कौन-सी सोयाबीन समझ में नहीं आता।’ उन्होंने टोका।
‘भाई, धीरज रखें। सब समझ आ जायेगा’, मैंने कहा -‘अपने कथन को यूरोपीय समाज के उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ। जैसे यूरोपीय महिला कब मिस और मिसेज होती है, समझ पाना सरल नहीं होता। वहाँ तलाक और विवाह इतनी जल्दी-जल्दी होते हैं कि सुबह जो मिसेज थी, शाम की किसी पार्टी में वह मिस हो सकती है। यदि किसी ने अज्ञानवश उसे मिसेज कह दिया तो ‘इडियट’ या ‘डेम फूल’ बनना पड़ सकता है। अगर दूसरे दिन उसे मिस कहा गया तो कहने वाला फिर मुश्किल में पड़ सकता है। वहाँ कोई माँग तो भरी नहीं जाती कि आप कोई स्पष्ट विचार बना सकें। उसी तरह यदि रचना के ऊपर व्यंग्य या हास्य छपा है तो ठीक, वरना पाठक भ्रम में पड़कर अज्ञानी कहला सकता है। जो भ्रमपूर्ण स्थिति यूरोपीय समाज की महिलाओं की है, वही भारतीय समाज में पुरुषों की डिग्रियों के बारे में है। कौन सच्चा "बीए" है और कौन ठीक-ठाक "एमए", इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं दे सकता। इसे भी मैं एक उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ -
एक सज्जन ने नेम प्लेट बनवाई। उसमें नाम के साथ बीए दर्ज था। एक माह बाद उस पट्टिका पर बीए पुतवाकर एमए दर्ज करवा लिया। लोगों ने यह देखा तो पूछा, भाई साहब, ऐसी कौन-सी यूनिवर्सिटी है जो एक माह में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री बख्श देती है ? उन्होंने जवाब दिया -हमारे देश में अनगिनत ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो एक माह में क्या एक सप्ताह में एमए करा सकते हैं। "वन डे सिरीज" पढ़कर क्या लोग एमए नहीं हो रहे हैं ? आप लोग यदि संदर्भ और प्रसंग पर नजर रखते तो समझ जाते कि मेरा बीए ‘बेचलर अगेन’ होना था। आप लोग जानते ही हैं कि पत्नी की मृत्यु से मैं पुनः कुँवारा हो गया था। वह तो उन विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कृपा है जो अपने क्षेत्र का व्यापक और गहरा सर्वेक्षण करते हैं और जहाँ कोई बीए उन्हें दिखा वे उसे पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा एमए की डिग्री देने उतावले हो उठते हैं। सो एक कुलपति की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे फौरन एमए याने 'मेरिड अगेन' बना दिया। आप स्वयं देखिये, मेरी डिग्री किस श्रेणी की है।
दो क्षणों बाद उनकी ताजी पत्नी भाप उड़ाती चाय लेकर कमरे में दाखिल हुई। सबने देखा, डिग्री प्रथम श्रेणी की थी।
उदाहरणों से मैं समझ गया कि मिस और मिसेज, बीए और एमए भ्रम पैदा करनेवाले शब्द हैं। हास्य और व्यंग्य भी भ्रम पैदा करते हैं। उस भ्रम को भेदने का साहित्यिक बाण दीजिए मुझे’, वह सज्जन बोले।
‘अब मैं उदाहरणों द्वारा आपको हास्य-व्यंग्य समझा रहा हूँ। यह शैली आपको माफिक आती है। देखिये, शरीर में दाँत हास्य का उदाहरण है और जीभ व्यंग्य का। हास्य ठोस होता है, दृश्य होता है और स्पष्ट चमकता है। वह खिलखिलाता है और शोर करता है। व्यंग्य परदे में रहता है, कोमल और लोचदार होता है। सभी तरह के मीठे, खट्टे, कड़वे, चिरपिरे स्वाद की अनुभूति कराता है। व्यंग्य आकारहीन होता है, वाणी और शब्दों की वक्र सार्थकता से पैंतरे बदल-बदलकर वार करता है। वह अंदर तक धँसता चला जाता है पर उसकी गहराई नापी नहीं जा सकती। वह इतनी प्यारी मार करता है कि घायल मुस्कराता रहता है, चमत्कृत-सा होकर वाह-वाह करता है।
हास्य छुरा है, नंगा रहता है, सीधा घुसता है। छुरा घौंपने में कोई कुशलता की दरकार नहीं होती। व्यंग्य तलवार है, मखमली म्यान में रहता है। अपनी वक्रता के अनुसार तिरछी मार करता है, गहराई तक घुसता है और चीर देता है पर उच्च कोटि की निपुणता की माँग करता है।
हास्य नाटकों का विदूषक है। वह अपनी विचित्र वेषभूषा, चुलबुलेपन और बनावटी हरकतों से हास्य पैदा करता है। व्यंग्य नाटकों का राजा होता है। गंभीर रहता है। अनेक रानियाँ रखता है जो एक-दूसरों से जलती तो हैं पर राजा की कृपा चाहती हैं। राजा स्थितियों को उपजाता है और उन स्थितियों का बेमानीपन आपको सोचने-विचारने पर मजबूर कर देता है।
राजनीतिज्ञों में गाँधी एक जबर्दस्त प्रभावशाली व्यंग्य था अपने युग का। एक जीता-जागता, साक्षात् व्यंग्य बनकर ब्रिटिश साम्राज्य के सम्मुख अपनी पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ। ब्रिटिश सम्राट और उसके सभी कारिन्दे गाँधी के व्यंग्य से घायल हो जाते थे। वह उनके सामने अपनी क्षीण काया और अधनंगापन लेकर इस तरह मुस्कराता था कि उसकी छवि बढ़ जाती थी और सामने वालों का पानी उतर जाता था पर फिर भी वे ‘वाह-वाह’ करते थे और सोचने-विचारने को मजबूर हो जाते थे। आज के सारे राजनीतिज्ञों की सादगी, देशभक्ति और जनहित चिंता एक ठहाकेदार हास्य है। सारी जनता देख-देख हँसती तो है पर अंदर-अंदर आहें भी भरती है।
फूलों में गोभी का फूल हास्य है और टेसू का फूल व्यंग्य। व्यंग्य का रंग, रूप, आकार आकर्षक होता है। उसकी वक्रता और सुगंधहीनता व्यंग्य पैदा करती है और विचारणीय होती है। गोभी का फूल किसी को भेंट कीजिए, दर्शक हँस पड़ेंगे। टेसू का फूल भेंट करने पर दर्शकों को उसके प्रतीकार्थ पर विचारों में डूबना-उतरना पड़ेगा। यदि कोई लिखता है ‘मेरी पत्नी सुंदर और समझदार है’ तो यह व्यंग्य वाक्य हुआ। यदि यह लिखा जाये कि ‘मेरी प्रेमिका अथवा साली कुरूप या मूर्ख है’ तो वह हास्य वाक्य हुआ।’
‘हास्य व्यंग्य लेखक की कुशलता पर उदाहरण सहित टिप्पणी करो, इस प्रश्न का क्या उत्तर होगा ?’ पाठकजी ने पूछा।
‘हास्य लेखक शब्दों के बेढंगे प्रयोगों से हास्य उत्पन्न करता है, अतः हास्य के लिए ऊँचे दर्जे की कुशलता की आवश्यकता नहीं होती। व्यंग्य स्थितियों की प्रस्तुति की वक्रता और भंगिमा पर निर्भर करता है, अतः व्यंग्यकार ऊँचे दर्जे का कुशल कलाकार होता है। हास्य लेखक अपने नाम के साथ कोई मजाकिया उपनाम जरूर लगाता है पर व्यंग्यकार अपने नाम और अपनी कुशल क्षमता से ही विख्यात होता है। हास्य हाथी है, गेंडा है पर व्यंग्य चीते-सी चतुरता रखता है। वह कब, कहाँ और कैसे हमला कर देगा, कितनी चपलता से करेगा, कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। हमला करके, गहरे तक घायल करके वह चतुराई से बच निकलेगा अगले शिकार के लिए। ऐसी प्राकृतिक चतुरता, प्रज्ञा का धनी होता है कुशल व्यंग्यकार।’
कुछ क्षण मैं ठहरा। फिर पूछा -‘पाठकजी, अब आप हास्य-व्यंग्य के अंतर को समझ गये होंगे ?’
‘जी हाँ। अच्छी तरह समझ गया। आपका हास्य-व्यंग्य में अंतर समझाना हास्य है और मेरा समझने आना एक व्यंग्य’, कहते हुए पाठकजी उठ खड़े हुए और बगैर नमस्कार कर चलते बने।

कुत्ता पालक कालोनी

कुत्ता पालक कालोनी

(हिंदी दिवस, 14 सितंबर 2014 को देह दान करनेवाले वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग की स्मृति स्वरूप प्रस्तुत है उनका लिखा एक और व्यंग्य "कुत्ता पालक कालोनी" जो बरसों पूर्व देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित समाचार पत्र "नवभारत टाइम्स" में छपा था और इसी शीर्षक से "किताबघर' (नई दिल्ली) ने व्यंग्य पुस्तक प्रकाशित की थी)

// कुत्ता-संस्कृति इस कदर पूरे संसार में छा गई कि हर देश उसका दीवाना बन रहा है। आज सारे संसार में जितने शौक से कुत्ते पाले जाते हैं, उतने शौक से बच्चे नहीं पाले जाते। ‘कुत्तों से प्यार करो और बच्चे पैदा करने से नफरत करो’, यह अधिकांश देशों का नारा बन चुका है। जितने शानदार ढंग से अब कुत्ते पाले जा रहे हैं उसे देखकर आदमी के बच्चे खुद पैदा होने में शर्म खाने लगे हैं। माँ-बाप जबर्दस्ती उन्हें पैदा होने के लिए मजबूर कर दें, यह बात दूसरी है। //
पश्चिमी देशों में कुत्ता पालना आम रिवाज है। बूढ़े माँ-बाप वृद्धगृहों या होटलों में रहते हैं, पर कुत्ता महाशय बड़े नाज-नखरों से घर की शोभा बढ़ाया करते हैं। कुत्ता पालन पश्चिमी संस्कृति का अविभाज्य अंग है। एक विशिष्ट कुत्ता संस्कृति उन देशों में फल-फूल रही है।
तरह-तरह के कुत्तों पर कुत्ता पालक पश्चिमी देश आज जितना धन खर्च कर रहे हैं, उतने धन से, एक अनुमान के अनुसार, एक पंच वर्षीय महायुद्ध आसानी से लड़ा जा सकता है। भारत की तो दो पंच वर्षीय योजनाएँ इस तरह चलाई जा सकती हैं कि भारत विकसित देशों का सिरमौर देश बन सकता है। कुत्ता पालन का यह उच्च स्तरीय शौक पश्चिमी देशों को तब से लगा जबसे उन्होंने संसार के अन्य देशों में कालोनियाँ बसाना आरंभ किया था। कालोनियाँ बसाकर साहब लोग पहला काम उस देश के लोगों को कालोनी से दूर रखने का करते थे और दूसरा काम कुत्ता पालने का। इस दूसरे काम में कुत्तों की बढि़या नस्लें तैयार करने की कुशलता भी शामिल थी। अच्छी बढि़या नस्ल का कुत्ता उसे माना जाता जो अपने पालक को देखते ही पूँछ हिलाता पर दूसरों को देखकर भौं-भौं कर गुर्राता।
कुत्ता पालना और उसकी एक से बढ़ कर एक नस्लें तैयार करना किसी जमाने में पश्चिमी देशों का सर्वाधिक लाभ वाला धंधा था जिसका उन्होंने सभी पूर्वी देशों में निर्यात कर भारी मुनाफा कमाया। समय की करवट ने उनके कुत्ता पालन उद्योग के एकाधिकार को सिमटा दिया पर कुत्ता-संस्कृति इस कदर पूरे संसार में छा गई कि हर देश उसका दीवाना बन रहा है। आज सारे संसार में जितने शौक से कुत्ते पाले जाते हैं, उतने शौक से बच्चे नहीं पाले जाते। ‘कुत्तों से प्यार करो और बच्चे पैदा करने से नफरत करो’, यह अधिकांश देशों का नारा बन चुका है। जितने शानदार ढंग से अब कुत्ते पाले जा रहे हैं उसे देखकर आदमी के बच्चे खुद पैदा होने में शर्म खाने लगे हैं। माँ-बाप जबर्दस्ती उन्हें पैदा होने के लिए मजबूर कर दें, यह बात दूसरी है।
हमारे इस पुरातन पवित्र देश में पंच वर्षीय योजनाओं के फलस्वरूप हर नगर-कस्बे में नई-नई कालोनियाँ बसती जा रही हैं। कालोनियों की विशिष्ट संस्कृति कुत्ता पालन भी उसी तेजी से विस्तार पा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम पश्चिमी देशों को इस क्षेत्र में पछाड़ देंगे और संसार में सीना फुलाकर रहेंगे।
मैं जिस कालोनी में रहता हूँ, वह राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी मानी जाती है। सर्वश्रेष्ठता का प्रमाण यह है कि इस कालोनी में अगर कोई अपनी कन्या विवाहना चाहता है तो उसे सामान्य दहेज बाजार भाव से पाँच-छह लाख रुपये अधिक दहेज देना पड़ सकता है। कन्या का पिता यह भी चाहता है कि समधी जी अपने पुत्र को इस कालोनी अथवा नगर में अवश्य नौकरी दिलाकर अथवा ट्रांसफर कराकर बसा लेगा ताकि वह छाती फुलाकर कह सके कि उसका दामाद राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी का बाशिंदा है। ऐसी सुनियोजित गरिमामयी कालोनी का निवासी बनना पूर्व जन्मों के पुण्यों अथवा वर्तमान जीवन की चतुराइयों का परिणाम है। जो बस गया, धन्य है। जो नहीं बस पाया वह इसके विस्तार में अपनी जगह बनाने के गंभीर प्रयत्न में लगा है और इसके लिए उपयुक्त धंधों में जुटा हुआ है।
इधर आठ-दस वर्षों में कालोनी का जिस तरह विस्तार हो रहा है, उसी तरह कुत्ता पालने के शौक का भी निरंतर विस्तार हो रहा है। पहले लोग गुपचुप कुत्ता पाल लिया करते थे पर अब बाकायदा ‘इनविटेशन’ बँटते हैं। पार्टी होती है और कुत्ते को पट्टा बाँधने के लिए वीआईपी बुलाया जाता है। हफ्तों नए कुत्ते महोदय की चर्चा चलती है और ‘हाउस वाइव्स’ अपने-अपने ‘डाॅगी’ की तुलना, आलोचना करने में दोपहर गुजारती हैं। बड़ी बढि़या और चटाखेदार चर्चा का केंद्र होता है नया कुत्ता।
जिन मकानों में कुत्ते पल रहे हैं उन शानदार मकानों के कलात्मक गेटों पर एक तख्ती टँगी रहती है, जिसमें अंग्रेजी में लिखा रहता है -‘कत्तों से सावधान’। वह तख्ती उन कुत्ता पालक की गरिमा को तो बढ़ाती ही है, उनकी भलमनसाहत का भी सबूत होती है जो हर आदमी को कुत्ते से सावधान करती है। सड़क पर चलता हुआ आदमी तख्ती पढ़कर सावधान हो जाता है। उसकी जानकारी बढ़ जाती है कि ‘साहब’ के कुत्ते से सावधान रहना चाहिए। वह खतरनाक है, नहीं भी हो तो हो सकता है। कितने जनहित चिंतक होते हैं कुत्ता पालक। गाय, घोड़े, भैंस, गधे या बिल्ली पालने वाला कोई भी तो ऐसी तख्ती नहीं टाँगता।
पर मेरी चिंताएँ कुछ दूसरी हैं। कुत्ते से सावधान वाली तख्ती पढ़कर अक्सर मैं चिंताग्रस्त हो जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि कुत्ता पालक को दूसरों की चिंता तो बराबर सताती है, पर क्या वे यह जानते हैं कि अंग्रेजी में लिखी उनकी तख्ती नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए व्यर्थ होती है। उन्हें यह जानकारी नहीं मिल पाती कि तख्ती कुत्तों से सावधान कर रही है। ऐसे बहुत-से लोग तख्ती को बंगले में रहनेवाले साहब के नाम की तख्ती समझते हैं।
पर मेरा चिंतन आगे बढ़ता है। मैं सोचने लगता हूँ कि ऐसे जनहित चिंतक महानुभावों का कुत्ता खतरनाक क्यों है ? क्यों उन्हें अपने कुत्ते से हर आदमी को सावधान करने की आवश्यकता पड़ती है ? क्या वे ऐसा कुत्ता नहीं पाल सकते जो खतरनाक के बजाय सौम्य और शिष्ट हो ? क्या वे ऐसी तख्ती नहीं लटका सकते जिसमें लिखा हो -‘कुत्ता दर्शनीय है। बेखटके आइए और कुत्ते से मुलाकात कीजिए’।
पर कुत्ता पालक का कुत्ता तो खतरनाक है, अन्यथा वह तख्ती लटका कर हर आम और खास आदमियों को उससे सावधान होने की सूचना देने की जहमत क्यों उठाते ? वे तो एक महानता निभा रहे हैं। ऐसी महानता जैसी हर महान आदमी आम आदमियों को भिन्न-भिन्न पचासों खतरों से सावधान करने की उठाता आ रहा है, साम्प्रदायिकता से सावधान, विरोधी राजनीतिज्ञों से सावधान, देश के दुश्मनों से सावधान, रोगों से सावधान, बाढ़-सूखे से सावधान, चोर-डाकुओं, ठगों से सावधान, यहाँ तक कि हर विवाह के समय शुभ मंगल से सावधान और उसी तरह कुत्ते से सावधान। पर हर आदमी इतनी अधिक सावधानियाँ दुनिया भर के झंझटों के बीच कैसे बनाए रख सकता है ? वह कहीं न कहीं, कभी न कभी फिसल ही जाता है और ‘फैमिली प्लानिंग’ की सावधानी की विफलता के समान बच्चा रूपी खतरा पैदा कर ही लेता है। फिर भी यह अच्छा है कि सावधानी की शिक्षा देनेवाली तख्तियाँ मुस्तैदी से लटकाई जाती रहें। कुत्ता पालक इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझता है और अपना फर्ज निभा रहा है।
मैं आगे सोचता हूँ कि कुत्ता पालक तो अपना फर्ज मुस्तैदी से निभा रहा है पर कोई भला आदमी उसके यहाँ सावधान होकर क्यों जाना चाहता है ? कुत्ता आगंतुक को देखकर रौद्र मुद्रा में भौं-भौं करता उछल रहा हो। कुत्ता पालक आगंतुक की आवाज से नहीं कुत्ते के भौंकने से बाहर आते हों। पहले कुत्ते से बोलते हों फिर आगंतुक की ओर लक्ष्य करते हों। वहाँ जाने में क्या तुक है ? आप घबराए-से पालक महोदय के पीछे सिमटे बढ़ रहे हों, कुत्ता पालक के लिए तो पूँछ हिला रहा हो और आप पर गुर्रा रहा हो। बार-बार आपका दिल धड़क उठता हो पर चेहरे पर आधा इंच मुस्कान खिलाकर आपको कुत्ते की सेहत और सुंदरता की तारीफ में चंद शब्द कहने पड़ते हों। अजीब बेहूदी स्थिति होती है उन क्षणों की। पर ऐसे कितने ही लोग हैं जो ‘कुत्ते से सावधान’ वाली तख्ती टँगे गेट पर खड़े-खड़े कुत्ते की भौं-भौं के बीच कुत्ता पालक का इंतजार करते दिखाई देते हैं।
तुलसीदास ने कहा है -
आवत ही हरशत नहीं, नैनन नहीं सनेह
तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे मेह।
मुझे पक्का पता नहीं कि तुलसी ने यह दोहा कुत्ता पालक के लिए कहा था कि उस कुत्ते के लिए जो अपनी श्वान मुद्रा पर भौं-भौं वाला रौद्र भाव लिए आगंतुक पर उछलता, लपकता है। पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि दूसरी पंक्ति वहाँ जाने के लिए निषेध करती है जहाँ कुत्ते से सावधान वाली तख्ती टँगी हो।
आप कभी अपना उषा काल बिगाड़ कर कालोनी की चौड़ी सड़कों पर उतर जाइए तो जितने रिटायर्ड राजनीतिज्ञ, ऊँचे अफसर, बूढ़े सेठ-साहूकार, ठेकेदार, दलाल अपने साथ अपना-अपना कुत्ता और अपनी-अपनी बूढ़ी पत्नी लिए घूमते दिखाई दे जायेंगे। वे कुत्ते को घुमाने निकलते हैं या अपनी पत्नी को, यह साफ मालूम नहीं पड़ता। अगर आप उनसे पाँच-सात कदम आगे-पीछे चलें तो साफ सुन सकते हैं कि वे दो तरह की बातें बतियाते चलते हैं। एक तो रिटायरमेंट के पहले पाले कुत्तों के चाल-चलन और उनके अजूबे करतबों के बारे में, दूसरे अपने अफसर बेटे और फैशनेबुल, खर्चीली बहू की अजीब आदत-व्यवहारों के बारे में। दरअसल प्रातः भ्रमण के वे क्षण उन बूढ़ों के अतीव सुखद क्षण होते हैं जिनमें वे मिल्क बूथ से दो-तीन पैकेट भी लेकर बेटों-बहुओं के घर पहुँचते हैं जो बनवाया उनका होता है। एक भूतपूर्व कुत्ता पालक की दुखद कथा मुझे सुनने मिली। कथा यह है, वह कुत्ता पालक एक बढि़या नस्ल के कुत्ते को कुछ वर्षों पूर्व पाले हुए थे। उनका एकमात्र पुत्र इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ रहा था जिसके साथ रिटायरमेंट के बाद रहने का सुखद सपना वह देखा करते थे। लड़का होस्टल में रहता और कुत्ता उनके पास। कुत्ते पर वह अपना सारा लाड़-दुलार लुटाते। उसके साथ खाना खाते, काॅफी पीते, बढि़या बिस्कुट खिलाते और कभी-कभी अपने पलंग पर सो जाने की इजाजत तक दे देते। मतलब यह कि कुत्ते को अपने बेटे जैसा प्यार करते थे, पर वह कुत्ता वफादार नहीं निकला। उनके कथानुसार कुत्ता, ‘कुत्ता कुल कलंक’ था।
हुआ यह था कि वह कुत्ता बगल के बंगले वाली कुतिया से आशनाई कर बैठा। कुछ दिनों बाद कुतिया के पालक अफसर को दूर सिविल लाइंस में बंगला अलाॅट हो गया और वह अपनी कुतिया के साथ सिविल लाइन शिफ्ट हो गए। कुत्ता मजनू के समान अपनी लैला कुतिया के लिए चक्कर काटने लगा। साहब ने देखा कि कुत्ता खानदानी और बढि़या नस्ल का है तो उन्होंने उसके लिए बंगले का गेट खोल दिया। मजनू लैला से मिला और घर जमाई-सा उस बंगले में ही बस गया। पूर्व कुत्ता पालक टापते रह गए।
इधर लायक बेटे ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। लगे हाथ सुंदर बहू और ऊँची नौकरी भी मिल गई। पर नौकरी मिली दूर के नगर में। वह जब से वहाँ अपनी पत्नी के साथ गया तो माँ-बाप को बुलाने का नाम ही नहीं लेता। रिटायर्ड माँ-बाप अपने सपने धूल में मिलते कई वर्षों से देख रहे हैं। अब वह भूतपूर्व कुत्ता पालक महोदय अपने बेवफा कुत्ते और नालायक बेटे को एक जैसी गालियाँ दिया करते हैं। यह सही है कि ऐसे कुत्ता पालक अपवाद हैं हमारी कालोनी में, पर मैं फिर सोचता हूँ कि कहीं बेवफा कुत्तों और नालायक बेटों की बाढ़ अगले दस-बीस वर्षों में हर कालोनी में न फैल जाये। मुझे विक्टर ह्यूगो का कथन याद हो आता है -‘ज्यों-त्यों मैं आदमी का अध्ययन करता हूँ, त्यों-त्यों मुझे कुत्तों से प्यार होता जा रहा है’। और मैं वर्तमान तथा भविष्य पर सोचने लगता हूँ।

चिडि़याघर

चिडि़याघर


(वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग का लिखा एक और व्यंग्य "चिडि़याघर" जो देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित समाचार पत्र ""दैनिक हिन्दुस्तान" में छपा था और 'प्रभात प्रकाशन' (नई दिल्ली) द्वारा प्रकशित उनके व्यंग्य संग्रह "घास चोरी का मुक़दमा" में शामिल हुआ) 
अखबार में छपी खबर पढ़ी -फलाँ शहर का नगर निगम चिडि़याघर बनायेगा। खबर छोटी थी, पर मुझे बड़ी रोचक और कल्पनाशील लगी। मेरा मन आकाश में चढ़कर चिडि़याघर देखने लगा।
खबर पढ़ते ही मुझे एक पुराना वाकया याद आया। कई साल पहले एक स्कूल के प्रिंसिपल का ट्रांसफर हुआ। मेरे अलावा सारे स्टाफ ने तय किया कि उनको अभिनंदन पत्र दिया जाये। अभिनंदन पत्र लिखने का दायित्व सौंपा गया हिंदी के व्याख्याता को जो अमूमन ऐसे दायित्व निभाने के लिए अभिशप्त होता है। अभिनंदन पत्र लिखना, शोक प्रस्ताव लिखना, वार्षिक रिपोर्ट लिखना, मंत्री, संचालक या विभिन्न अध्यक्षों के आगमन पर प्रशस्ति पट्टिकाएँ लिखकर टँगवाना, स्वागत गान गवाना हिंदी व्याख्याता के जिम्मे होता है। उसे स्कूल की वार्षिक पत्रिका का संपादक भी बनाया जाता है, क्योंकि वह फोटो के ऐसे शीर्षक देने में पटु होता है -श्रद्धेय प्राचार्य महोदय कार्यालय में अपनी कलम-दवात के साथ, कर्मठ प्राचार्यजी श्रम दान के क्षणों में फावड़ा उठाए प्रेरणाप्रभा विकीर्ण करते हुए, हमारे परमश्रद्धेय प्राचार्यजी और सुगंध गंध कोश गुलाब पुष्पों का मनोहर हार अत्यंत विनम्र भाव से ग्रीवा अर्पण करते हुए, आदि, आदि।
अभिनंदन पत्र को हिंदी के व्याख्याता ने लिखा और मित्रतावश मुझे दिखाया। मैं दंग रह गया उसे पढ़कर कि हिंदी भी इतनी आनंददायक भाषा हो सकती है। तभी से आज तक हिंदी के व्याख्याताओं की हिंदी का बड़ा कायल हूँ। जो प्रशस्तियाँ उसमें थीं, उसके बारे में क्या कहूँ पर एक प्रशस्ति पढ़कर मुझे हँसी आ गई थी और अब भी उसे याद कर आ जाती है। वह सदा हास्य सुख देने वाली प्रशस्ति थी -‘आपने विद्यालय की प्रयोगशाला में तरह-तरह के जीव-जंतु एकत्र करवा रखे हैं जो विद्यार्थियों का ज्ञानवर्द्धन करते रहते हैं।’ सचमुच विद्यालय प्राचार्य के जीव-जंतु प्रेम के कारण अच्छा-खासा चिडि़याघर बन गया है, पर मैंने व्याख्याता से कहकर वे शब्द बदलवा दिए थे। पता नहीं उस युग में मेरी मनःस्थिति किस प्रकार की थी। आज का समय होता तो मैं शायद कुछ जीव-जंतुओं के नाम भी उसमें जुड़वा देता।
भोपाल में भी कई वर्षों पहले शासन ने श्यामला हिल पर अच्छा-खासा चिडि़याघर, जिसे वन विहार कहते हैं, बना रखा है। हमारा मध्यप्रदेश भारत भर में सबसे अधिक क्षेत्रफल में जंगल रखता है। फिर भी शहरी नागरिक जानवरों को जंगलों में कहाँ देख पाता है ? इसलिए राजधानी में नागरिकों के लिए शासन ने दर्शनीय चिडि़याघर बना दिया है। हमारे प्राचार्य और शासन इस तरह एक ही श्रृंखला की कडि़याँ जोड़ते हैं और अपने-अपने दायित्व निभाते हैं।
मुझे यह नहीं मालूम कि भोपाल के चिडि़याघर में कुल कितने जानवर और चिडि़या हैं पर मेरे विद्यार्थी उसके सम्बंध में चर्चा कर रहे थे। एक विद्यार्थी ने चर्चा छेड़ी -‘सर, कल मैं चिडि़याघर देखने गया था। पर वहाँ मुझे शेर देखने को नहीं मिला। गार्ड से मैंने पूछा, भैया जंगल के राजा साहब कहाँ चले गए ? मुझे उनके दर्शन करना है तो सर, वह मुस्करा कर बोला -जंगल के राजा दिल्ली गए हैं। सर, क्या शेर भी दिल्ली चले जाते हैं ?’
मैं उस विद्यार्थी के भोले प्रश्न पर मुस्करा पड़ा था। और शायद मेरी मुस्कराहट भी बिल्कुल वैसी थी जैसी उस चिडि़याघर के चौकीदार की होगी जो विद्यार्थी से मुस्कराहट भरा मजाक कर बैठा था। मैं विद्यार्थियों को बताता हूँ -‘मध्यप्रदेश में सफेद शेर पाए जाते हैं जो अक्सर दिल्ली के चिडि़याघर की शोभा बढ़ाने जाया करते हैं। दिल्ली से भेजे गए शेर मध्यप्रदेश के चिडि़याघर की शोभा बढ़ाते हैं। यह आदान-प्रदान यात्रा, आजादी के बाद, कई दशकों से बराबर चली आ रही है।’
दूसरा विद्यार्थी बोला -‘सर, हमने तो शेर देखा था। पर क्या शेर ऐसा सुस्त और अपने दायरे में चहल-कदमी करने वाला होता है ?’
मैं उत्तर देता हूँ -‘ऐसी बात नहीं है। चिडि़याघर के दायरे में बँधा शेर वातावरण के प्रति संवेदनशील हो जाता है। उसे कृत्रिम वातावरण और कृत्रिम व्यवहार सिखाने वाले लोग पस्त कर देते हैं और वह अपने मौलिक गुणों को खो बैठता है।’
दूसरे विद्यार्थियों ने बताया -‘सर, भोपाल के चिडि़याघर में भेडि़या भी है, मोर, लोमड़ी, बगुले, तरह-तरह की चिडि़या, तोते, अजगर, मगर, घडि़याल और साँप भी हैं।’
मैं कहता हूँ -‘बच्चों, चिडि़याघर की सैर जरूर करो। बार-बार जाओ तुम्हारा मनोरंजन होगा और ज्ञानवर्द्धन भी। वहाँ के घडि़यालों और मगरमच्छों का सूक्ष्म निरीक्षण करो। तुम्हें मालूम होगा कि वे मजे से मुर्गियों को डकारते रहते हैं और झूठे आँसू बहाया करते हैं। उनके ऐसे आँसुओं को घडि़याली आँसू कहते हैं। तुमने कहानी पढ़ी होगी कि लोमड़ी यह कहकर भाग जाती है कि अंगूर खट्टे हैं पर चिडि़याघर की लोमड़ी कुर्सी पर चढ़कर अंगूर खा लेती है और उसे भरपूर मीठे अंगूर खाते रहने की आदत होती है। भेडि़या और मेमने की कथा तुम्हें वहाँ प्रत्यक्ष देखने मिल सकती है जिसमें भेडि़या मेमने पर दोषारोपण कर उसे खा जाता है कि तूने नही ंतो तेरे बाप ने मुझे गाली दी थी। अजगर पड़े-पड़े खाते और मुटाते रहते हैं जिनके बारे में संत मलूकदास का यह दोहा याद कर लो -
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम।
दिल्ली सहित कई नगरों के चिडि़याघरों में हाथी और गैंडे भी रखे जाते हैं। वहाँ हाथी कैसे मजे में मीठे-मीठे गन्ने, जो सरकारी बजट के होते हैं, खाते रहते हैं और ठठेरा दूसरों की ओर फेंकते रहते हैं। मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू कहावत वहीं देखने मिलेगी तुम्हें। अच्छा बताओ, सफेद हाथी का देश किसे कहते हैं ?’
एक छात्र बताता है, ‘सर, भारत को।’
उत्तर सुनकर मन ही मन मैं चमत्कृत होता हूँ। सोचता हूँ यह कबीर का वंशज है। अंखियन देखी बात कहता है, पर मैं तो अध्यापक हूँ। मुझे किताब में लिखी बात बतानी चाहिए। सो बताता हूँ -‘नहीं, भारत को नहीं, थाईलैंड को सफेद हाथियों का देश कहते हैं।’
तभी एक दूसरा छात्र बताता है -‘सर, मुझे तो चिडि़याघर में सबसे खूबसूरत चिडि़या लगी। कैसे-कैसे प्यारे तोते वहाँ हैं। मोर, बतखें, बगुले कितने मन को मोहते हैं। छोटी-छोटी चिडि़यों का रंग-बिरंगापन, उनका उड़ना, चीं-चींकर चहकना, फुदक-फुदक कर बिखरे दाने चुगना सब आनंद से भर देते हैं। सर, कभी-कभी मैं सोचता हूँ काश ! अगर मैं भी चिडि़या होता तो यह कितना बढि़या होता।’ उसकी बात सुनकर सब छात्र हँस पड़ते हैं।
पर मुझे उस छात्र में कवि होने के कीटाणु नजर आने लगते हैं। मुस्करा कर कहता हूँ -‘हाँ बेटे, अगर तुम चिडि़या होते तो तोते के समान समस्याओं से आँखें फेर लेते, बगुला भगत बन मजे से मछलियाँ निगलते और गाँधीवादी बने रहते, पर तुम कवि बन सकते हो, चिडि़या पर कविताएँ लिख सकते हो। तुमने देखा है कि कितनी मस्ती से चिडि़याघर की चिडि़या सरकारी दाने चुगती हैं और इतराती हैं। तुम भी वे सब दाने चुग सकोगे, पुरस्कृत भी होते रहोगे। तुम्हारी कविताओं की सरकारी खरीद हो सकेगी, तुम्हें सरकारी मंच चहकने के लिए मिलते रहेंगे। अर्जुन के समान चिडि़या को लक्ष्य में रखो, नाम और दाम कमा लोगे।’ मैंने देखा कि वह छात्र चिडि़या जैसा फूलकर मेरी बातें सुन रहा था।
घंटा बज गया था। चिडि़याघर ने मुझे पूरा अवसर दे दिया था कि छात्रों को प्रसंग और संदर्भ सहित कुछ समझा सकूँ। विद्यार्थी तो खुश थे ही, मैं भी सुख अनुभव कर सका था।
तो चिडि़याघर ऐसी अपार संभावनाओं का उपक्रम है। जो खोले सो निहाल। हर नगर निगम का प्रथम और आखिरी दायित्व चिडि़याघर की स्थापना ही होना चाहिए, क्योंकि चिडि़याघर की स्थापना की घोषणा के साथ ही नगर निगम गरमागरम चर्चा का केंद्र बन जायेगा। नागरिक यह भूल जायेंगे कि उनकी सड़कों पर कितने गड्ढे हैं, कितने गटर खुले रहते हैं। कितनी गंदगी और कितने मच्छर-मक्खी नागरिकों की नींद हराम करते हैं। गंदी बस्तियाँ और झुग्गी-झोपडि़याँ कितनी बदसूरती का बोझ उठाए विस्तृत हो रही हैं। ऐसी अनेक ज्वलंत समस्याएँ बिना फायर ब्रिग्रेड की व्यवस्था के ही अपने-आप बुझ जायेंगी और चिडि़याघर नागरिकों को जगते-सोते आँखों में बना रहेगा।
चिडि़याघर द्रौपदी का स्वयंवर बन जाएगा और महापौर यानी निगमाध्यक्ष अर्जुन के समान मत्स्य वेधकर सत्ता सुख की द्रौपदी का उपभोग करता रह सकेगा। नगर और नगर निगम में चर्चा का विषय रहेंगे कि चिडि़याघर कहाँ, किसकी, कितनी जमीन में बन रहा है। कौन-कौन से जानवर, पक्षी मँगाए जा रहे हैं, किस पर कितना खर्च हो रहा है ? कौन-सा जानवर, चिडि़या आई, कौन-सी रह गई ? किस सजग पार्षद ने किस जानवर के लिए प्रस्ताव रखा और किस जानवर के लिए प्रस्ताव पास नहीं होने दिया। कौन-सा पार्षद किस-किस चिडि़या के लिए दहाड़ा और कौन शेर के लिए मिमियाता दिखा ?
फिर जानवरों की मौत, दुबला होना, खाद्य सामग्री और दवाइयों में भ्रष्टाचार आदि कितने अनगिनत मसले रहेंगे चर्चाओं के लिए, इन सब कवायदों से चिडि़याघर आसानी से उभरकर आयेगा।
सो भैया, चिडि़याघर की स्थापना नगर निगमों के लिए अत्यंत लाभप्रद उपक्रम है। मेरी तो मंशा है, हर नगर निगम और नगरपालिका अपने-अपने नगर में चिडि़याघर स्थापित करे और अपना पुनर्जन्म सफल करे।

"घासचोरी का मुकदमा"

व्यंग्य "घासचोरी का मुकदमा"/ हरिकृष्ण तैलंग

प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा इसी शीर्षक से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह को मप्र साहित्य अकादमी का शरद जोशी सम्मान और मप्र हिंदी साहित्य सम्मलेन का वागीश्वरी सम्मान मिला था.
// मंत्री जी उषाकाल में अपनी बढि़या घास की फसल के बीच घूम रहे थे कि उन्हें दिखाई दिया कि पाँच-सात बित्ते जमीन की घास गायब है। एक-एक बित्ता घास उनकी नजरों में थी। एक एक तिनके से उन्हें मोह था, पर यहाँ तो सैकड़ों तिनके गायब हो चुके थे। पूरा प्रदेश और देश भले ही कोई चर जाये पर अपने बंगले की अपनी घास कोई चर ले तो कैसे सहा जा सकता है ! मंत्री जी कभी भी इतने नहीं तमतमाये थे, चाहे उनके विभाग में कितने ही भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हुए हों, कितनी ही महत्वपूर्ण फाइलें गायब हुई हों, हजारों पुराने मसले निपटने के लिए पड़े हों, प्रदेश में कितने ही डाकू लूट और हत्याएँ कर रहे हों, कितने ही मासूम बच्चों-बच्चियों का अपहरण हुआ हो, कितनी युवतियों के साथ बलात्कार होकर उनकी हत्या कर दी गई हे, यहाँ तक कि एक मंत्री के बंगले की चट्टान पर ही युवती की सिरकटी लाश पाई गई हो, वह सदा शांत भावी बने रहे, कतई विचलित नहीं हुए। तपे-तपाये गाँधीवादी और परम्परागत अहिंसा के हामी जो थे। पर यह तो मामला ही कुछ दूसरा था।//
मंत्री के बंगले में बढि़या घास लहलहा रही थी।
यों आमतौर पर सभी बंगलों, खासकर सरकारी बंगलों की जमीन बड़ी उपजाऊ होती है। बंगले वाले उसमें कुछ भी उपजा सकते हैं, और भारी फसलें ले सकते हैं। फिर मंत्री जी के बंगलों की फसलों के क्या कहने ! वे कोई भी फसल उगायें, बीज, खाद, सिंचाई, सुरक्षा आदि प्रजातंत्र की समझदार जनता जुटा देती है। मंत्री जी अंकुरण के समय से ही उस फसल को दिन दूनी, रात चैगुनी बढ़ता देख खुश होते रहते हैं। उनके पेट और चेहरे की रौनक उसी अनुपात में बढ़ती रहती है।
तो मंत्री जी के बंगले में बढि़या घास लहलहा रही थी। मंत्री जी और उनके परिवार की खुशियों का पारावार न था। फुरसत के क्षणों में वे यह सलाह करते रहते कि बंगले की बढि़या घास किस-किस गाय को कितनी-कितनी मात्रा में कब-कब चराना है ताकि भरपूर मात्रा में दूध और मक्खन मिलता रह सके। मंत्री जी और उनका परिवार ऐसी ही आनंददायी कल्पनाओं में था कि एक हादसा हो गया।
हुआ यह कि मंत्री जी उषाकाल में अपनी बढि़या घास की फसल के बीच घूम रहे थे कि उन्हें दिखाई दिया कि पाँच-सात बित्ते जमीन की घास गायब है। एक-एक बित्ता घास उनकी नजरों में थी। एक एक तिनके से उन्हें मोह था, पर यहाँ तो सैकड़ों तिनके गायब हो चुके थे। पूरा प्रदेश और देश भले ही कोई चर जाये पर अपने बंगले की अपनी घास कोई चर ले तो कैसे सहा जा सकता है ! मंत्री जी तमतमा गये।
मंत्री जी कभी भी इतने नहीं तमतमाये थे, चाहे उनके विभाग में कितने ही भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हुए हों, महत्वपूर्ण फाइलें गायब हो हुई, अनगिनत पुराने मसले निपटने के लिए पड़े हों, प्रदेश में कितने ही डाकू लूट और हत्याएँ कर रहे हों, कितने ही मासूम बच्चों-बच्चियों का अपहरण हुआ हो, कितनी युवतियों के साथ बलात्कार होकर उनकी हत्या कर दी गई हे, यहाँ तक कि उनके बंगले की चट्टान पर ही युवती की सिरकटी लाश पाई गई हो या राजधानी की घनी बस्ती के काली मंदिर के चबूतरे पर युवक की लाश मिली पर वह सदा शांत भावी बने रहे, कतई विचलित नहीं हुए। तपे-तपाये गाँधीवादी और परम्परागत अहिंसा के हामी जो थे। पर यह तो मामला ही कुछ दूसरा था। यह तो अति थी इसलिए मंत्री जी का घास चोरी पर तमतमाना मनोवैज्ञानिक रूप से वाजिब था।
सो मंत्री जी तमतमाये। उनके तमतमाने पर बंगले में हड़कंप मच गया और घास चोरी की सूचना टेलीफोन से तुरंत पुलिस को दी गई।
मंत्री जी के बंगले में घास की चोरी ? कलंक लग गया। पुलिस की क्षमता पर कलंक याने कि पुलिस फौरन हरकत में आ गई। घंटे-दो घंटे में चोर पकड़ लिया गया। पुलिस की तत्परता और क्षमता की प्रशंसा हुई।
मामला मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। मात्र दस-बारह रुपये की घास चोरी का मामला था।
मजिस्ट्रेट ने घास चोर से पूछा -‘तुम्हारे ऊपर मंत्री जी के बंगले से घास चुराने का इल्जाम है। तुम्हें इस बारे में क्या कहना है ?’
घास चोर -‘हजूर, मैं तो एक गट्ठा घास काटने गया था, पर पाँच-सात मुट्ठी घास ही काट पाया था कि सिपाही मियाँ ने मुझे भगा दिया। हजूर, मुझ पर तो जुल्म हुआ है, एक भरपूर गट्ठा घास न काटने देने का जुल्म। हजूर न्याय करें, सच्चा न्याय करें।’
मजिस्ट्रेट -‘एक तो तुमने चोरी की, ऊपर से जुल्म होने की शिकायत कर रहे हो ? बिना मालिक की मर्जी के गुपचुप उसकी चीज ले लेना चोरी है। कानून यह कहता है।’
घास चोर -‘हजूर, जो कानून कहता है वही मैं कहता हूँ। बंगला मंत्री जी की मिल्कियत नहीं है। बंगला और बंगले की जमीन, जहाँ बढि़या घास लहलहा रही है, आम आदमियों की मिल्कियत है जो मंत्रियों को सौंपी गई है। हजूर, मैं आम आदमी हूँ। मैंने वोट दिया था।’
मजिस्ट्रेट -‘माना तुम आम आदमी हो, मतदाता हो पर बंगले पर मंत्री जी का कब्जा है। घास उन्होंने उगाई है, अतः वे उसके मालिक हैं। मर्जी के बिना घास लेकर तुमने चोरी की है।’
घास चोर -‘हजूर, बंगला मंत्री जी के कब्जे में है पर घास उन्होंने नहीं उगाई। हजूर, मैं रोज देखता रहा अफसर आकर मजूरों से घास लगवाते थे। चपरासी पानी देते, निदाई करते थे। सिपाही घास की सुरक्षा करते और उन सबकी तनख्वाह सरकारी खजाने से मिलती है जो खजाना जनता की कमाई से भरता है। मंत्री जी और उनके घरवालों ने तो न छदाम लगाई, न एक बूँद पसीना बहाया। तो हजूर, घास मंत्री जी की मिल्कियत कैसे हो गई ?’
थोड़ा रुककर घास चोर आगे बोला -‘हजूर, पाँच दिन तो मैं भी घास लगाने बंगले पर गया था, पर हजूर मुझे सरकारी रेट से रोजाना दस रुपया कम दिया गया था। मेरा पचास रुपये का हिस्सा बैठता है। हजूर, अगर मेरे द्वारा ली गई घास दस-बारह रुपए की थी तो हजूर बकाया मजूरी और दिला दें।’
मजिस्ट्रेट -‘मान लिया तुम्हें घास लगाने की मजदूरी पर रखा गया था। पर यदि तुम्हें कम मजदूरी मिली थी तो तुमने मंत्री जी से, अफसरों से शिकायत क्यों नहीं की ?’
घास चोर -‘हजूर, शिकायत की थी। शिकायत करने में छठा दिन चला गया और सातवें दिन से मुझे काम पर आने से मना कर दिया गया।’
मजिस्ट्रेट -'इसका कोई सबूत है तुम्हारे पास कि तुम्हें पाँच दिनों की मजदूरी कम दी गई ?’
घास चोर -‘हजूर, सबूत यह है कि मैं अपने हिस्से की बकाया रकम की घास काटने गया था। मेरी गैया और बछिया भूखी थी हजूर। मंत्री जी भले मेरी गाय की भूख की परवाह न करें पर मैं आदमी होकर अपनी गाय, बछिया को कैसे भूखा देख सकता था ? सो एक गट्ठा घास काटने गया था, हजूर !
यह जुल्म है हजूर कि मालिक को अपनी भूखी गैया के लिए गट्ठा भर घास भी न लेने दी जाये और मालिकों का नुमाइंदा मालिकों की घास का दूध और मक्खन पाने के लिए इस्तेमाल करे। हजूर, मैं प्रजातंत्री मुल्क का बाशिंदा हूँ। न्याय करें हजूर।’
मजिस्ट्रेट गंभीर हो गया, बोला -‘ले जाओ इसे, फैसला अगली पेशी पर होगा।’

मेरा और मेरी पत्नी का राशिफल

मेरा और मेरी पत्नी का राशिफल

// सितारों के असर के बारे में एक कुदरती जिज्ञासा हर आदमी में होती है। वही कुदरती जिज्ञासा हमें राशिफल का गुलाम बनाती है। दरअसल हम राशिफल का दिखावा करते हैं, उस पर पूरा-पूरा विश्वास नहीं करते। अगर हम विश्वास करते हैं तो राशि और फल, दोनों पर अलग-अलग करते हैं। अच्छी राशि यानी धन बराबर आता रहे और पेड़ न लगाने पर भी हमें भरपूर फल मिलते रहें, यह हमारी आकांक्षा रहती है। //


सारी दुनिया राशिफल के चक्कर में है। ज्यादातर आदमी राशिफल के भरोसे अपना जीवन जी रहे हैं। हमारे हिंदुस्तान में तो राशिफल पर जीवन का भविष्य टिका हुआ है। बच्चा पैदा होता है तो जच्चे की तबियत पूछने के बजाय बाप पंडित के यहाँ राशिफल पूछने दौड़ जाता है। बच्चे का नाम, उसका अन्नप्राशन, शाला प्रवेश, नौकरी-व्यवसाय, विवाह आदि राशिफल के अनुसार होते हैं। जमीन खरीदना, मकान बनवाना, उसमें प्रवेश करना, यात्रा करना, मुकदमा जीतना, चुनाव लड़ना आदि जितना धन पर निर्भर नहीं करता उतना राशिफल पर निर्भर होता है।
पर असलियत कुछ दूसरी है। सितारों के असर के बारे में एक कुदरती जिज्ञासा हर आदमी में होती है। वही कुदरती जिज्ञासा हमें राशिफल का गुलाम बनाती है। दरअसल हम राशिफल का दिखावा करते हैं, उस पर पूरा-पूरा विश्वास नहीं करते। अगर हम विश्वास करते हैं तो राशि और फल, दोनों पर अलग-अलग करते हैं। अच्छी राशि यानी धन बराबर आता रहे और पेड़ न लगाने पर भी हमें भरपूर फल मिलते रहें, यह हमारी आकांक्षा रहती है। यही वह आकांक्षा है जो हमें राशिफल जानने को विवश करती है।
मेरा राशिफल पर कोई विश्वास नहीं है, पर पत्नी राशिफल पर पूरा विश्वास जताती है। पत्नी के राशिफल पर विश्वास करने के मौलिक कारण हैं। राशिफल के अनुसार ही उसे हमारे साथ सात चक्कर लगाने पड़े थे। तब से वह अपने दुर्भाग्य, जिसे आमतौर पर वह सौभाग्य कहती है, का जिम्मेदार राशिफल को ठहराती है। इसी कारण वह राशिफल की प्रबलता की कायल है।
कई साल पहले की बात है। हम कुछ परेषानियों में थे। पता नहीं पत्नी को क्या सूझा कि वह पंडित के पास गई और मेरा राशिफल पूछ आई। पता चला, मेरी राशि पर शनि की दशा है। शनि की शान्ति के लिए पंडितजी ने जो-जो उपाय बताए, उनसे मुझे निश्चय हो गया कि अब जरूर शनिचर लगने वाला है। पंडितजी ने बताया था, ‘हर शनिवार को पाँच ब्राह्मणों या पाँच कन्याओं को भोजन कराइए, तेल का दान कीजिए। पीपल के वृक्ष तले दीया जलाइए और पुखराज की अँगूठी बनवाकर पहनिए।’
अच्छा-खासा खर्च था। मैंने पुखराज की तलाश की। पता चला, साधारण पुखराज हजार-बारह सौ में और अच्छा पुखराज तीन-चार हजार रुपए में आएगा।
पत्नी बोली, ‘तीन-चार हजार वाला ठीक है। ज्यादा असर करेगा।’
क्या करता ? अखरने के बावजूद मुझे छत्तीस सौ का पुखराज खरीदना पड़ा। यद्यपि उस शनि की दशा में मुझे दो पुरस्कार मिले। नगरपालिका ने मेरे सम्मान का प्रस्ताव पारित किया। इस सबसे चाँदी हुई पत्नी की, क्योंकि मैंने वह पुखराज कभी नहीं पहना, पर पत्नी ने हार बनवाकर लाॅकेट में जड़वा लिया। आज उसके गले में जब पुखराज लटकता देखता हूँ तो शनि महाराज की कारस्तानी याद आ जाती है।
राशिफल पर मेरे अविश्वास का एक कारण और है। वह यह कि सारी दुनिया में सिर्फ बारह राशियाँ होती हैं। यदि राशिफल सही होता तो सारी दुनिया के लोगों का भाग्य बारह तरह का ही हर दिन, हर हफ्ते और हर बरस होता। दुनिया के आदमियों में अनगिनत अंतर न होते। आप ही सोचिए, यदि कर्क राशिवालों को किसी हफ्ते धन का लाभ होना है तो सभी कर्क राशिवालों की चाँदी होती। पर सिंह राशिवालों की मुसीबत, क्योंकि उस हफ्ते सिंह राशिवालों को धन हानि का योग बताया गया होता है। मिथुन राशिवालों को यदि व्यापार में लाभ बताया गया होता है तो तुला राशिवालों को व्यापार में हानि। यदि ऐसा होता तो लाभ और हानि राशिवालों में उस सप्ताह आपसी दंगा होते कितनी देर लगती ? किसी हफ्ते यदि कुंभ राशिवालों का पदोन्नति का योग होता तो सरकार की मुसीबत हो गई होती, क्योंकि सरकार तो पद खाली होते हुए भी पदोन्नति आदेश नहीं करती, सभी कुंभ राशिवालों को पदोन्नति कहाँ से दे देती ? मीन राशिवालों के लिए यदि अपमान और कलंक का योग होता तो दर्जनों सांसद और सैकड़ों विधायक मीन राशिवाले हैं, क्या उनको अपमान और कलंक का सामना एक ही हफ्ते में करना पड़ता ? कन्या और मकर राशिवाले भी एक ही हादसे और हर्ष के अवसर भुगतते और उस हफ्ते शराब की बिक्री काफी बढ़ जाती। पर यह सब होता नहीं, क्योंकि सारी मानव जाति को बारह खानों में नहीं बाँटा जा सकता।
फिर भी राशिफल खूब पढ़ा जाता है और हर पत्र-पत्रिका एवं न्यूज चैनल उसका एक काॅलम तथा प्रोग्राम अवश्य रखता है। अच्छी से अच्छी साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की सामग्री का बलिदान क्यों न करना पड़े, राशिफल वाला काॅलम अवश्य छपता है, प्रसारित होता है। यदि अखबार और पत्रिकावाले केवल विज्ञापनों और राशिफलों से भरा अंक निकालें तो वह भी अच्छी संख्या में बिक सकता है।
राशिफल पर पूरे अविश्वास के बावजूद मैं भी राशिफल अवश्य पढ़ता हूँ। पर एक चतुराई बरतता हूँ। पाठकों को मेरी सलाह है कि वे अपना राशिफल पढ़ते हुए अपनी पत्नी का राशिफल भी अवश्य पढ़ लिया करें। तब मुझे पूरा विश्वास है कि वे राशिफल पढ़ने के दीवाने तो बने रहेंगे पर मेरी तरह उस पर अविश्वास भी करेंगे। अविश्वास करते हुए भी विश्वास बनाए रखने का एक अजीब सुखद मजा होता है। घरेलू जिंदगी में और चुनावों में यह बड़े काम की चीज है।
इधर एक और मुसीबत राशिफलों के बारे में आ खड़ी है। हमारा राशिफल उस जमाने का होता है जिस जमाने में हिंदुस्तान में लोग चैत्र, वैशाख या मार्गशीर्ष, फाल्गुन जैसे हिंदुस्तानी महीनों में पैदा होते थे, पर अब पूरे हिंदुस्तान में लोग जनवरी, मार्च या नवंबर-दिसंबर जैसे अंग्रेजी महीनों में पैदा होने लगे हैं। हिंदुस्तानी महीनों में पैदा होनेवाले लोग कर्क, मीन, सिंह, मिथुन जैसी राशियों में अपना राशिफल देखते हैं, पर अंग्रेजी महीनों में पैदा होनेवाले तारीखों के अनुसार राशिफल देखते हैं। हमने बीच का रास्ता निकाला है, क्योंकि हिंदुस्तानी और अंग्रेजी तिथियों की आपस में बनती नहीं है। वे बराबर खिसकती रहती हैं, सो मैं अपना और पत्नी का राशिफल उसे मानकर पढ़ता हूँ जो एक-दूसरे के विपरीत होता है और मजा देखिए, वह हर हफ्ते सटीक बैठ जाता है।
मेरी राशि है कर्क और पत्नी की वृष। आप जानते हैं कि कर्क केंकड़े को कहते हैं जो बड़ा चैकन्ना और कटखना होता है जबकि वृष बैल को कहते हैं जो थुलथुल शरीर का और बछिया के ताऊवाली बुद्धि का होता है। शारीरिक दृष्टि से राशिफल ठीक है, पर ऐसी विपरीत राशिवाले हम, अपनी जीवन रूपी गाड़ी में जुते उसे आनंद से खींचते चले आ रहे हैं। हमने अपनी गाड़ी में चार संतानें भी जुदा-जुदा राशियोंवाली समय-समय पर आमंत्रित कर बिठा ली हैं। उनके बोझ से हम विपरीत राशिवाले होते हुए विचलित नहीं हैं। हालाँकि जब हमारा विवाह हुआ था, उस समय की वृष राशि की एक कन्या अभी तक कुँआरी है और कर्क राशि के सज्जन की दूसरी पत्नी उनके घर की शोभा बनी उन्हें आनंद दे रही है। पर हम दोनों को इसका कोई गिला नहीं है।
जिस हफ्ते कर्क राशि के मान-सम्मान का योग होता है, उसी हफ्ते वृष राशि के अपमान का योग। हमारा मन आशा-आकांक्षाओं से हर्षित हो उठता है तो पत्नी का मन आशंकाओं और दुर्भावनाओं से भर जाता है। ऐसी स्थिति में न मैं पूरी तरह खुश रह पाता हूँ और न श्रीमतीजी। एक अजीब-सा संतुलन हमारे बीच बना रहता है। यदि मेरे लिए धन की प्राप्ति का योग होता है तो उसके लिए खर्च बढ़ाने का। उस हफ्ते एक-दो साडि़याँ और ब्लाउज पीस घर आ जाते हैं। जिस हफ्ते उसके लिए आर्थिक लाभ का योग होता है, उसी हफ्ते मेरे लिए हानि का। उस हफ्ते कहीं से मनीआॅर्डर नहीं आता, पर उसके ‘वार्डरोब’ की किसी साड़ी में रखा पाँच सौ का नोट मुझे मिल जाता है।
जिस हफ्ते पत्नी के राशिफल में निकट संबंधी से धोखा खाने का योग होता है तो उसकी जासूसी नजरें मुझ पर लग जाती हैं। यदि किसी हफ्ते पत्नी के राशिफल में लिखा होता है कि बचपन के किसी प्यारे दोस्त का पत्र मिलेगा तो मैं पोस्टमैन से खुद चिट्ठियाँ लेने लगता हूँ। यदि मेरी राशि में ‘स्वास्थ्य ठीक नहीं रहेगा’ वाली टिप्पणी होती है तो उसी रात से पत्नी की कमर में दर्द होने लगता है, सिर भारी हो जाता है और नाक बहने लगती है। तब मुझे रात में उठ-उठकर उसके शरीर पर बाम मलनी पड़ती है। दूसरे दिन सुबह चाय बनानी पड़ती है, झाड़ू लगानी होती है और नल से पानी भी भरना पड़ता है। भोजन बनाने में खासा सहयोग देना पड़ता है और हम मिल-जुलकर काम करने वाले आदर्श पति बन जाते हैं। अब बताइए, उस हफ्ते हमारा स्वास्थ्य क्या खाक अच्छा रहता होगा !
कभी-कभी मेरे राशिफल में आता है कि इस हफ्ते आत्मीयों से मिलन होगा। मैं खुश हो जाता हूँ कि कई वर्षों से घर न आए माता-पिता शायद गाँव से आ जाएँ, पर उसी हफ्ते पत्नी की माँ और छोटे भाई घर आ धमकते हैं।मेहमानवाजी का खर्च श्रीमतीजी के लिए सुखद हो जाता है।
कभी-कभी राशिफल में होता है कि साहित्यिक रचना या कलाकृति के सृजन का योग है। उसी हफ्ते पत्नी के स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है। अब बताइए पत्नी के चिड़चिड़ाते रहने पर भी क्या कोई सृजन संभव है ? यह व्यंग्य रचना भी मेरे राशिफल के विपरीत है। मेरी राशि में इस हफ्ते यात्रा पर जाने का योग था, पर हम कहीं नहीं गए। साथ ही लिखा था कि किया हुआ श्रम व्यर्थ जाएगा, पर हमने यह रचना लिख डाली और आप तक पहुँच भी गई। अब मैं अपने पारिश्रमिक के चेक का इंतजार कर रहा हूँ।

"प्रजातंत्र की परम्परा"/ हरिकृष्ण तैलंग

"प्रजातंत्र की परम्परा"/ हरिकृष्ण तैलंग

// सौ जन-आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले इंद्र को प्रधान मानकर सत्ता की बागडोर उन्हें थमा दी गई। उन्होंने अपना मंत्रिमंडल बनाया और शासन के विभागों का बँटवारा कर दिया। सत्ताधारी बनते ही इंद्र का अखाड़ा जमने लगा। अप्सराएँ उनके चारों ओर मँडराने लगीं। गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर उन्हें रिझाने में जुट गए। सत्ता की कृपा के आकांक्षी अनेक ऋषि इंद्र की स्तुति में ऋचाएँ रचने लगे। नारदों ने इंद्र का यश लोकभर में फैलाना आरंभ कर दिया। इंद्र की नाट्यशाला में तरह-तरह के नाटकों का नित्य प्रदर्शन होने लगा। विदूषकों की बन आई। इंद्र दरबार के वे अब शक्तिशाली पार्षद थे। //

साहित्यकार पिता से जिज्ञासु पुत्र ने पूछा -‘पिताजी, बरसात के समय मेढ़क इतना क्यों टरटराते हैं ?’
पिता ने बताया -‘बेटा, देवराज इंद्र को पानी बरसाने की याद दिलाने के लिए।’
बेटे ने पूछा -‘इसकी कोई कथा है क्या, पिताजी ?’
‘हाँ, है बेटा। सुनोगे ?’ कहकर पिता कहानी सुनाने लगा -
प्राचीन काल में लंबे जनसंघर्ष और लाखों लोगों के बलिदानों के बाद सत्ता जनता को सौंप दी गई। सत्ता पाकर जनता खुशी से झूम उठी। अब उसका चिरकाल का सपना मूर्त होगा। न कोई दीन रहेगा, न दरिद्री। शोषण, अन्याय, अज्ञान, भेदभाव और रोग समूल नष्ट हो जाएंगे। सब सुखी होंगे, सब राजा होंगे। परस्पर प्रेम करते हुए सब अपने-अपने कर्त्तव्यों के पालन में रत रहेंगे। शासन जन-जन के द्वार जायेगा।
पर सभी तो राजकाज नहीं देख सकते थे, इसलिए जनता ने अपने बीच से कुछ लोगों को राजकाज चलाने के लिए चुना। सौ जन-आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले इंद्र को प्रधान मानकर सत्ता की बागडोर उन्हें थमा दी गई। उन्होंने अपना मंत्रिमंडल बनाया और शासन के विभागों का बँटवारा कर दिया। सत्ताधारी बनते ही इंद्र का अखाड़ा जमने लगा। अप्सराएँ उनके चारों ओर मँडराने लगीं। गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर उन्हें रिझाने में जुट गए। सत्ता की कृपा के आकांक्षी अनेक ऋषि इंद्र की स्तुति में ऋचाएँ रचने लगे। नारदों ने इंद्र का यश लोकभर में फैलाना आरंभ कर दिया। इंद्र की नाट्यशाला में तरह-तरह के नाटकों का नित्य प्रदर्शन होने लगा। विदूषकों की बन आई। इंद्र दरबार के वे अब शक्तिशाली पार्षद थे। सोमरस से भरे चषक वे इंद्र दरबार को अर्पित करते रहते। यह आलम देखकर सृजन-स्वभावी ब्रह्मलोक में आकर बस गए। पालनकर्ता विष्णु श्री सहित क्षीरसागर में जाकर सो गये। कल्याणकारी शिव ने अन्नपूर्णा सहित संन्यास ले लिया और कैलाश पर पहुँच कर समाधि लगा ली। सरस्वती विलुप्त हो गई।
वसंत का समापन हुआ। ग्रीष्म आया। उसका ताप प्रखर होने लगा। जेठ में असह्य गर्मी से सारी सृष्टि झुलसने लगी। सब आकाश की ओर देखने लगे। अब बादल आयेंगे। जल बरसायेंगे। प्यासी धरती तृप्त हो, हरी-भरी हो उठेगी। मोर नाचेंगे और चिडि़या चहचहायेंगी। पर यह क्या हो रहा है ? आँखें फाड़कर देखते-देखते आषाढ़ बीत गया। सावन के कितने ही दिन सूखे निकल गए। आकाश में बादल तो छाते, गहराते, कभी-कभी बिजली भी कौंध जाती पर छुटपुट बूँदों के अलावा धरती को कुछ न मिला।
मनुष्यों ने सोचा, पशु-पक्षियों ने सोचा, वृक्षों, नदी-नालों और पहाड़ों ने भी सोचा -यह कैसा अपना राज्य है ? कैसे हमारे सत्ताधारी हैं ? वे समय पर पानी भी नहीं बरसा रहे। आखिर आगे की फसलों का क्या होगा ? चलो, इंद्र के पास चलें। हमने ही उन्हें सत्ता सौंपी है। प्रशासन को पहले से चुस्त, कुशल और गतिमान बनाने के लिए ही अपने प्रतिनिधि हमने शासन में भेजे हैं, न कि इसलिए कि हमारी सुरक्षा और समृद्धि ही खतरे में पड़ जाये। आखिर यह कैसी जनहितकारी कुशलता है कि पानी के लिए भी हमें आकाश की ओर देखते रहना पड़ रहा है ? चलो, चलो। सब राजधानी चलो। इंद्र के महल को घेर लो और उनसे जवाब तलब करो।
भीड़ उमड़ पड़ी। वह राजधानी जा पहुँची। उसने इंद्र का महल घेर लिया। इंद्र भवन के आसपास पुलिस की सख्त व्यवस्था थी। चतुर पुलिस को पहले ही पता चल गया था कि बहुत बड़ी भीड़ भवन को घेरने वाली है इसलिए उसने अच्छी घेराबंदी कर ली थी। जब भीड़ भवन के विशाल फाटक से भीतर घुसने लगी तो पुलिस अफसरों ने टोका -‘कहाँ जाते हो ?’
भीड़ बोली -‘हम जनता हैं। अपने प्रतिनिधि इंद्र के पास आए हैं उन्हें कर्तव्य बोध कराने। हमने क्या इसलिए उन्हें सत्ता सौंपी है कि वे समय पर पानी भी न बरसायें ? जाओ, उन्हें खबर करो कि जनता आई है। वह आकर अपने आकाओं से मिलें।’
इंद्र भवन के आसपास तैनात अफसर समझदार थे। शिष्ट भी थे। बोले -‘ठीक है, आप सभी आराम से विराजिए। हम माननीय इंद्र महोदय को सूचना भिजवाते हैं।’
भीड़ के अगुए अफसरों की विनम्रता से प्रभावित हुए। उन्हें अच्छा लगा, बोले -‘अच्छी बात है, हम यहीं बगीचे में उनकी प्रतीक्षा कर लेंगे।’ भीड़ इधर-उधर बँट गई। जगह-जगह गोल घेरे में लोग-बाग बैठ गए।
कुछ देर बाद इंद्र भवन का पब्लिक रिलेशन आॅफिसर आया। नम्रता से झुककर बोला -‘भाइयों, आप लोगों में से चार-पाँच आदमी माननीय इंद्र जी से बात करियेगा। वे जल्दी ही यहाँ आने वाले हैं। जनता की सेवा में वह दो-दो बजे रात तक व्यस्त रहते हैं। अभी भी बेहद जरूरी काम-काज निपटाने में जुटे हैं।’
भीड़ ने दस-बारह अगुए तय कर लिए। काफी समय इसमें बीत गया। बहुत-से लोग ऊबने लगे। तभी महल से वित्त मंत्री निकले। फिर गृहमंत्री यमराज निकले। फिर उद्योग मंत्री विश्वकर्मा और प्रचार मंत्री नारद जी निकले। गंधर्व और किन्नर गण भी अपने-अपने वाद्य यंत्रों को सँभाले बाहर चले गए। और अंत मे सजी-धजी पर कुम्हलाई उर्वशी, रंभा, चित्रलेखा आदि अप्सराएँ निकलीं। विनय भाव से वे सब भीड़ को नमस्कार कर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो चलते बने।
कुछ देर बाद ‘अनाउंसमेंट’ हुआ और इंद्र बाहर आते दिखे। साथ में कृषि और जल मंत्री वरुण जी थे। रात भर के जागरण से म्लान मुख पर मुस्कराहट लाकर, दोनों हाथ जोड़ उन्होंने भीड़ का अभिवादन किया और बोले -’अहोभाग्य हमारे ! जनता जनार्दन के दर्शन कर रहा हूँ। जब से आप लोगों ने राजकाज की यह झंझट सौंपी है, मैं चाहकर भी आप लोगों के बीच नहीं रह पाता। इसका बड़ा दुःख और कष्ट है मुझे, पर जनता ने जो दायित्व मुझे सौंपा है उसे सामर्थ्य भर निभाता रहूँ, यह मेरा कर्तव्य है। कहिए, आप लोग जनराज्य में कुशल मंगल और आनंद से तो हैं ?’
भीड़ के अगुए ने कहा -‘काहे का कुशल मंगल और कैसा आनंद ? माननीय महोदय, आषाढ़ कोरा निकल गया है और सावन के इतने दिनों में कभी-कभी बिजली भर कौंधी है, पानी गिरा ही नहीं। आखिर फसलें कैसे होंगी ? क्या पीयेंगे हम लोग ? भला पानी ऋतु आते ही क्यों नहीं बरसाया गया मान्यवर ? आपकी सरकार क्या कर रही है ?’
यह सुनकर इंद्र ने वरुण की ओर देखा। वरुण जी बोले -‘सरकार पूरी तत्परता से जनता की कठिनाइयों पर नजर रख रही है। मेरे मंत्रालय को अभी तक पानी न बरसने की कोई सूचना नहीं मिली थी। जनता का कोई ज्ञापन भी मंत्रालय को प्राप्त नहीं हुआ है। अनुचर मेघ अपने-अपने मंडल में बराबर दौरे पर जा रहे हैं। उन्होंने भी पानी न बरसने की कोई रिपोर्ट सरकार के पास नहीं भेजी। पर आज जनता स्वयं आयी है इसलिए हो सकता है, अनुचरों ने अपना कर्त्तव्य न निभाया हो। जाँच करवाकर, शीघ्र ही उचित कार्यवाही सरकार करेगी श्रीमान।’
इंद्र वरुण का वक्तव्य सुनकर बोले -‘यह खेद की बात है कि जनराज्य में अभी भी नौकरशाही की जड़ें मजबूत हैं। यह जनता का राज्य है। अनुचरों को अपना रवैया बदलना चाहिए। खैर, जनता की शिकायत पर दोषी अनुचरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी।’
वरुणजी, अभी जल सचिव को आदेश भेजिए कि हर मेघ मंडलाधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में जल बरसाये।’ फिर इंद्र जनता को संबोधित करते हुए बोले -‘भाइयों, हमने कठिन संघर्ष और बलिदानों के बाद स्वराज्य पाया है। यह जनता का राज्य है, जनता के द्वारा है और जनता के लिए है। आप लोगों को यह अधिकार है कि आप अपने प्रतिनिधियों को जन कल्याण के लिए मजबूर कर दें। हम जनता जनार्दन के सेवक हैं। आपके आदेशों का पालन करेंगे। जब भी हम गफलत करें, हमें दिशा दिखाइए। गल्ती करें, आकर हमारा कान पकड़ लीजिए। जनता का यह दायित्व है कि वह अपने प्रतिनिधियों पर नजर रखे और उन्हें भटकने न दे। आप लोग अपनी मांगें बराबर सरकार तक पहुँचाते रहिए और जोरदार स्वरों में ताकि सरकार कर्त्तव्य पथ पर बनी रहे।’
तभी ड्राइवर शानदार रथ लेकर पास आकर खड़ा हो गया। इंद्र ने वरुण सहित उसमें प्रवेश किया, फिर दोनों हाथ जोड़ लिए। रथ वायु गति से आगे बढ़ गया। अब भीड़ इस मसले पर विचार करने लगी कि सरकार के सामने जनता की मांगों को कौन प्रस्तुत किया करेंगे ? कौन वर्ग यह दायित्व उठाने को तैयार है ?
सबसे पहले वृक्षों से पूछा गया कि क्या वे इस जनहितकारी दायित्व को उठायेंगे ? वृक्षों ने कुछ सोचकर उत्तर दिया -‘भाइयों, हम प्रकृति से बँधे हैं अतः असमर्थ हैं। चलना-फिरना हमारा स्वभाव नहीं है। बड़ी कठिनाई से इस बार आप लोगों के साथ आए हैं। हमें रोज अपनी जीवन रक्षा के लिए धरती से, हवा से तत्व ग्रहण करने पड़ते हैं। समय पर फूलना-फलना पड़ता है। यदि यह न करें तो हमारी संतति ही नष्ट हो जायेगी। फिर हम वाचाल भी नहीं हैं कि मांगें जोरदार शब्दों में प्रस्तुत कर सकें इसलिए हमें क्षमा किया जाये।’
नदी-नालों से कहा गया तो वे बोले -‘हम वैसे ही गर्मी में क्षीण हो जाते हैं। नित्य प्रवाह हमारा धर्म है। इंद्र के राजभवन में कौन घंटों बैठा रहेगा ? हमें तो माफी दी जाये ?’
पशुओं ने भी इंकार करते हुए कहा -‘हमें अपने भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है। फिर हमारे पास वह भाषा कहाँ है जो हम मांगों के लिए प्रयुक्त करें ? बेहतर होगा कि किन्हीं और को यह जिम्मेदारी सौंपिये ?’
पक्षियों से कहा गया तो उन्होंने तर्क दिया -‘न भैया, हमें अपने जात भाइयों के पकाये जाने की गंध आ रही थी इंद्र भवन से। हमें अकेले अगर वहाँ जाना पड़ा तो पता नहीं कितने वापिस आ पायेंगे। फिर हमारे दाना-पानी का ठिकाना कौन करेगा, हम संग्रह तो करते नहीं।’
तब मनुष्यों ने कहा -‘यह दायित्व हम निभा सकते हैं पर सभी मांगें हम ही प्रस्तुत किया करें यह उचित न होगा इसलिए दूसरे वर्गों में से किसी को कोई एक दायित्व उठाना चाहिए।’
यह बात सुनकर मेढ़क सामने आये और बोले -‘जल बरसाने की मांग हम करेंगे। इंद्र को यथा समय यह याद दिला दिया करेंगे कि वह पानी बरसायें। यह दायित्व हमारा।’
मेढ़कों की बात सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। जल ही तो जीवन है। यह मांग पूरी होती रहे तो शेष सभी कुछ पूरा हो जायेगा। सारी भीड़ खुशियाँ मनाती अपने-अपने स्थानों को लौट गई।
तब से जेठ की गर्मी जैसे ही असह्य हो उठती है और इंद्र के अनुचर मेघ दौरे पर निकलते हैं, मेढ़क यत्र-तत्र सर्वत्र ‘टर्र टर्र’ टर्राने लगते हैं। इंद्र तब वरुण से कहते हैं -‘पानी बरसाओ, पानी बरसाओ।’ वरुण मेघों को जल बरसाने का आदेश देते हैं। पानी बरसने लगता है। पर मेढ़क टर्राते ही रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं उनकी टर्राहट बंद हुई तो मेघ पानी बरसाना बंद न कर दें क्योंकि जब मांग ही नहीं तो उसकी पूर्ति कौन करेगा ? जब पर्याप्त पानी बरस जाता है तब मेढ़क टर्राना बंद कर देते हैं और पानी बरसना बंद हो जाता है। तब हम मनुष्य कहते हैं -बरसात खत्म हो गई।
बेटा, यह कथा है मेढ़क के लगातार बरसात भर टरटराने की। बड़ा हितकारी दायित्व निभाते हैं मेढ़क। अगर वे न टर्राएँ तो इंद्र पानी ही न बरसायें।’ साहित्यकार पिता ने कथा पूरी की।
‘अजीब मजाक है पिताजी, मेढ़कों की टर्र-टर्र सुनकर ही इंद्र को पानी बरसाने की याद आती है।’ जिज्ञासु बेटे ने आश्चर्य व्यक्त किया।
‘हमारे देश में प्राचीनकाल से प्रजातंत्र की यही परंपरा है, बेटा।’ साहित्यकार पिता ने भरत वाक्य कहा।

"पतंग बोली" (हरिकृष्ण तैलंग की यादगार बाल कहानी )

"पतंग बोली"

(हरिकृष्ण तैलंग की यादगार बाल कहानी )

//कई दशक पूर्व, टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप की बाल पत्रिका ‘पराग’ के यशस्वी संपादक श्री आनंदप्रकाश जैन ने श्री हरिकृष्ण तैलंग की अनेक कहानियाँ आकर्षक ढंग से प्रकाशित की थीं। उन्हीं लोकप्रिय कहानियों का एक संग्रह ‘पतंग बोली’ आया जिसे तब मप्र शिक्षा विभाग ने पुरस्कृत किया था।//
रमेश अपने दोस्तों में पतंगबाज के नाम से मशहूर था। उसे रंग-बिरंगी पतंगों का आकाश में अठखेलियाँ करना खूब भाता था। वह पतंग को खूब ऊँचा उड़ा कर ठुमकियाँ खिलाया करता। पेंच लड़ाकर किसी की पतंग को काट देता तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहता। वह अपने साथियों की कितनी पतंगें काट चुका, उसकी कहानी वह जब-तब बड़ी शान से सुनाया करता। मित्र जब उसकी तारीफ करते तो वह फूल कर कुप्पा हो जाता।
परंतु घरवाले उसके इस शौक को दबाना चाहते थे। जब उसकी माँ उसे प्यार से समझाती, तो रमेश उसकी बातें हँसी में टाल देता। कभी कहता कि बड़े लेग भी तो बचपन में पतंग उड़ाते थे। राजा राम तक पतंग उड़ाया करते थे। उनकी पतंग एक बार तो देवलोक में किसी देवकन्या ने रोक ली थी। वह भी पतंग उड़ाता है तो क्या बुरा करता है। तरह-तरह के और भी तर्क रमेश को आते थे। वह समझ नहीं पाता था कि उसे पतंग उड़ाने से क्यों रोका जाता है। यह खेल ऐसा कोई खतरनाक भी तो नहीं। हाॅकी-फुटबाल में तो आँख फूटने और टाँग टूटने का खतरा रहता है। लोग कहा करते थे कि पतंग उड़ाने वालों का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता। यह दलील भी उसे हल्की-फुल्की लगती। वह जानता था कि बेंजामिन फ्रेंकलिन ने पतंगबाजी से ही बिजली का पता लगाया था। बेचारी सीधी सादी माँ इन बातों को क्या जाने। इसीलिए रमेश माँ की बात इस कान सुनता और उस कान निकाल देता।
रमेश का मन अब पढ़ने-लिखने से उचटने लगा। धीरे-धीरे उसका स्कूल जाना भी कम होने लगा। वह अपने घर से चुपके से पतंग उठाता और स्कूल जाने का बहाना कर दूर के मैदान में पतंग उड़ाया करता। वहाँ रंगीन पंतगों की उड़ान पर लोगों को पतंग लूटने की राह ताकते देखता तो घमंड से अपनी चरखी को नचाता।
अब उसे किसी की परवाह नहीं रह गई थी। घर में उसकी शिकायत पहुँचती तो वह बहानेबाजी का दाँव काम में लाता। सच्ची बात मालूम होने पर एक दिन उसके पिता ने उसे पीट भी दिया लेकिन अब देर हो चुकी थी। बहुत दिनों से छूटी पढ़ाई उसे फिर आकर्षित न कर सकी। नतीजा यह हुआ कि रमेश सालाना परीक्षा में फैल हो गया। उसके साथी आगे की कक्षा में पहुँच गये थे। रमेश को अब माँ-बाप का डाँटना मारना काफी खलता था। वह स्वयं भी अपने शिक्षकों और साथियों के सामने निकलने में झिझकता था। मजे की बात यह हुई थी कि उसकी छोटी बहन मुन्नी पास हो गई थी। इसलिए मुन्नी की तारीफ सभी करते थे। उसके पास होने के दिन माँ ने पड़ोस में मिठाई भी बाँटी थी क्योंकि बच्चों के पास होने की खुशी केवल बच्चों को ही नहीं, उनके माँ-बाप को भी खूब होती है।
उस दिन रमेश स्कूल से अपना परीक्षाफल सुनकर घर आया। रमेश के साथियों से घरवालों को पहले ही उसका नतीजा मालूम हो चुका था। माँ ने उससे कोई बात नहीं की। पिताजी भी खामोश रहे। मुन्नी ने आज उसे बिल्कुल नहीं चिढ़ाया। ऐसा अजीब वातावरण देख, उसने अपनी पतंग उठाई और मैदान में जा पहुँचा। पर उस दिन पतंगबाजी में उसका मन न लगा। सूरज ढलने पर उसने आसमान में उड़ती पतंग को चरखी के सहारे नीचे उतारा और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते घर लौट आया।
घर में सन्नाटा-सा छाया था। सब चुपचाप अपने-अपने काम में मशगूल थे। डरते डरते उसने जैसे-तैसे खाना खाया। इस समय भी माँ ने कोई बात नहीं की। माँ का ऐसा अनोखा व्यवहार रमेश को बहुत अखरा। माँ की चुप्पी से उसके हृदय पर चोट लगी। भारी-सा मन लेकर वह सीधा अपने बिछौने पर जाकर लेट गया। माँ, फेल हो जाना, साथियों का आगे बढ़ जाना, पतंगबाजी इन सब के बारे में सोचते-सोचते उसकी बैचेनी नींद की गोदी में खामोशी से खेलने लगी।
थोड़ी देर बाद रमेश को लगा जैसे वह उठा हो। चारों तरफ देखा, तो सवेरा हुआ जान पड़ा। सूरज की रोशनी खिड़की में से आकर, उसके पैरों से खेल रही थी। बाहर चिडि़या ‘चीं-चीं’ करती हुई फुदक रही थीं। खिड़की के पास लगी रातरानी की शाखाएँ धीमे-धीमे हवा में हिल रही थीं। रमेश ने एकदम चादर फेंक दी और हाथ-मुँह धोने जा पहुँचा। वह जल्दी-जल्दी सब काम कर रहा था क्योंकि आज एक पतंगबाज से उसका मैच होने वाला था। ठीक आठ बजे उसे मैदान में पहुँचना था। सब कामों से निबट, रमेश पतंग लेने भीतर पहुँचा। पतंग खूँटी पर टँगी हुई थी। जैसे ही रमेश ने पतंग उठाने हाथ बढ़ाया कि पतंग बोल पड़ी, ‘रमेश, आज मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगी। मुझे यहीं रहने दो।’
रमेश बड़े अचरज में पड़ गया। फिर भी बोला, ‘अरे ! यह कैसे हो सकता है ! आज तो हमारा मैच है। तुम्हें आज अपना कमाल दिखाना है।’
पतंग बोली, ‘परंतु रमेश, आज मेरा मन नहीं करता। आज मैं कुछ भी न कर सकूँगी। हो सकता है तुम हार जाओ।’
‘कैसी बातें करती हो पतंग रानी ! कल ही तो तुमने कमाल दिखाया था। एकदम चार पतंगें काटी थीं। फिर आज क्या हो गया जो ऐसी बातें करती हो !’ रमेश ने पूछा।
पतंग ने जवाब दिया, ‘आज ही मैं अपनी असलियत समझी हूँ रमेश। अभी तक तो मैं अंधेरे में थी। इसी से खुद से इतराती ही रही, तुम्हें भी मैंने भटका दिया।’
‘मेरी पतंग रानी, सच सच बताओ, बात क्या है ? क्या आज मुझे मात खानी पड़ेगी ? तुम क्या अब सचमुच न चलोगी ?’ रमेश ने खुशामद भरे शब्दों में कहा।
‘ना, रमेश अब मैं न चूलूंगी। मेरी सलाह मानो। अब तुम भी मेरे फेर में न पड़ो। देखो, यदि तुम मुझ में इतने मस्त न हो जाते तो क्या औरों की तरह पास न हो जाते ? मैं तो पिछड़ी हुई हूँ ही, तुम भी अपने साथियों से पिछड़ गये। रमेश, आज के जमाने में पिछड़ना बहुत बुरी बात है। मुझे देखो, जब से मैं पैदा हुई तबसे आज तक वही पुरानी पतंग बनी हुई हूँ। मैं डोर के सहारे उड़ती हूँ तो समझती रही कि मैं सबसे ऊँची हूँ। बड़े-बड़े वृक्ष, टीले और पहाड़ की चोटियाँ मेरी ऊँचाई से शरमाती हैं। मैं बादलों के संग यहाँ से वहाँ उड़ती फिरती हूँ। मुझे और आगे बढ़कर क्या करना है। इसी भ्रम में पड़ी रहकर, आज भी मैं वही हूँ जो पहले थी।
परंतु आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मैंने आकाश में अपने से कहीं ऊँचा हवाईजहाज उड़ते देखा। आए दिन राॅकेट भी उड़ते दिखाई देते हैं जो चंद्रमा तक पहुँच चुके हैं और सूर्य, मंगल ग्रह पर उतरने लालायित हैं। उन्हें देख मुझे अपनी क्षुद्रता पर रोना आता है और लज्जा भी लगती है। यदि घमंड में न आकर अपनी तरक्की की कोशिश करती रहती तो आज मुझे डोर के सहारे उड़ने की आवश्यकता न रहती। डोर से ही मेरी ऊँचाई है। जहाँ डोर कटी, मैं हवा में धक्के खाती हुई, विवश हो बेसहारे उड़ती जाती हूँ। फिर कहीं पानी में गिरती हूँ, कहीं काँटों में उलझती हूँ या शैतान बच्चों के हाथ पड़कर अपने शरीर को नुचवाती हूँ। रमेश अब लगातार आगे बढ़ते रहने का युग है। तुम्हें भी अपने आपको योग्य बनाने की मेहनत करना चाहिये ताकि तुम अपनी खुद की योग्यता से आगे बढ़ सको।’ यह सब कहते कहते पतंग का गला भर आया और वह एक लंबी साँस लेकर खामोश हो गई।
एक बार तो रमेश पतंग की यह सीख सुनकर हक्का-बक्का रह गया। फिर बोला, ‘मैंने पतंग को उपदेश देते आज ही सुना है। भला, बच्चे हवाईजहाज और राॅकेट जैसे खतरनाक काम खेल-खेल में कैसे कर सकते हैं ? उनके लिए तो पतंग ही राॅकेट और हवाई जहाज है।’
यह सुनकर पतंग मुस्कराई और बोली, ‘रमेश, तुम फिर भूल कर रहे हो। मेरे भाई, आज के बच्चे ही कल को हवाई जहाज और राॅकेट के चालक बनेंगे। तुम विज्ञान की पत्र-पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें पढ़कर बहुत-सा ज्ञान अभी प्राप्त कर सकते हो। जो समय और शक्ति तुम मुझ मुँहजली को उड़ाने में व्यय करते हो वह ही तुम्हें भविष्य में ऊँचा उठाने, आगे बढ़ने में मदद करेंगे। जरा सोचो तो तुम स्वयं अपनी पतंग बन सकते हो।’
इतना कहकर पतंग ने मुस्कराते हुए प्यार से रमेश की ओर देखा।
पतंग की बातें सुनकर रमेश बैचेन हो उठा। उसी समय माथे पर किसी का प्यार भरा स्पर्श अनुभव हुआ। उसने अचानक आँखें खोल दीं। उसकी माँ सिरहाने बैठी सिर पर हाथ फेर उसे जगा रही थी, ‘रमेश, उठो देखो सवेरा हो गया है। जल्दी उठकर दूध पी लो।’
रमेश अब पूरी तरह जग चुका था। वह एकदम उठकर हाथ-मुँह धोने चला गया। आज उसके चेहरे पर एक भिन्न प्रकार के दृढ़ निश्चय की मुस्कान खेल रही थी।

संस्कृत कथा : नैषध चरित्

संस्कृत भाषा का ललित साहित्य विश्व भर में विख्यात है। संस्कृत साहित्य में मानवीय प्रवृत्तियों का रसमय और उदात्त रूप उच्च कलात्मकता से उकेरा गया है। राजसी गरिमा और प्रवृत्तियों के साथ ही सामान्य जन के आचरण और मनोभावों, सामाजिक रीति-रिवाजों, उच्च विचारों, प्रकृति का समृद्ध और अलौकिक सौंदर्य, उसका मानवीयकरण जिस प्रभावी ढंग से, जिस सूक्ष्मता और कुशलता से चित्रित किया गया है, वह अनुपम है। पर कम लोग ही उस अनोखी और समृद्ध सम्पदा से सुपरिचित हैं। इसका कारण संस्कृत भाषा से अनभिज्ञता तथा ग्रंथों का बड़ा आकार है। यदि हम अपनी पुरातन संस्कृति, जो संस्कृत ग्रंथों में बिखरी पड़ी है, से अपरिचित बने रहते हैं तो अपनी ही गरिमा खोते हैं। साथ ही देश की गौरवमयी परम्परा के भागीदार भी नहीं बन पाते। इन्हीं विचारों को लेकर श्री हरिकृष्ण तैलंग ने संस्कृत भाषा के अनेक श्रेष्ठ महाकाव्यों और नाटकों की वृहद कथावस्तु का संक्षिप्त, पर रोचक अनुवाद किया जो उनकी दो पुस्तकों -दिल्ली के किताबघर प्रकाशन गृह से छपीं - "संस्कृत कथाएं" और "बुद्ध चरितम" में भी पढ़े जा हैं।

संस्कृत कथा : नैषध चरित्

(‘नैषध चरित्’ संस्कत साहित्य के सबसे बढि़या महाकाव्यों में से एक है। इस महाकाव्य में निषध नरेश नल और विदर्भ की सुंदर राजकुमारी दमयंती के प्रेम और विवाह की मनोहारी कथा है। मनोहारी कथा के कारण ‘नैषध चरित’ को काव्यों का कीमती हार कहा जाता है। इसके रचनाकार महाकवि श्रीहर्ष 12वीं सदी में कन्नौज के राजा के सभा पंडित थे। राजा के आग्रह पर श्रीहर्ष ने ‘नैषध चरित’ की रचना की थी।)
बहुत पुराने जमाने में निषध नामका एक राज्य था। निषध राज्य अपनी शक्ति और धन-दौलत के लिए संसार प्रसिद्ध था। राजा नल वहाँ राज करते थे। वे जितने सुंदर थे, उतने ही वीर और विद्वान भी थे। अपनी प्रजा का पालन अपनी संतान जैसा करते थे। उनके राज्य में न कोई बिना पढ़ा-लिखा था, न गरीब। सारी प्रजा सुख-चैन से जीवन बिताती थी। उसी काल में विदर्भ राज्य के राजा भीमदेव थे। ऋषि दमन के आशीर्वाद से उनके यहाँ तीन पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ। पुत्रों के नाम दम, दन्त और दमन थे। पुत्री का नाम था दमयंती। राजकुमारी दमयंती अपनी सुंदरता के लिए सारे देश में प्रसिद्ध थी। उसके रूप् और गुणों की चर्चा सुन-सुनकर कई देशों के राजा उसे अपनी रानी बनाना चाहते थे।
राजा नल भी उससे गहरा प्रेम करने लगे थे। कभी-कभी वे राजकुमारी दमयंती को याद कर बेचैन हो जाया करते थे। एक दिन मन बहलाने के लिए वे एक सुंदर बगीचे में रथ पर सवार होकर जा पहुँचे। चारों ओर प्रकृति की सुंदरता बिखरी हुई थी। हरे-भरे वृक्ष और लताएँ धीमी-धीमी हवा में झूम रहे थे। रंग-बिरंगे फूलों की सुवास वातावरण में भरी थी। धूप चाँदनी जैसा सुख दे रही थी। पक्षी कलरव कर रहे थे और कोयलें मीठा गाना गा रही थीं। पर दमयंती की कल्पना में डूबे नल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था।
वहाँ एक सुंदर जलाशय भी था, जिसमें कई रंगों के सुन्दर कमल खिले थे। तभी राजहंसों का एक दल वहाँ आकर उतरा। राजा नल कुछ समय उनकी सुंदरता देखते रहे। फिर उनका मन एक हंस को पकड़ने के लिए मचल उठा। उन्होंने देखा सबसे सुंदर एक हंस अपने सुनहरे पंखों में मुँह छुपाकर सो रहा था। राजा नल चुपके से उस सुंदर हंस की ओर बढ़े और पास पहुँचकर उसे पकड़ लिया। हंस छुटकारे के लिए खूब फड़फड़ाया पर उसका कोई वश न चला। तब वह मनुष्य वाणी में राजा से बोला, ‘हे राजन्, आप बहुत वैभवशाली हैं। फिर भी आपको मेरे सुनहरे पंखों का लोभ है। पर मेरे पंखों से न आपका कोश भरेगा, न आपके यश में वृद्धि होगी। मुझे मारने से पहले आपको मेरे बूढ़े माता-पिता, युवा पत्नी और छोटे बच्चों की दशा पर विचार करना चाहिए। मेरे मर जाने पर उनका पालन-पोषण कौन करेगा ?’
फिर हंस अपनी मृत्यु का सोच विलाप कर उठा, ‘हे विधाता, कमल नाल से पैदा होने पर भी तुम कितने कठोर हो ! अपने कोमल हाथों से तुमने मेरी सुंदर पत्नी को तो रच दिया, पर उन्हीं हाथों से उसके भाग्य में विधवा होना कैसे लिख दिया ? मेरे नन्हे बच्चों की तो अभी आँखें भी नहीं खुलीं। भूखे-प्यासे वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यदि समय पर उन्हें भोजन न मिला तो वे चूं-चूं करते हुए मर जायेंगे।’ ऐसा करुण विलाप करते हुए हंस बेहोश हो गया।
दयावान राजा नल को हंस पकड़ने पर बड़ा पछतावा हुआ। दया के कारण उनकी आँखों में आँसू छलछला पड़े। आँसू की कुछ बूँदे हंस के सिर पर गिरीं तो हंस को होश आ गया। राजा ने उसे छोड़ दिया। वह खुश होकर अपने साथियों में जा मिला। उसके संगी-साथी भी उसे अपने बीच पाकर चहकने लगे। कुछ क्षणों बाद वह हंस अपने दल में से उड़कर राजा के पास आकर बैठ गया।फिर मीठे स्वर में बोला, ‘राजन्, आप जितने सुंदर हैं उतने ही उदार और दयावान भी हैं। आपने मुझे छोड़कर बड़ा उपकार किया है। मैं आपका आभारी हूँ। मैं आपका कोई प्रिय कार्य करना चाहता हूँ। आप कहें तो मैं विदर्भ की राजकुमारी दमयंती के पास जा सकता हूँ। वह साक्षात् लक्ष्मी के समान सुंदर हैं, सुलक्षणा हैं। वह आपकी ही रानी बनने योग्य हैं। मैं उनके पास जाकर आपकी प्रशंसा उन्हें सुनाऊंगा।’
हंस से अपने मन की बात सुनकर राजा नल प्रसन्न हो उठे। प्यार से उसे सहलाते हुए बोले, ‘प्रिय हंस, तुम्हारा शरीर ही सोने का नहीं है, बातों में भी तुम बड़े चतुर हो। दमयंती के रूप और गुणों का वर्णन कर तुमने उसे मेरे सामने साकार कर दिया है। उसके बिना मुझे यह सुवास भरी हवा, सुखदायी चंद्रमा, सुंदर फूल, हरा भरा वन कुछ भी अच्छे नहीं लग रहे हैं। यदि तुम मुझे दमयंती से मिलवाने में सहायता कर सको तो मैं तुम्हारा उपकार मानूँगा। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो।’
राजा नल से विदा लेकर हंस विदर्भ राज्य की राजधानी कुंडनपुर पहुँचा। कुंडनपुर बड़ा सुंदर नगर था। ऊँचे-ऊँचे भवन, साफ-सुथरी सड़कें और खूबसूरत बाग-बगीचे नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। साफ जल से भरे सरोवरों में कमल खिल रहे थे। फल-फूलों से लदे वृक्ष और पौधे आँखों को सुख देते थे। उन सबकी शोभा देखता हुआ हंस दमयंती के उपवन में जा उतरा।
उस सोने से दमकते सुंदर हंस को देखकर दमयंती उसे पकड़ने के लिए धीमे-धीमे उसकी ओर बढ़ी। पर जैसे ही दमयंती हंस को पकड़ने लपकी, त्यों ही हंस उड़कर और दूर जा बैठा। दमयंती भी दबे पाँव उसका पीछा करते हुए वहाँ जा पहुँची। पर फिर हंस उड़कर लताओं से घिरे एक कुंज में जा बैठा। दमयंती भी दौड़कर वहाँ जा पहुँची। वह बुरी तरह थक चुकी थी।
दमयंती को थका हुआ जानकर हंस बोला, ‘राजकुमारी, युवा हो जाने पर भी तुम्हारा बचपना अभी गया नहीं। तुम कितना भी चाहो पर मुझे पकड़ न पाओगी। हम देवताओं के पक्षी हैं। देवों की अनुमति से हम महाराज नल का अदभुत सरोवर देखने धरती पर उतरे हैं। सुंदरता में महाराज नल कामदेव के पर्याय हैं। उनका सौंदर्य देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी उन्हें पाने के लिए ललचा रही हैं। वैभव और गुणों के अपार भंडार राजा नल का यश सारा संसार जानता है। वे सब तरह से तुम्हारे योग्य वर हैं।’
हंस से मनभावन बातें सुनकर दमयंती बोली, ‘हंस, बालसुलभ चंचलता के कारण मैंने तुम्हें पकड़ने का यत्न किया था। तुम्हें जो कष्ट हुआ, उसके लिए मुझे क्षमा कर दो। मैं कन्या होकर अपने विवाह की बात खुद कैसे कर सकती हूँ। पर मैंने यह निश्चय कर लिया है कि राजा नल के सिवाय किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी। तुम राजा नल को मुझसे विवाह करने के लिए तैयार कर दो। मैं तुम्हारा गुण जीवन भर गाऊंगी।’
हंस समझ गया कि दमयंती भी राजा नल से गहरा प्रेम करती है। उन्हें ही वर के रूप में पाना चाहती है। वह बोला, ‘हे राजकुमारी, जैसे तुम राजा नल से प्रेम करती हो वैसे ही राजा नल तुम्हें चाहते हैं। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो और तुम दोनों सदा सुखी रहो। अब मैं राजा नल के पास जाकर तुम्हारे हृदय के भाव कहूँगा।’ यह कहकर हंस वहाँ से उड़ गया।
उधर राजा नल बेचैनी से हंस का इंतजार कर रहे थे। हंस के वहाँ पहुँचते ही वे उतावले हो दमयंती के विषय में बातें करने लगे। हंस भी उत्साह के साथ दमयंती की बातें उन्हें बताता रहा। हंस के चले जाने के बाद दमयंती राजा नल के लिए बेचैन रहने लगी। उसका हँसना-खेलना बंद हो गया। वह उदास होकर उन्हीं के विचारों में खोई रहती। कभी-कभी प्रलाप भी करने लगती। पिता राजा भीमदेव अपनी युवा पुत्री की दशा देख चिंता में डूबने लगे। अच्छे से अच्छे वैद्यों से दमयंती की दवा करवाई गई, पर शरीर का रोग हो तो मिटे, मन का रोग वैद्यों की दवा से कैसे दूर होता ? दमयंती की माँ की सलाह पर राजा भीम ने दमयंती के स्वयंवर की घोषणा कर दी। सभी देशों के राजकुमारों को बुलावा भेजा गया। अतुल रूपवती और गुणवती दमयंती को पाने के लिए देवता भी लालायित थे। अतः स्वयंवर का समाचार सुन देवराज इंद्र, अग्नि, जल के देवता वरुण और मृत्यु के देवता यम भी सज-धजकर विदर्भ की राजधानी कुंडनपुर की ओर चले। देवराज इंद्र ने तो दमयंती पर असर डालने के लिए अपनी दूतियाँ भी गुप्त रूप से दमयंती के पास भेजीं। महाराज भीमदेव को बहुत कीमती-कीमती उपहार भी भिजवाये।
रास्ते में देवताओं की भेंट राजा नल से हो गई। उनके अनुपम स्वरूप को देखकर दूसरे सारे दवता निराश हो गए। भला नल के होते हुए दमयंती उन्हें क्यों अपना पति बनायेगी ? दमदमाता हीरा छोड़कर भला कौन मूर्ख काँच के गुरियों को गले में पहनेगा ? पर चतुर इंद्र ने आशा न छोड़ी। वह बड़ी विनय से राजा नल से बोले, ‘राजन्, कृपा करके आप मेरा एक काम कर दीजिए।’
‘आदेश दीजिए, देवराज। आपका प्रिय कार्य मैं अवश्य पूरा करूँगा।’ मीठे स्वर में राजा नल ने वचन दिया।
कपट भाव से भरे इंद्र ने कहा, ‘आप हमारे दूत बनकर राजकुमारी दमयंती के पास जाइये। उनसे हम देवताओं में से किसी एक का वरण करने के लिए राजी कीजिये।’ राजा नल को देवताओं से ऐसे प्रस्ताव की आशा न थी। मन ही मन उन्हें बुरा लगा, पर वह वचन दे चुके थे। उन्होंने देवराज से अदृश्य होने की शक्ति प्राप्त की और दमयंती के महल में जा पहुँचे।
दमयंती उस समय अपनी माँ से भेंट कर रही थी। इंद्र द्वारा भेजी दूतियाँ भी वहीं उपस्थित थीं। वे चारों देवताओं में से किसी एक को अपना पति चुनने के लिए दमयंती को समझा रही थीं। एक-एक देवता के रूप, शक्ति और गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बता रही थीं। पर दमयंती पर कोई असर न हो रहा था। वह अपने चेहरे पर चिढ़ का भाव लिए उनकी बातें सुन रही थी। जब दूतियों द्वारा देवताओं का बखान पूरा हो चुका तो दमयंती ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह राजा नल को ही अपना पति चुनेगी। किसी दूसरे को पति बनाने का वह सोच भी नहीं सकती। दमयंती का ऐसा निश्चय सुनकर दूतियाँ निराश होकर वहाँ से चली गईं। दमयंती की माता भी अपने महल में वापस चली गईं।
अदृष्य नल दूतियों और दमयंती की बातचीत सुन रहे थे। जब दमयंती का उत्तर उन्होंने सुना तो उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। बहुत देर तक वह दमयंती का सुंदर चेहरा निहारते रहे। फिर प्रकट होकर उसके सामने खड़े हो गए। एक तेजस्वी और रूपवान पुरुष को एकाएक सामने खड़ा देख दमयंती और उसकी सखियाँ हड़बड़ा गईं। क्षण भर बाद वे अपना आसन छोड़कर नल को अचम्भे में भरकर देखने लगीं उनके अनुपम स्वरूप को देखकर दमयंती की आँखों में अनुराग उमड़ आया। उसे ऐसा लगा कि सामने खड़ा पुरुष राजा नल ही हैं। यह महसूस कर दमयंती ने राजा नल का उचित सत्कार किया। फिर उनसे परिचय पूछा। राजा नल बोले, ‘हे राजकुमारी, इस समय मेरा परिचय यही है कि मैं देवराज इंद्र, अग्नि, अरुण और यमराज का भेजा हुआ दूत हूँ। ये सभी देवता आपसे गहरा प्रेम करते हैं, इसलिए उनमें से किसी एक को वरण कर उन्हें अपना पति बना लीजिए।’
नल की बातें सुनकर दमयंती ने कहा, ‘मैंने आपका परिचय पूछा था, पर आप देवताओं का पक्ष लेने को कह रहे हैं। ये बेकार की बातें छोड़कर मुझे अपना नाम और कुल के बारे में बताइये।’
मन ही मन प्रसन्न होते हुए नल बोले, ‘राजकुमारी, दूत का नाम और कुल पूछकर आप क्या करेंगी ? आप देवताओं के संदेश का उत्तर देने की कृपा कीजिए।’
यह सुनकर दमयंती ने का, ‘बिना आपका परिचय जाने देवताओं के प्रस्ताव का उत्तर नहीं मिलेगा।’
अब नल क्या करें, यदि वे सही परिचय देते हैं तो बात बनेगी नहीं। इसलिए उन्होंने अपना झूठा परिचय दमयंती को दिया। उसे सुनकर दमयंती बोली, ‘आपने अपना कर्तव्य कर दिया। अब मेरा उत्तर देवताओं तक पहुँचा दीजिए। मैंने राजा नल को अपना पति चुन लिया है। अब साक्षात् भगवान विष्णु का भी मैं वरण नहीं कर सकती। देवताओं को मुझे पाने का विचार त्याग देना चाहिए। यदि उन्होंने कपट और ताकत के बल पर नल को मुझसे छीना तो मैं आत्महत्या कर लूंगी। मेरे इस पक्के निश्चय को आप देवताओं को बता दें।’
राजा नल ने दमयंती के विचारों को गहराई से जानने के लिए कहा, ‘राजकुमारी तुम बड़ी भोली हो। देवराज इंद्र को छोड़कर साधारण मनुष्य नल को वरण करने का तुम्हारा हठ वैसा ही है जैसे ऊँट मीठे गनने को छोड़कर काँटेदार झाड़ी की ओर लपकता है। आत्महत्या करके भी तुम स्वर्ग में इंद्र के ही पास पहुँचोगी। वहाँ कल्पवृक्ष से इंद्र तुम्हें माँग लेंगे। आग में जलोगी तो अग्नि देव तुम्हें पा लेंगे। पानी में डूबने पर वरुण के पास अपने आप पहुँच जाओगी। यम तुम्हें अगस्त्य से माँग लेंगे। फिर देवताओं को नाराज करने से मंगल नहीं होता। यदि अग्नि देव रूठ गए तो नल से विवाह के समय वह प्रगट नहीं होंगे। बिना अग्नि की साक्षी के विवाह कैसे होगा ? यदि यमराज का कोप वर या वधू, किसी पर भी हो गया तो विवाह कैसे होगा ? वरुण के रूठने पर तुम्हारे पिता बिना जल के तुम्हारा दान कैसे कर सकेंगे इसलिए अच्छा होगा कि तुम किसी एक देवता को पति स्वीकार कर लो।’
राजा नल से ऐसे तर्क सुनकर दमयंती रो पड़ी। आँसू बहाती हुई बोली, ‘हे भगवान, बिना नल के मैं जीवित नहीं रहना चाहती। मर जाने पर किसी से वैर नहीं रहेगा। हे पवन, कृपा कर मेरी चिता की भस्म को निषध देश के राजा नल के पास पहुँचा देना। तब मेरा जीवन सफल हो जायेगा। हे देवताओं, मेरा विचार छोड़ दो। आप लोग अपनी ताकत से मुझ जैसी अनेक युवतियाँ पैदा कर सकते हैं।
हे प्राणों के आधार, दूर रहने से तुम मेरी दशा नहीं जानते। वह प्यारा हंस भी पास नहीं है, नहीं तो वह मेरी दुखभरी कथा तुम्हें सुनाता। तब तुम अवश्य मुझे संकट से उबार लेते। पर यह दुख मेरे भाग्य का ही फल है। तुम मेरे जीवन हो। इस जन्म में तो मैं तुम्हें नहीं पा सकी, पर अगले जन्मों में तुम्हें ही पति रूप में पाती रहूँ, यही मेरी अंतिम कामना है।’ कहते-कहते दमयंती फफक-फफक कर रो पड़ी।
अपनी प्रियतमा को करुण विलाप करते देख राजा नल से रहा न गया। उनकी आँखों में भी आँसू छलछला आए। भरे दिल से वह बोले, ‘राजकुमारी धीरज धरो। मैं ही वह निष्ठुर नल हूँ जिसके कारण तुम्हें इतना कष्ट सहन करना पड़ रहा है। कर्त्तव्य से बँधे होने के कारण मुझे वह सब कहना पड़ा जिससे तुम्हारे कोमल हृदय को पीछ़ा पहुँची। तुम सदा मेरे मन में विराजमान रहोगी। इसलिए रोना बंद कर प्रसन्न हो।’ फिर नल ने मन ही मन में देवताओं से क्षमा माँगी।
तभी वह सुनहला हंस वहाँ आ पहुँचा। उसने महाराज नल से कहा, ‘महाराज, आप दमयंती को बिना किसी भय के स्वीकार करें। दमयंती सब तरह से आपकी महारानी बनने योग्य है।’
हंस की बात सुनकर राजा नल दमयंती से बोले, ‘शायद देवतागण मुझसे अप्रसन्न होंगे, पर अब तुम्हें अधिक दुख न दूँगा।’
महाराज नल के इस तरह प्रकट होने पर दमयंती लजा गई। मन ही मन वह बहुत प्रसन्न हुई। उसका चेहरा खुशी से दमकने लगा। उसके शरीर में फुरफुरी हो आई। पर वह यह सोचकर सकुचा भी उठी कि पता नहीं महाराजा नल उसके बारे में क्या सोचते होंगे।
दमयंती को लजाते देख उसकी सखी नल से बोली, ‘राजन्, मेरी सखी आपके बिना जीवित न रहेगी। आप भरोसा देकर जाइये कि आप स्वयंवर में अवश्य पधारेंगे।’ राजा नल ने स्वयंवर में आने का वचन दिया। फिर वह वहाँ से चल दिये।
राजा नल ने उन चारों देवताओं को दमयंती से हुई बातचीत ज्यों की त्यों सुना दी। देवतागण दमयंती का निश्चय सुन निराश हुए, पर नल की कर्त्तव्य भावना और सच बोलने पर प्रसन्न भी हुए।
स्वयंवर के लिए संसार भर से राजकुमारों का ताँता राजधानी कुंडनपुर में लग गया। देवताओं और मनुष्यों के साथ ही पाताल लोक से नागराज वासुकि भी विवाह की इच्छा लेकर पधारे थे। राजा भीमदेव ने सबका यथोचित स्वागत कर हर एक को उनकी प्रतिष्ठानुसार विभिन्न स्थानों पर ठहराया। उनकी सुख-सुविधा का बढि़या प्रबंध किया।
देवतागण सुन चुके थे कि राजकुमारी दमयंती नल के सिवा किसी दूसरे का वरण नहीं करेगी इसलिए उन्होंने कपट से काम लेने की योजना रची। चारों देवताओं ने अपनी शक्ति से नल का रूप धारण कर लिया। उन्होंने सोचा कि दमयंती हम सब में से किसी एक को नल समझकर वरमाला पहना देगी। ऐसी कल्पना कर नल बने वे चारों देवता स्वयंवर स्थल पर जा विराजे। अनेक सुंदर और प्रसिद्ध राजाओं के साथ पाँच नल वहाँ दिखे तो सभी विस्मित हो गए। ऐसा कौतुक देखने बड़ी भीड़ जुटी। सभी यह देखना चाहते थे कि दमयंती किस नल को वर के रूप में चुनती है। स्वयं भगवान विष्णु अन्य देवताओं और मुनियों के साथ यह तमाशा देखने आकाश में आ विराजे।
जिस भवन में स्वयंवर हो रहा था वह बहुत सुंदर बना था। फिर उसे बड़ी निपुणता से सजाया गया था। उसकी सजावट मनभावन और आँखों को भली लगने वाली थी। लोग उसकी खूब सराहना कर रहे थे। एक से बढ़कर सैकड़ों राजा, राजकुमार और देवता सिंहासनों पर विराजमान थे। उनका ठीक-ठीक परिचय कैसे दिया जाये, परिचय कौन दे, यह चिंता राजा भीमदेव को सता रही थी। उन्होंने इस संकट से बचने के लिए भगवान से प्रार्थना की। उनकी विनय पर भगवान ने देवी सरस्वती को राजा भीम के पास भेज दिया।
अब स्वयंवर आरंभ हुआ। शुभ मुहूर्त में हाथों में वरमाला लिए दमयंती ने भवन में प्रवेश किया। वह सकुचा रही थी। वधू के वेश में उसकी अनुपम सुंदरता दुगुनी हो गई थी। अगणित आँखें उसके अपार रूप को देखकर ठगी रह गईं। सबने सोचा कि इस संसार में तो ऐसी सुंदरता कभी दिखाई नहीं दी, विधाता ने दमयंती की रचना शायद सुंदरता के राजा कामदेव के लिए की होगी।
सरस्वती के साथ लाज के भार से दबी दमयंती धीमे-धीमे कदम रखती हुई देवताओं, विद्याधरों, गंधर्वों, यक्षों तथा राक्षसों के सामने से होती हुई नागराज वासुकि के सामने पहुँची। देवी सरस्वती ने उनकी महानता का बखान आरंभ किया। पर दमयंती पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। तब देवी सरस्वती उसे अनेक देशों के राजाओं के सामने ले गईं। हर राजा के रूप, गुण, कुल ओर ताकत का विस्तार से वर्णन दिया, पर दमयंती ने किसी में भी थोड़ी-सी रुचि भी नहीं दिखाई। आगे नल का वेश धरे चारों देवता और स्वयं नल विराजमान थे। नल को देखकर दमयंती आनंद से भर उठी। पर दूसरे ही क्षण पाँच नल देख आश्चर्य में डूब गई। दमयंती समझ गई कि देवतागण उसे धोखे में डालकर उसको पाना चाहते हैं। वह सोच में पड़ गई। जब उसे कोई उपाय न सूझा तो उन्हीं देवताओं से मनुष्य नल को पहचानने की शक्ति देने की प्रार्थना की।
राजकुमारी दमयंती द्वारा सच्चे और भोले मन से की गई प्रार्थना पर देवतागण पिघल गये। उन्होंने दमयंती के मन को सुझाया कि देवताओं की आँखों के पलक नहीं झपकते। देवताओं के पैर भूमि को छूते नहीं हैं। उन पर धूल-पसीना नहीं आता। उनकी छाया भी नहीं पड़ती। इन अंतरों को जानकर दमयंती असली नल को पहचानने में सफल हुई। उसने देवताओं का उपकार माना। उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। फिर महुए के फूलों से गुँथी वरमाला उसने राजा नल के गले में डाल दी।
सारा उपस्थित जन समूह हर्ष से भर उठा। ‘राजकुमारी दमयंती चिर-सौभाग्यवती हो’ कहकर सभी बड़े-बूढ़ों ने आशीर्वाद दिया। चारों देवताओं ने भी अपने असली रूपों में प्रकट हो प्रसन्न मन से नव दंपति को आशीर्वाद दिया। देवताओं ने राजा नल से कहा, ‘राजन्, आप बिना कपट भाव के हमारे दूत बने थे। उससे हम आप पर प्रसन्न हैं। हम आपके द्वारा किये यज्ञों में सशरीर आया करेंगे। अपने शत्रुओं पर आपकी सदा विजय होगी। जहाँ भी आप चाहेंगे वहाँ जल और अग्नि प्रकट हो जाया करेगी। आपके गले की पुष्प माला के फूल कभी मुरझायेंगे नहीं। उन फूलों से दिव्य सुगंध निकला करेगी।’ ऐसा आशीर्वाद देकर देवतागण फिर दमयंती से बोले, ‘हे दमयंती, हम तुम्हारी पवित्र भावना से बहुत प्रसन्न हैं। हम तुम्हें वरदान देते हैं कि जो कोई बुरी भावना से तुम्हारे शरीर को छुएगा, वह भस्म हो जायेगा।’ देवी सरस्वती ने भी नल को चिंतामणि नामका मंत्र दिया। उस मंत्र की शक्ति से नल की हर मनोकामना दूर हो जायेगी। ऐसा आशीर्वाद और उपहार देकर देवतागण स्वर्ग चले गए।
सभी जानेवाले लोगों को आदर सहित विदा कर राजा भीमदेव ने विवाह की तैयारी करने का आदेश दिया।
राजमहल में विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। तरह-तरह के पकवान और मिठाइयाँ बनने लगीं। मणियों और मोतियों के वंदनवारों से सारी नगरी सजायी गई। कलाकारों ने सुंदर चित्रों को दीवारों पर बनाया। हर दरवाजे पर कलश सजाए गए। केलों के खंभे और आम के पत्तों से सजे घर अनोखी शोभा दे रहे थे। तरह-तरह के बाजे मधुर स्वरों में बजाये जाने लगे। सभी नर-नारी, बालक खुशी से भरे सुंदर कपड़ों में सजे विवाह की बाट देख रहे थे। राजकुमारी दमयंती का दुल्हन के रूप में अनोखा श्रृंगार किया गया। उसका श्रृंगार ऐसा हुआ जिसका वर्णन करना कठिन है। इसके बाद दमयंती ने अपने माता-पिता, गुरुजनों और बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों को प्रणाम कर अचल सुहाग का आशीर्वाद लिया।
राजा नल वर के रूप में सजे रथ पर सवार हो बारात के साथ महल की ओर बढ़ने लगे। सड़कों और अटारियों पर दूल्हा बने नल को देखने के लिए अपार भीड़ जुटी। जो उन्हें देखता वही खुशी से भर उठता। उन पर छज्जों से नारियाँ फूल और धान की लाई बरसा रही थीं। उन जैसा वर देखकर नारियाँ दमयंती के भाग्य की सराहना करते न थक रही थीं।
महल के दरवाजे पर बारात के आगमन पर कुमार दम ने आगे बढ़कर सबका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। कुछ क्षणों बाद शुभ लग्न में नल-दमयंती का विवाह संस्कार हुआ। नल और दमयंती ने शास्त्र की आज्ञानुसार कौतुक गृह में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तीन दिन बिताये।
कुछ दिनों ससुराल में रहकर राजा नल रानी दमयंती को विदा कर अपनी राजधानी जाने को तैयार हुए। राजा भीम और उनकी महारानी को अपने गुणवान दामाद और प्यार से बड़ी इकलौती पुत्री के बिछोह का बड़ा दुःख हुआ, पर परम्परा के आगे उन्हें झुक कर अपनी बेटी को विदा करना ही पड़ा। बेटी की विदाई पर न केवल महल में वरन् पूरे नगर में उदासी छा गई। सैकड़ों नर-नारी और दमयंती के माता-पिता, सहेलियाँ आँखों में आँसू भर उसे विदा करने नगर की सीमा तक आये। दमयंती के माता-पिता ने रोते हुए उसे गले लगाया और बोले, ‘बेटी, अब ससुराल में पुण्य ही तुम्हारा पिता और क्षमा ही माता है। लोभहीनता ही तुम्हारा धन और पति नल ही सब कुछ है। अपने कर्तव्यों के पालन में सजग रहना। अपने मीठे स्वभाव से सबको प्रसन्न रखना।’ ऐसा कहकर अपनी छाती पर पत्थर रख आँसू भरी आँखों से सबने दमयंती को विदा किया।
राजा नल के रानी दमयंती सहित आने का शुभ समाचार निषध की राजधानी में पहले ही पहुँच चुका था। आकाश को छूने वाले भवनों से भरी वह नगरी खूब सजाई गई। खुशी से भरे नागरिक मीठे सवरों में बाजे बजा-बजाकर सड़कों पर नाच-गा रहे थे। राजा नल के नगर प्रवेश पर उनका बड़े उललास से सवागत हुआ। प्रसन्न मन से रानी दमयंती सहित राजा नल ने अपने महल में प्रवेश किया।
उधर जब देवतागण स्वर्ग लौट रहे थे, तब द्वापर के साथ कलियुग से उनकी भेंट हुई। कलियुग दमयंती के स्वयंवर में जा रहा था, पर उसे देर हो गई थी। इंद्र ने बताया कि स्वयंवर तो समाप्त हो चुका है और दमयंती ने नल का वरण किया है। अब वहाँ जाना बेकार है। यह सुनकर कलियुग को राजा नल पर बड़ा क्रोध आया। उसने नल से बदला लेने की ठानी। उसने तय किया कि वह किसी भी तरह नल को निषध राज्य और दमयंती से अलग कर देगा। उन्हें तरह-तरह से अपमानित करेगा और कष्ट पहुँचायेगा।
कलियुग के इस हठ को सुनकर देवराज इंद्र को बुरा लगा। उन्होंने नल की तारीफ की और कलियुग को समझाया, पर दुष्ट स्वभाव का कलियुग इंद्र का ही मजाक उड़ाने लगा। यह असभ्य और दुष्ट स्वभाव का कलियुग मानने वाला नहीं, यह सोचकर इंद्र वापस स्वर्ग लौट गये।
कलियुग राजा नल से बदला लेने के लिए निषध की राजधानी की ओर चल दिया। उसने कई तरह से नल ओर दमयंती को सताने के यत्न किए, पर अपनी चतुराई और सदवृत्ति के कारण वे बचते रहे। कलियुग की उनकी सामने एक न चली। हारकर वह नगर के बाहर खड़े पुराने बहेड़े के पेड़ पर रहने लगा और अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता रहा। परन्तु कलियुग को कई वर्षों तक कोई अवसर न मिला। राजा नल और रानी दमयंती धर्म का आचरण और प्रजा की भलाई करते हुए सुखपूर्वक जीवन बिताते रहे।

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

हरिकृष्ण तैलंग : व्यक्तित्व और कृतित्व परिचय

हरिकृष्ण तैलंग : व्यक्तित्व और कृतित्व परिचय


27 दिसंबर 1934 को राजा बिलहरा (सागर) में वहाँ के प्रकांड संस्कृतज्ञ पंडित मुरलीधर तैलंग के बड़े पुत्र हरिकृष्ण तैलंग ने युवावस्था में ही बतौर बाल साहित्यकार अपनी देशव्यापी पहचान गढ़ ली थी। उनकी माँ का नाम लक्ष्मीबाई था। उनके तीन छोटे भाई सुरेंद्र, देवेंद्र और रवीन्द्र हैं। आकाशवाणी में कार्यरत रवीन्द्र तैलंग का असामयिक निधन हो चूका था। शारदा, शशि, इंदु, सिंधु और संतोष नामक पाँच बहनों में सिर्फ एक बहन श्रीमती इंदुप्रभा वर्तमान में भोपाल की मंदाकिनी कालोनी में अपने पुत्र प्रवीण और राकेश के साथ निवासरत हैं। उनके परिवार में उनकी पत्नी श्रीमती सुमन, जो खुद एक शिक्षक रहीं और भोपाल के राजा भोज हायर सेकंडरी स्कूल से रिटायर्ड हुईं, पुत्र अभिनव, पुत्रवधु साधना, पौत्र पर्व, पौत्री पूर्वी एवं बड़ी पुत्री नंदा, दामाद अशोक व्यास, नाती उत्सव तथा छोटी पुत्री प्रज्ञा, दामाद एच. प्रकाश भट्ट, नाती प्रवेश, नातिन प्राची शामिल हैं। 
हरिकृष्ण तैलंग ने किशोरावस्था तक अपने चाचाओं के घर रहकर स्कूली शिक्षा कई नगर-कस्बों - भंडारा, नागपुर, गोंदिया, सागर आदि में रहकर की। तीसरी कक्षा तक वे अपने मूल गाँव राजा बिलहरा में पढ़े। फिर महाराष्ट्र के भंडारा में और नागपुर के तुलसी हिंदी प्रायमरी स्कूल में चौथी कक्षा पास की। पाँचवी कक्षा के लिए उनका एडमिशन जबलपुर के हितकारिणी हाई स्कूल में हुआ। गोंदिया में रहकर छठी कक्षा की पढ़ाई की और सातवीं कक्षा के लिए सागर के कटरा मुहल्ले में स्थित म्युनिसिपल हाई स्कूल पहुँचे। वहाँ उन्होंने 11वीं यानी तब की हायर सेकेंडरी परीक्षा पास कर तब के प्रतिष्ठित "सागर विश्वविद्यालय" से बी.काॅम. और फिर एम.ए. (हिंदी) और बी.एड् किया। यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय सागर में ही उनकी नौकरी रजिस्ट्रार कार्यालय में लग गई, पर वहाँ की कार्यप्रणाली उन्हें रास न आई। जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री आदि में जो बंदरबाँट-काला पीला होता है, उसके लिए उनका स्वभाव अनुकूल न था। बाद में उनके ससुर नूतनकुमार तैलंग, जो तब जिला शिक्षाधिकारी थे और विलनीकरण आंदोलन में शंकरदयाल शर्मा के सक्रिय सहयोगी भी थे, के कहने पर 1955 में स्कूली शिक्षा विभाग में अपर ग्रेड टीचर की नौकरी प्रारंभ की। अध्यापन कर्म की शुरुआत उन्होंने भोपाल के "जहाँगीरिया हायर सेकेंडरी स्कूल" से की। ईमानदारी, कर्मठता और साफगोई के परिणामस्वरूप उनका तबादला कई जगहों जैसे रायपुर, हरदा, नरसिंहपुर, विदिशा, बैरसिया आदि में हुआ पर उन्होंने जोड़तोड़ कर कभी तबादला रुकवाने की कोशिश करने की बजाय समर्पण भाव से अध्यापन और  कर लेखन करना पसंद किया। 32 वर्ष अध्यापन करने के पश्चात  उन्होंने 1987 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ली। तब वे बेरसिया के एक गाँव अर्रावती में बतौर हेड मास्टर कार्यरत थे। वहाँ उन्होंने न सिर्फ बच्चों और शिक्षकों में रोचक तरीके से शिक्षण करने का गुर सिखाया बल्कि वृक्षारोपण, साफ-सफाई, समाज सेवा आदि की प्रेरणा भी दी। एक हनुमान मंदिर की स्थापना में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। वालेंटियर रिटायरमेंट के बाद वे घर नहीं बैठे, बल्कि लेखन से जुड़े पत्रकारिता क्षेत्र में शामिल हो अपनी महत्वपूर्ण जगह बना ली। वे ‘राज्यश्री’, ‘समझ झरोखा’ (वन्या प्रकाशन मप्र शासन उपक्रम), ‘दैनिक जागरण", भोपाल में लगभग 12 वर्ष वरिष्ठ सहयोगी संपादक रहे। ‘दैनिक जागरण’ में उनके अनगिनत संपादकीय को सुधी पाठक आज भी याद करते हैं। 
बाल साहित्‍य में श्री हरिकृष्ण तैलंग ऐसा चिर परिचित नाम रहा है, जिन्होंने हमेशा बाल साहित्‍य के विकास, उसकी सम्मानीय स्थापना हेतु उत्कृष्ट कार्य किया। बच्चों और किशोर पाठकों के लिए उन्होंने आधुनिक बोध से सम्पन्न बाल कहानियाँ, वैज्ञानिक चेतना से ओत-प्रोत साहित्य रचा ताकि बाल साहित्य में परंपरागत राजा-रानी और परी लोक से इतर तर्कपूर्ण और जानकारीप्रद रचनाएँ लिखी जाएँ। आरंभिक दशक में ही साहित्यिक जगत में उनका सम्मानजनक स्थान बन गया, साथ ही युवाओं को भी प्रोत्‍साहित, प्रेरित करते रहे। उन्होंने न सिर्फ उत्कृष्ट बाल साहित्‍य का सृजन किया,वरन अन्य विधाओं में भी अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज़ की। वे सहज, सरल, मिलनसार और मददगार इन्सान भी थे। हरिकृष्ण तैलंग ने लगभग 20 वर्ष की उम्र में लेखन प्रारंभ किया और अपने मृत्य दिवस, हिंदी दिवस 14 सितंबर 2014 तक जारी रहा। उनकी आखिरी दो पुस्तकें ‘नाम एक नगर अनेक’ और ‘नाम एक व्यक्ति अनेक’ प्रकाशनाधीन हैं। रोचक शैली में लिखीं इन ज्ञानवर्धक पुस्तकों में ऐसे नामचीन शहरों और प्रख्यात व्यक्तियों का परिचय है जो एक नाम के हैं पर अपनी स्वतंत्र पहचान रखते हैं। उदाहरणार्थ ताजमहल न सिर्फ आगरा में है बल्कि देश-विदेश के कई दूसरे शहरों में भी हैं। मुंबई का प्रख्यात होटल ताज हो या भोपाल की ऐतिहासिक इमारत ताजमहल, सभी को श्री तैलंग ने शामिल किया है। इसी तरह अशोक नामक हस्तियों में सम्राट अशोक के साथ वर्तमान समय के राजनेता अशोक गहलोत और कालजयी अभिनेता अशोक कुमार और कवि अशोक वाजपेयी के साथ ही उदघोषक अशोक वाजपेयी के बारे में भी पर्याप्त जानकारी संग्रहित की। 
लेखन के प्रारंभिक वर्ष, सन् 1954 से ही देश की प्रतिष्ठित और बहु-प्रसारित पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का प्रकाशन होने लगा था। मात्र 27 वर्ष की युवावस्था में 1961 में ‘पराग’ के खिलौना विशेषांक में उनकी कहानी ‘गुडि़या का विवाह’ पर मुखपृष्ठ बना तथा टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप की पत्र-पत्रिकाओं में उस विशेषांक का विज्ञापन भी उसी कहानी पर आधारित था। बालसखा, नंदन, बालभारती, बालहंस, समझ झरोखा, चकमक आदि में भी बालकों के लिए कहानियाँ प्रकाशित हुईं। धर्मयुग, सारिका, दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत, समाज कल्याण, कथालोक, हिमप्रस्थ, शिखरवार्ता, पालिका समाचार, भारती, मध्यप्रदेश संदेश, साक्षात्कार, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी, अमर उजाला, ट्रिब्यून, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, नवभारत, नईदुनिया, लोकमत समाचार, आज, सन्मार्ग, दैनिक जागरण, राज एक्सप्रेस आदि लगभग सभी प्रतिष्ठित और बहु-प्रसारित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, आलेख, व्यंग्य आदि का निरंतर प्रकाशन हुआ। आपात्काल के दौरान प्रकाशित ‘सारिका’ के एक अंक में उनकी लघुकथा ‘शिकारी और भोले कबूतर’ बेहद चर्चित रही। अनेक संपादकों ने उनकी बाल कथाएँ, लघुकथाएँ और व्यंग्य को अपने संग्रहों में शामिल किया। मनोरमा वार्षिकी 2002 में ‘बीसवीं सदी में बाल साहित्य’ आलेख में प्रतिनिधि कहानीकारों के साथ विशेष रूप से नामोल्लेख मिलता है। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व प्रख्यात बाल साहित्यकार डाॅ. राष्ट्रबंधु के संपादन में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर ‘बाल साहित्य समीक्षा’ (कानपुर) का अंक भी निकला।
श्री तैलंग ने अनेक विधाओं में लिखा। बाल साहित्य की प्रकाशित पुस्तकों में ‘जूता चर्चा’ (मप्र साहित्य परिषद का पद्माकर पुरस्कार संग्रह), ‘पर्यावरण एवं संतुलित आहार’ (कोलकाता से मनीषा पुरस्कार प्राप्त नाटक संग्रह), ‘कथाओं में नाचता मोर’ (इलाहाबाद शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार प्राप्त संग्रह), ‘बात का बतंगड़’ (हिंदी सभा, सीतापुर से पुरस्कार प्राप्त संग्रह), ‘मेढ़क की करामात’, ‘बकरी के जिद्दी बच्चे’, ‘अच्छे दोस्त बनाओ’ प्रमुख हैं। नवसाक्षर साहित्य में उन्होंने ‘फलो का राजा आम’, ‘प्याज और लहसुन’, ‘हमारा गाँव हमारा देश’, ‘वाहन कैसे बने कैसे चले’ पुस्तकें लिखीं जिन्हें भारत सरकार की नवसाक्षर प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला। वे लिटरेसी हाउस, लखनऊ के सेमीनार्स, वर्कशॉप में भी विद्वान के रूप में आमंत्रित होते रहे। वहाँ रहकर उन्होंने ‘बोलती पुतलियाँ’ पुस्तक लिखीं जो लिटरेसी हाउस द्वारा पुरस्कृत और प्रकाशित की गई। सामाजिक चेतना फैलाने के लिए उन्होंने ‘जल: जीवन और जहर’ तथा ‘पर्यावरण एवं संतुलित आहार’ नामक पुस्तकें लिखीं। 
लगभग 1984 में उन्होंने व्यंग्य लेखन की शुरुआत की और पहला ही व्यंग्य ‘कुत्ता पालक कालोनी’ देश के सर्वाधिक पठनीय दैनिक ‘नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित हुआ। बाद के प्रकाशित व्यंग्यों -‘आम आदमी पर बहस: अंतर्कथा’ डाॅ. धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ और राजेंद्र अवस्थी ने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में ‘हास्य क्या है, व्यंग्य क्या है’ छाप कर प्रमुख व्यंग्यकारों में शामिल किया। उनका व्यंग्य संग्रह ‘कुत्ता पालक कालोनी’ और ‘घासचोरी का मुकदमा’ बेहद चर्चित रहे। ‘घास चोरी का मुकदमा’ को तो "मप्र साहित्य परिषद" का प्रतिष्ठित ‘शरद जोशी सन्मान’ और ‘मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का’ वागीश्वरी सन्मान प्राप्त हुआ। मप्र साहित्य परिषद के पूर्व निदेशक डाॅ. देवेंद्र दीपक हरिकृष्ण तैलंग की एक पुस्तक ‘अपंग जिनसे दुनिया दंग‘ को विशेष रूप से याद करते हैं। उन्होंने उसी से प्रेरणा पाकर भारत भवन में राष्ट्रीय स्तर का एक कवि सम्मेलन करवाया जिसमें नेत्रहीन रचनाकारों ने शिरकत की थी। इसके अलावा श्री तैलंग ने ‘संस्कृत कथाएँ’ और ‘बुद्ध चरितम्’ नामक पुस्तकें भी लिखीं जिनमें संस्कृत साहित्य की महान रचनाओं का संक्षिप्त अनुवाद शामिल है। यही नहीं, उनकी लिखी ‘सामान्य ज्ञान‘ (जूनियर) और ‘सामान्य ज्ञान’ (सीनियर) भी जानकारीप्रद रहीं। प्रारंभ से ही उनकी रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी भोपाल तथा लखनऊ से होता रहा। वे दूरदर्शन दिल्ली और भोपाल केंद्र से भी दिखाई दिए। आकाशवाणी, भोपाल के वे दो वर्ष शैक्षिक प्रसारण सलाहकार भी रहे।
हालाँकि किसी वाद अथवा खेमेबाजी में उनका विश्वास या रुचि कभी नहीं रही। पर उन्होंने कई संस्थाओं में सक्रिय भूमिका निभाई। विदिशा में पद स्थापना के दौरान वे हिंदी साहित्य सम्मेलन, विदिशा के अध्यक्ष रहे और तब अनेक साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों की खूब सराहना हुई। जनवादी लेखक संघ, सागर सांस्कृतिक परिषद, मप्र लेखक संघ के पूर्व पदाधिकारी भी रहे। लिटरेसी हाउस, लखनऊ, राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद, दिल्ली, मप्र माध्यमिक शिक्षा मंडल, मप्र पाठ्य पुस्तक निगम, मप्र लोक शिक्षण को उन्होंने लेखकीय सहयोग तथा कुछ शैक्षिक योजनाओं/ पाठ्य पुस्तको की रूपरेखा तैयार करने में सहयोग दिया। 
उनकी रचनाओं को ढेर सारे पुरस्कार-सन्मान मिले। नीलकंठेश्वर महाविद्यालय (खंडवा) से प्रादेशिक निबंध पुरस्कार, मप्र लोक शिक्षण से सर्वोत्तम बाल साहित्य प्रतियोगिता में दो पुरस्कार, मप्र लोक शिक्षण की शैक्षिक निबंध प्रतियोगिताओं में तीन वर्षों तक लगातार प्रथम पुरस्कार, मप्र साहित्य परिषद द्वारा पद्माकर तथा शरद जोशी पुरस्कार, मप्र हिंदी साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी पुरस्कार, कोलकाता की संस्था मनीषिका का मनीषा पुरस्कार, इलाहाबाद में शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार, कानपुर में बाल कल्याण परिषद द्वारा पुरस्कार, बलिया में नागरी बाल साहित्य संस्थान का पुरस्कार, दतिया में हिंदी साहित्य समिति द्वारा पुरस्कार, भोपाल में भीष्म सम्मान, अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन द्वारा दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा के हाथों ‘साहित्यश्री’ तथा बंगलौर में ‘भारत भाषा भूषण’ उपाधि से विभूषित हुए। इलाहाबाद में ‘मीरा स्मृति सम्मान’ और भोपाल के ‘बाल कल्याण एवं बाल साहित्य शोध केंद्र’ से भी वे सम्मानित हुए। ‘करवट कला परिषद’ ने गत 25 दिसंबर 2013 को ‘कला साधना सम्मान’ और इसी वर्ष 17 जून 2014 को उन्हें भोपाल के ‘दुष्यंत संग्रहालय’ में सत्यस्वरूप माथुर श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान से विभूषित किया गया। यही नहीं, 14 सितंबर 2014 को मरणोपरांत भी श्री तैलंग को "जेके हास्पिटल एंड रिसर्च सेंटर" ने ‘आधुनिक दधिचि’ का सम्मान मिला।