"पतंग बोली"
(हरिकृष्ण तैलंग की यादगार बाल कहानी )
//कई दशक पूर्व, टाइम्स आॅफ इंडिया ग्रुप की बाल पत्रिका ‘पराग’ के यशस्वी संपादक श्री आनंदप्रकाश जैन ने श्री हरिकृष्ण तैलंग की अनेक कहानियाँ आकर्षक ढंग से प्रकाशित की थीं। उन्हीं लोकप्रिय कहानियों का एक संग्रह ‘पतंग बोली’ आया जिसे तब मप्र शिक्षा विभाग ने पुरस्कृत किया था।//
रमेश अपने दोस्तों में पतंगबाज के नाम से मशहूर था। उसे रंग-बिरंगी पतंगों का आकाश में अठखेलियाँ करना खूब भाता था। वह पतंग को खूब ऊँचा उड़ा कर ठुमकियाँ खिलाया करता। पेंच लड़ाकर किसी की पतंग को काट देता तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहता। वह अपने साथियों की कितनी पतंगें काट चुका, उसकी कहानी वह जब-तब बड़ी शान से सुनाया करता। मित्र जब उसकी तारीफ करते तो वह फूल कर कुप्पा हो जाता।
परंतु घरवाले उसके इस शौक को दबाना चाहते थे। जब उसकी माँ उसे प्यार से समझाती, तो रमेश उसकी बातें हँसी में टाल देता। कभी कहता कि बड़े लेग भी तो बचपन में पतंग उड़ाते थे। राजा राम तक पतंग उड़ाया करते थे। उनकी पतंग एक बार तो देवलोक में किसी देवकन्या ने रोक ली थी। वह भी पतंग उड़ाता है तो क्या बुरा करता है। तरह-तरह के और भी तर्क रमेश को आते थे। वह समझ नहीं पाता था कि उसे पतंग उड़ाने से क्यों रोका जाता है। यह खेल ऐसा कोई खतरनाक भी तो नहीं। हाॅकी-फुटबाल में तो आँख फूटने और टाँग टूटने का खतरा रहता है। लोग कहा करते थे कि पतंग उड़ाने वालों का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता। यह दलील भी उसे हल्की-फुल्की लगती। वह जानता था कि बेंजामिन फ्रेंकलिन ने पतंगबाजी से ही बिजली का पता लगाया था। बेचारी सीधी सादी माँ इन बातों को क्या जाने। इसीलिए रमेश माँ की बात इस कान सुनता और उस कान निकाल देता।
रमेश का मन अब पढ़ने-लिखने से उचटने लगा। धीरे-धीरे उसका स्कूल जाना भी कम होने लगा। वह अपने घर से चुपके से पतंग उठाता और स्कूल जाने का बहाना कर दूर के मैदान में पतंग उड़ाया करता। वहाँ रंगीन पंतगों की उड़ान पर लोगों को पतंग लूटने की राह ताकते देखता तो घमंड से अपनी चरखी को नचाता।
अब उसे किसी की परवाह नहीं रह गई थी। घर में उसकी शिकायत पहुँचती तो वह बहानेबाजी का दाँव काम में लाता। सच्ची बात मालूम होने पर एक दिन उसके पिता ने उसे पीट भी दिया लेकिन अब देर हो चुकी थी। बहुत दिनों से छूटी पढ़ाई उसे फिर आकर्षित न कर सकी। नतीजा यह हुआ कि रमेश सालाना परीक्षा में फैल हो गया। उसके साथी आगे की कक्षा में पहुँच गये थे। रमेश को अब माँ-बाप का डाँटना मारना काफी खलता था। वह स्वयं भी अपने शिक्षकों और साथियों के सामने निकलने में झिझकता था। मजे की बात यह हुई थी कि उसकी छोटी बहन मुन्नी पास हो गई थी। इसलिए मुन्नी की तारीफ सभी करते थे। उसके पास होने के दिन माँ ने पड़ोस में मिठाई भी बाँटी थी क्योंकि बच्चों के पास होने की खुशी केवल बच्चों को ही नहीं, उनके माँ-बाप को भी खूब होती है।
उस दिन रमेश स्कूल से अपना परीक्षाफल सुनकर घर आया। रमेश के साथियों से घरवालों को पहले ही उसका नतीजा मालूम हो चुका था। माँ ने उससे कोई बात नहीं की। पिताजी भी खामोश रहे। मुन्नी ने आज उसे बिल्कुल नहीं चिढ़ाया। ऐसा अजीब वातावरण देख, उसने अपनी पतंग उठाई और मैदान में जा पहुँचा। पर उस दिन पतंगबाजी में उसका मन न लगा। सूरज ढलने पर उसने आसमान में उड़ती पतंग को चरखी के सहारे नीचे उतारा और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते घर लौट आया।
घर में सन्नाटा-सा छाया था। सब चुपचाप अपने-अपने काम में मशगूल थे। डरते डरते उसने जैसे-तैसे खाना खाया। इस समय भी माँ ने कोई बात नहीं की। माँ का ऐसा अनोखा व्यवहार रमेश को बहुत अखरा। माँ की चुप्पी से उसके हृदय पर चोट लगी। भारी-सा मन लेकर वह सीधा अपने बिछौने पर जाकर लेट गया। माँ, फेल हो जाना, साथियों का आगे बढ़ जाना, पतंगबाजी इन सब के बारे में सोचते-सोचते उसकी बैचेनी नींद की गोदी में खामोशी से खेलने लगी।
थोड़ी देर बाद रमेश को लगा जैसे वह उठा हो। चारों तरफ देखा, तो सवेरा हुआ जान पड़ा। सूरज की रोशनी खिड़की में से आकर, उसके पैरों से खेल रही थी। बाहर चिडि़या ‘चीं-चीं’ करती हुई फुदक रही थीं। खिड़की के पास लगी रातरानी की शाखाएँ धीमे-धीमे हवा में हिल रही थीं। रमेश ने एकदम चादर फेंक दी और हाथ-मुँह धोने जा पहुँचा। वह जल्दी-जल्दी सब काम कर रहा था क्योंकि आज एक पतंगबाज से उसका मैच होने वाला था। ठीक आठ बजे उसे मैदान में पहुँचना था। सब कामों से निबट, रमेश पतंग लेने भीतर पहुँचा। पतंग खूँटी पर टँगी हुई थी। जैसे ही रमेश ने पतंग उठाने हाथ बढ़ाया कि पतंग बोल पड़ी, ‘रमेश, आज मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगी। मुझे यहीं रहने दो।’
रमेश बड़े अचरज में पड़ गया। फिर भी बोला, ‘अरे ! यह कैसे हो सकता है ! आज तो हमारा मैच है। तुम्हें आज अपना कमाल दिखाना है।’
पतंग बोली, ‘परंतु रमेश, आज मेरा मन नहीं करता। आज मैं कुछ भी न कर सकूँगी। हो सकता है तुम हार जाओ।’
‘कैसी बातें करती हो पतंग रानी ! कल ही तो तुमने कमाल दिखाया था। एकदम चार पतंगें काटी थीं। फिर आज क्या हो गया जो ऐसी बातें करती हो !’ रमेश ने पूछा।
पतंग ने जवाब दिया, ‘आज ही मैं अपनी असलियत समझी हूँ रमेश। अभी तक तो मैं अंधेरे में थी। इसी से खुद से इतराती ही रही, तुम्हें भी मैंने भटका दिया।’
‘मेरी पतंग रानी, सच सच बताओ, बात क्या है ? क्या आज मुझे मात खानी पड़ेगी ? तुम क्या अब सचमुच न चलोगी ?’ रमेश ने खुशामद भरे शब्दों में कहा।
‘ना, रमेश अब मैं न चूलूंगी। मेरी सलाह मानो। अब तुम भी मेरे फेर में न पड़ो। देखो, यदि तुम मुझ में इतने मस्त न हो जाते तो क्या औरों की तरह पास न हो जाते ? मैं तो पिछड़ी हुई हूँ ही, तुम भी अपने साथियों से पिछड़ गये। रमेश, आज के जमाने में पिछड़ना बहुत बुरी बात है। मुझे देखो, जब से मैं पैदा हुई तबसे आज तक वही पुरानी पतंग बनी हुई हूँ। मैं डोर के सहारे उड़ती हूँ तो समझती रही कि मैं सबसे ऊँची हूँ। बड़े-बड़े वृक्ष, टीले और पहाड़ की चोटियाँ मेरी ऊँचाई से शरमाती हैं। मैं बादलों के संग यहाँ से वहाँ उड़ती फिरती हूँ। मुझे और आगे बढ़कर क्या करना है। इसी भ्रम में पड़ी रहकर, आज भी मैं वही हूँ जो पहले थी।
परंतु आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मैंने आकाश में अपने से कहीं ऊँचा हवाईजहाज उड़ते देखा। आए दिन राॅकेट भी उड़ते दिखाई देते हैं जो चंद्रमा तक पहुँच चुके हैं और सूर्य, मंगल ग्रह पर उतरने लालायित हैं। उन्हें देख मुझे अपनी क्षुद्रता पर रोना आता है और लज्जा भी लगती है। यदि घमंड में न आकर अपनी तरक्की की कोशिश करती रहती तो आज मुझे डोर के सहारे उड़ने की आवश्यकता न रहती। डोर से ही मेरी ऊँचाई है। जहाँ डोर कटी, मैं हवा में धक्के खाती हुई, विवश हो बेसहारे उड़ती जाती हूँ। फिर कहीं पानी में गिरती हूँ, कहीं काँटों में उलझती हूँ या शैतान बच्चों के हाथ पड़कर अपने शरीर को नुचवाती हूँ। रमेश अब लगातार आगे बढ़ते रहने का युग है। तुम्हें भी अपने आपको योग्य बनाने की मेहनत करना चाहिये ताकि तुम अपनी खुद की योग्यता से आगे बढ़ सको।’ यह सब कहते कहते पतंग का गला भर आया और वह एक लंबी साँस लेकर खामोश हो गई।
एक बार तो रमेश पतंग की यह सीख सुनकर हक्का-बक्का रह गया। फिर बोला, ‘मैंने पतंग को उपदेश देते आज ही सुना है। भला, बच्चे हवाईजहाज और राॅकेट जैसे खतरनाक काम खेल-खेल में कैसे कर सकते हैं ? उनके लिए तो पतंग ही राॅकेट और हवाई जहाज है।’
यह सुनकर पतंग मुस्कराई और बोली, ‘रमेश, तुम फिर भूल कर रहे हो। मेरे भाई, आज के बच्चे ही कल को हवाई जहाज और राॅकेट के चालक बनेंगे। तुम विज्ञान की पत्र-पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें पढ़कर बहुत-सा ज्ञान अभी प्राप्त कर सकते हो। जो समय और शक्ति तुम मुझ मुँहजली को उड़ाने में व्यय करते हो वह ही तुम्हें भविष्य में ऊँचा उठाने, आगे बढ़ने में मदद करेंगे। जरा सोचो तो तुम स्वयं अपनी पतंग बन सकते हो।’
इतना कहकर पतंग ने मुस्कराते हुए प्यार से रमेश की ओर देखा।
पतंग की बातें सुनकर रमेश बैचेन हो उठा। उसी समय माथे पर किसी का प्यार भरा स्पर्श अनुभव हुआ। उसने अचानक आँखें खोल दीं। उसकी माँ सिरहाने बैठी सिर पर हाथ फेर उसे जगा रही थी, ‘रमेश, उठो देखो सवेरा हो गया है। जल्दी उठकर दूध पी लो।’
रमेश अब पूरी तरह जग चुका था। वह एकदम उठकर हाथ-मुँह धोने चला गया। आज उसके चेहरे पर एक भिन्न प्रकार के दृढ़ निश्चय की मुस्कान खेल रही थी।
परंतु घरवाले उसके इस शौक को दबाना चाहते थे। जब उसकी माँ उसे प्यार से समझाती, तो रमेश उसकी बातें हँसी में टाल देता। कभी कहता कि बड़े लेग भी तो बचपन में पतंग उड़ाते थे। राजा राम तक पतंग उड़ाया करते थे। उनकी पतंग एक बार तो देवलोक में किसी देवकन्या ने रोक ली थी। वह भी पतंग उड़ाता है तो क्या बुरा करता है। तरह-तरह के और भी तर्क रमेश को आते थे। वह समझ नहीं पाता था कि उसे पतंग उड़ाने से क्यों रोका जाता है। यह खेल ऐसा कोई खतरनाक भी तो नहीं। हाॅकी-फुटबाल में तो आँख फूटने और टाँग टूटने का खतरा रहता है। लोग कहा करते थे कि पतंग उड़ाने वालों का मन पढ़ाई लिखाई में नहीं लगता। यह दलील भी उसे हल्की-फुल्की लगती। वह जानता था कि बेंजामिन फ्रेंकलिन ने पतंगबाजी से ही बिजली का पता लगाया था। बेचारी सीधी सादी माँ इन बातों को क्या जाने। इसीलिए रमेश माँ की बात इस कान सुनता और उस कान निकाल देता।
रमेश का मन अब पढ़ने-लिखने से उचटने लगा। धीरे-धीरे उसका स्कूल जाना भी कम होने लगा। वह अपने घर से चुपके से पतंग उठाता और स्कूल जाने का बहाना कर दूर के मैदान में पतंग उड़ाया करता। वहाँ रंगीन पंतगों की उड़ान पर लोगों को पतंग लूटने की राह ताकते देखता तो घमंड से अपनी चरखी को नचाता।
अब उसे किसी की परवाह नहीं रह गई थी। घर में उसकी शिकायत पहुँचती तो वह बहानेबाजी का दाँव काम में लाता। सच्ची बात मालूम होने पर एक दिन उसके पिता ने उसे पीट भी दिया लेकिन अब देर हो चुकी थी। बहुत दिनों से छूटी पढ़ाई उसे फिर आकर्षित न कर सकी। नतीजा यह हुआ कि रमेश सालाना परीक्षा में फैल हो गया। उसके साथी आगे की कक्षा में पहुँच गये थे। रमेश को अब माँ-बाप का डाँटना मारना काफी खलता था। वह स्वयं भी अपने शिक्षकों और साथियों के सामने निकलने में झिझकता था। मजे की बात यह हुई थी कि उसकी छोटी बहन मुन्नी पास हो गई थी। इसलिए मुन्नी की तारीफ सभी करते थे। उसके पास होने के दिन माँ ने पड़ोस में मिठाई भी बाँटी थी क्योंकि बच्चों के पास होने की खुशी केवल बच्चों को ही नहीं, उनके माँ-बाप को भी खूब होती है।
उस दिन रमेश स्कूल से अपना परीक्षाफल सुनकर घर आया। रमेश के साथियों से घरवालों को पहले ही उसका नतीजा मालूम हो चुका था। माँ ने उससे कोई बात नहीं की। पिताजी भी खामोश रहे। मुन्नी ने आज उसे बिल्कुल नहीं चिढ़ाया। ऐसा अजीब वातावरण देख, उसने अपनी पतंग उठाई और मैदान में जा पहुँचा। पर उस दिन पतंगबाजी में उसका मन न लगा। सूरज ढलने पर उसने आसमान में उड़ती पतंग को चरखी के सहारे नीचे उतारा और धीरे-धीरे कदम बढ़ाते घर लौट आया।
घर में सन्नाटा-सा छाया था। सब चुपचाप अपने-अपने काम में मशगूल थे। डरते डरते उसने जैसे-तैसे खाना खाया। इस समय भी माँ ने कोई बात नहीं की। माँ का ऐसा अनोखा व्यवहार रमेश को बहुत अखरा। माँ की चुप्पी से उसके हृदय पर चोट लगी। भारी-सा मन लेकर वह सीधा अपने बिछौने पर जाकर लेट गया। माँ, फेल हो जाना, साथियों का आगे बढ़ जाना, पतंगबाजी इन सब के बारे में सोचते-सोचते उसकी बैचेनी नींद की गोदी में खामोशी से खेलने लगी।
थोड़ी देर बाद रमेश को लगा जैसे वह उठा हो। चारों तरफ देखा, तो सवेरा हुआ जान पड़ा। सूरज की रोशनी खिड़की में से आकर, उसके पैरों से खेल रही थी। बाहर चिडि़या ‘चीं-चीं’ करती हुई फुदक रही थीं। खिड़की के पास लगी रातरानी की शाखाएँ धीमे-धीमे हवा में हिल रही थीं। रमेश ने एकदम चादर फेंक दी और हाथ-मुँह धोने जा पहुँचा। वह जल्दी-जल्दी सब काम कर रहा था क्योंकि आज एक पतंगबाज से उसका मैच होने वाला था। ठीक आठ बजे उसे मैदान में पहुँचना था। सब कामों से निबट, रमेश पतंग लेने भीतर पहुँचा। पतंग खूँटी पर टँगी हुई थी। जैसे ही रमेश ने पतंग उठाने हाथ बढ़ाया कि पतंग बोल पड़ी, ‘रमेश, आज मैं तुम्हारे साथ नहीं चलूँगी। मुझे यहीं रहने दो।’
रमेश बड़े अचरज में पड़ गया। फिर भी बोला, ‘अरे ! यह कैसे हो सकता है ! आज तो हमारा मैच है। तुम्हें आज अपना कमाल दिखाना है।’
पतंग बोली, ‘परंतु रमेश, आज मेरा मन नहीं करता। आज मैं कुछ भी न कर सकूँगी। हो सकता है तुम हार जाओ।’
‘कैसी बातें करती हो पतंग रानी ! कल ही तो तुमने कमाल दिखाया था। एकदम चार पतंगें काटी थीं। फिर आज क्या हो गया जो ऐसी बातें करती हो !’ रमेश ने पूछा।
पतंग ने जवाब दिया, ‘आज ही मैं अपनी असलियत समझी हूँ रमेश। अभी तक तो मैं अंधेरे में थी। इसी से खुद से इतराती ही रही, तुम्हें भी मैंने भटका दिया।’
‘मेरी पतंग रानी, सच सच बताओ, बात क्या है ? क्या आज मुझे मात खानी पड़ेगी ? तुम क्या अब सचमुच न चलोगी ?’ रमेश ने खुशामद भरे शब्दों में कहा।
‘ना, रमेश अब मैं न चूलूंगी। मेरी सलाह मानो। अब तुम भी मेरे फेर में न पड़ो। देखो, यदि तुम मुझ में इतने मस्त न हो जाते तो क्या औरों की तरह पास न हो जाते ? मैं तो पिछड़ी हुई हूँ ही, तुम भी अपने साथियों से पिछड़ गये। रमेश, आज के जमाने में पिछड़ना बहुत बुरी बात है। मुझे देखो, जब से मैं पैदा हुई तबसे आज तक वही पुरानी पतंग बनी हुई हूँ। मैं डोर के सहारे उड़ती हूँ तो समझती रही कि मैं सबसे ऊँची हूँ। बड़े-बड़े वृक्ष, टीले और पहाड़ की चोटियाँ मेरी ऊँचाई से शरमाती हैं। मैं बादलों के संग यहाँ से वहाँ उड़ती फिरती हूँ। मुझे और आगे बढ़कर क्या करना है। इसी भ्रम में पड़ी रहकर, आज भी मैं वही हूँ जो पहले थी।
परंतु आज मेरी आँखें खुल गई हैं। मैंने आकाश में अपने से कहीं ऊँचा हवाईजहाज उड़ते देखा। आए दिन राॅकेट भी उड़ते दिखाई देते हैं जो चंद्रमा तक पहुँच चुके हैं और सूर्य, मंगल ग्रह पर उतरने लालायित हैं। उन्हें देख मुझे अपनी क्षुद्रता पर रोना आता है और लज्जा भी लगती है। यदि घमंड में न आकर अपनी तरक्की की कोशिश करती रहती तो आज मुझे डोर के सहारे उड़ने की आवश्यकता न रहती। डोर से ही मेरी ऊँचाई है। जहाँ डोर कटी, मैं हवा में धक्के खाती हुई, विवश हो बेसहारे उड़ती जाती हूँ। फिर कहीं पानी में गिरती हूँ, कहीं काँटों में उलझती हूँ या शैतान बच्चों के हाथ पड़कर अपने शरीर को नुचवाती हूँ। रमेश अब लगातार आगे बढ़ते रहने का युग है। तुम्हें भी अपने आपको योग्य बनाने की मेहनत करना चाहिये ताकि तुम अपनी खुद की योग्यता से आगे बढ़ सको।’ यह सब कहते कहते पतंग का गला भर आया और वह एक लंबी साँस लेकर खामोश हो गई।
एक बार तो रमेश पतंग की यह सीख सुनकर हक्का-बक्का रह गया। फिर बोला, ‘मैंने पतंग को उपदेश देते आज ही सुना है। भला, बच्चे हवाईजहाज और राॅकेट जैसे खतरनाक काम खेल-खेल में कैसे कर सकते हैं ? उनके लिए तो पतंग ही राॅकेट और हवाई जहाज है।’
यह सुनकर पतंग मुस्कराई और बोली, ‘रमेश, तुम फिर भूल कर रहे हो। मेरे भाई, आज के बच्चे ही कल को हवाई जहाज और राॅकेट के चालक बनेंगे। तुम विज्ञान की पत्र-पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें पढ़कर बहुत-सा ज्ञान अभी प्राप्त कर सकते हो। जो समय और शक्ति तुम मुझ मुँहजली को उड़ाने में व्यय करते हो वह ही तुम्हें भविष्य में ऊँचा उठाने, आगे बढ़ने में मदद करेंगे। जरा सोचो तो तुम स्वयं अपनी पतंग बन सकते हो।’
इतना कहकर पतंग ने मुस्कराते हुए प्यार से रमेश की ओर देखा।
पतंग की बातें सुनकर रमेश बैचेन हो उठा। उसी समय माथे पर किसी का प्यार भरा स्पर्श अनुभव हुआ। उसने अचानक आँखें खोल दीं। उसकी माँ सिरहाने बैठी सिर पर हाथ फेर उसे जगा रही थी, ‘रमेश, उठो देखो सवेरा हो गया है। जल्दी उठकर दूध पी लो।’
रमेश अब पूरी तरह जग चुका था। वह एकदम उठकर हाथ-मुँह धोने चला गया। आज उसके चेहरे पर एक भिन्न प्रकार के दृढ़ निश्चय की मुस्कान खेल रही थी।
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