गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

चिडि़याघर

चिडि़याघर


(वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग का लिखा एक और व्यंग्य "चिडि़याघर" जो देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित समाचार पत्र ""दैनिक हिन्दुस्तान" में छपा था और 'प्रभात प्रकाशन' (नई दिल्ली) द्वारा प्रकशित उनके व्यंग्य संग्रह "घास चोरी का मुक़दमा" में शामिल हुआ) 
अखबार में छपी खबर पढ़ी -फलाँ शहर का नगर निगम चिडि़याघर बनायेगा। खबर छोटी थी, पर मुझे बड़ी रोचक और कल्पनाशील लगी। मेरा मन आकाश में चढ़कर चिडि़याघर देखने लगा।
खबर पढ़ते ही मुझे एक पुराना वाकया याद आया। कई साल पहले एक स्कूल के प्रिंसिपल का ट्रांसफर हुआ। मेरे अलावा सारे स्टाफ ने तय किया कि उनको अभिनंदन पत्र दिया जाये। अभिनंदन पत्र लिखने का दायित्व सौंपा गया हिंदी के व्याख्याता को जो अमूमन ऐसे दायित्व निभाने के लिए अभिशप्त होता है। अभिनंदन पत्र लिखना, शोक प्रस्ताव लिखना, वार्षिक रिपोर्ट लिखना, मंत्री, संचालक या विभिन्न अध्यक्षों के आगमन पर प्रशस्ति पट्टिकाएँ लिखकर टँगवाना, स्वागत गान गवाना हिंदी व्याख्याता के जिम्मे होता है। उसे स्कूल की वार्षिक पत्रिका का संपादक भी बनाया जाता है, क्योंकि वह फोटो के ऐसे शीर्षक देने में पटु होता है -श्रद्धेय प्राचार्य महोदय कार्यालय में अपनी कलम-दवात के साथ, कर्मठ प्राचार्यजी श्रम दान के क्षणों में फावड़ा उठाए प्रेरणाप्रभा विकीर्ण करते हुए, हमारे परमश्रद्धेय प्राचार्यजी और सुगंध गंध कोश गुलाब पुष्पों का मनोहर हार अत्यंत विनम्र भाव से ग्रीवा अर्पण करते हुए, आदि, आदि।
अभिनंदन पत्र को हिंदी के व्याख्याता ने लिखा और मित्रतावश मुझे दिखाया। मैं दंग रह गया उसे पढ़कर कि हिंदी भी इतनी आनंददायक भाषा हो सकती है। तभी से आज तक हिंदी के व्याख्याताओं की हिंदी का बड़ा कायल हूँ। जो प्रशस्तियाँ उसमें थीं, उसके बारे में क्या कहूँ पर एक प्रशस्ति पढ़कर मुझे हँसी आ गई थी और अब भी उसे याद कर आ जाती है। वह सदा हास्य सुख देने वाली प्रशस्ति थी -‘आपने विद्यालय की प्रयोगशाला में तरह-तरह के जीव-जंतु एकत्र करवा रखे हैं जो विद्यार्थियों का ज्ञानवर्द्धन करते रहते हैं।’ सचमुच विद्यालय प्राचार्य के जीव-जंतु प्रेम के कारण अच्छा-खासा चिडि़याघर बन गया है, पर मैंने व्याख्याता से कहकर वे शब्द बदलवा दिए थे। पता नहीं उस युग में मेरी मनःस्थिति किस प्रकार की थी। आज का समय होता तो मैं शायद कुछ जीव-जंतुओं के नाम भी उसमें जुड़वा देता।
भोपाल में भी कई वर्षों पहले शासन ने श्यामला हिल पर अच्छा-खासा चिडि़याघर, जिसे वन विहार कहते हैं, बना रखा है। हमारा मध्यप्रदेश भारत भर में सबसे अधिक क्षेत्रफल में जंगल रखता है। फिर भी शहरी नागरिक जानवरों को जंगलों में कहाँ देख पाता है ? इसलिए राजधानी में नागरिकों के लिए शासन ने दर्शनीय चिडि़याघर बना दिया है। हमारे प्राचार्य और शासन इस तरह एक ही श्रृंखला की कडि़याँ जोड़ते हैं और अपने-अपने दायित्व निभाते हैं।
मुझे यह नहीं मालूम कि भोपाल के चिडि़याघर में कुल कितने जानवर और चिडि़या हैं पर मेरे विद्यार्थी उसके सम्बंध में चर्चा कर रहे थे। एक विद्यार्थी ने चर्चा छेड़ी -‘सर, कल मैं चिडि़याघर देखने गया था। पर वहाँ मुझे शेर देखने को नहीं मिला। गार्ड से मैंने पूछा, भैया जंगल के राजा साहब कहाँ चले गए ? मुझे उनके दर्शन करना है तो सर, वह मुस्करा कर बोला -जंगल के राजा दिल्ली गए हैं। सर, क्या शेर भी दिल्ली चले जाते हैं ?’
मैं उस विद्यार्थी के भोले प्रश्न पर मुस्करा पड़ा था। और शायद मेरी मुस्कराहट भी बिल्कुल वैसी थी जैसी उस चिडि़याघर के चौकीदार की होगी जो विद्यार्थी से मुस्कराहट भरा मजाक कर बैठा था। मैं विद्यार्थियों को बताता हूँ -‘मध्यप्रदेश में सफेद शेर पाए जाते हैं जो अक्सर दिल्ली के चिडि़याघर की शोभा बढ़ाने जाया करते हैं। दिल्ली से भेजे गए शेर मध्यप्रदेश के चिडि़याघर की शोभा बढ़ाते हैं। यह आदान-प्रदान यात्रा, आजादी के बाद, कई दशकों से बराबर चली आ रही है।’
दूसरा विद्यार्थी बोला -‘सर, हमने तो शेर देखा था। पर क्या शेर ऐसा सुस्त और अपने दायरे में चहल-कदमी करने वाला होता है ?’
मैं उत्तर देता हूँ -‘ऐसी बात नहीं है। चिडि़याघर के दायरे में बँधा शेर वातावरण के प्रति संवेदनशील हो जाता है। उसे कृत्रिम वातावरण और कृत्रिम व्यवहार सिखाने वाले लोग पस्त कर देते हैं और वह अपने मौलिक गुणों को खो बैठता है।’
दूसरे विद्यार्थियों ने बताया -‘सर, भोपाल के चिडि़याघर में भेडि़या भी है, मोर, लोमड़ी, बगुले, तरह-तरह की चिडि़या, तोते, अजगर, मगर, घडि़याल और साँप भी हैं।’
मैं कहता हूँ -‘बच्चों, चिडि़याघर की सैर जरूर करो। बार-बार जाओ तुम्हारा मनोरंजन होगा और ज्ञानवर्द्धन भी। वहाँ के घडि़यालों और मगरमच्छों का सूक्ष्म निरीक्षण करो। तुम्हें मालूम होगा कि वे मजे से मुर्गियों को डकारते रहते हैं और झूठे आँसू बहाया करते हैं। उनके ऐसे आँसुओं को घडि़याली आँसू कहते हैं। तुमने कहानी पढ़ी होगी कि लोमड़ी यह कहकर भाग जाती है कि अंगूर खट्टे हैं पर चिडि़याघर की लोमड़ी कुर्सी पर चढ़कर अंगूर खा लेती है और उसे भरपूर मीठे अंगूर खाते रहने की आदत होती है। भेडि़या और मेमने की कथा तुम्हें वहाँ प्रत्यक्ष देखने मिल सकती है जिसमें भेडि़या मेमने पर दोषारोपण कर उसे खा जाता है कि तूने नही ंतो तेरे बाप ने मुझे गाली दी थी। अजगर पड़े-पड़े खाते और मुटाते रहते हैं जिनके बारे में संत मलूकदास का यह दोहा याद कर लो -
अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम
दास मलूका कह गये सबके दाता राम।
दिल्ली सहित कई नगरों के चिडि़याघरों में हाथी और गैंडे भी रखे जाते हैं। वहाँ हाथी कैसे मजे में मीठे-मीठे गन्ने, जो सरकारी बजट के होते हैं, खाते रहते हैं और ठठेरा दूसरों की ओर फेंकते रहते हैं। मीठा-मीठा गप और कड़वा-कड़वा थू कहावत वहीं देखने मिलेगी तुम्हें। अच्छा बताओ, सफेद हाथी का देश किसे कहते हैं ?’
एक छात्र बताता है, ‘सर, भारत को।’
उत्तर सुनकर मन ही मन मैं चमत्कृत होता हूँ। सोचता हूँ यह कबीर का वंशज है। अंखियन देखी बात कहता है, पर मैं तो अध्यापक हूँ। मुझे किताब में लिखी बात बतानी चाहिए। सो बताता हूँ -‘नहीं, भारत को नहीं, थाईलैंड को सफेद हाथियों का देश कहते हैं।’
तभी एक दूसरा छात्र बताता है -‘सर, मुझे तो चिडि़याघर में सबसे खूबसूरत चिडि़या लगी। कैसे-कैसे प्यारे तोते वहाँ हैं। मोर, बतखें, बगुले कितने मन को मोहते हैं। छोटी-छोटी चिडि़यों का रंग-बिरंगापन, उनका उड़ना, चीं-चींकर चहकना, फुदक-फुदक कर बिखरे दाने चुगना सब आनंद से भर देते हैं। सर, कभी-कभी मैं सोचता हूँ काश ! अगर मैं भी चिडि़या होता तो यह कितना बढि़या होता।’ उसकी बात सुनकर सब छात्र हँस पड़ते हैं।
पर मुझे उस छात्र में कवि होने के कीटाणु नजर आने लगते हैं। मुस्करा कर कहता हूँ -‘हाँ बेटे, अगर तुम चिडि़या होते तो तोते के समान समस्याओं से आँखें फेर लेते, बगुला भगत बन मजे से मछलियाँ निगलते और गाँधीवादी बने रहते, पर तुम कवि बन सकते हो, चिडि़या पर कविताएँ लिख सकते हो। तुमने देखा है कि कितनी मस्ती से चिडि़याघर की चिडि़या सरकारी दाने चुगती हैं और इतराती हैं। तुम भी वे सब दाने चुग सकोगे, पुरस्कृत भी होते रहोगे। तुम्हारी कविताओं की सरकारी खरीद हो सकेगी, तुम्हें सरकारी मंच चहकने के लिए मिलते रहेंगे। अर्जुन के समान चिडि़या को लक्ष्य में रखो, नाम और दाम कमा लोगे।’ मैंने देखा कि वह छात्र चिडि़या जैसा फूलकर मेरी बातें सुन रहा था।
घंटा बज गया था। चिडि़याघर ने मुझे पूरा अवसर दे दिया था कि छात्रों को प्रसंग और संदर्भ सहित कुछ समझा सकूँ। विद्यार्थी तो खुश थे ही, मैं भी सुख अनुभव कर सका था।
तो चिडि़याघर ऐसी अपार संभावनाओं का उपक्रम है। जो खोले सो निहाल। हर नगर निगम का प्रथम और आखिरी दायित्व चिडि़याघर की स्थापना ही होना चाहिए, क्योंकि चिडि़याघर की स्थापना की घोषणा के साथ ही नगर निगम गरमागरम चर्चा का केंद्र बन जायेगा। नागरिक यह भूल जायेंगे कि उनकी सड़कों पर कितने गड्ढे हैं, कितने गटर खुले रहते हैं। कितनी गंदगी और कितने मच्छर-मक्खी नागरिकों की नींद हराम करते हैं। गंदी बस्तियाँ और झुग्गी-झोपडि़याँ कितनी बदसूरती का बोझ उठाए विस्तृत हो रही हैं। ऐसी अनेक ज्वलंत समस्याएँ बिना फायर ब्रिग्रेड की व्यवस्था के ही अपने-आप बुझ जायेंगी और चिडि़याघर नागरिकों को जगते-सोते आँखों में बना रहेगा।
चिडि़याघर द्रौपदी का स्वयंवर बन जाएगा और महापौर यानी निगमाध्यक्ष अर्जुन के समान मत्स्य वेधकर सत्ता सुख की द्रौपदी का उपभोग करता रह सकेगा। नगर और नगर निगम में चर्चा का विषय रहेंगे कि चिडि़याघर कहाँ, किसकी, कितनी जमीन में बन रहा है। कौन-कौन से जानवर, पक्षी मँगाए जा रहे हैं, किस पर कितना खर्च हो रहा है ? कौन-सा जानवर, चिडि़या आई, कौन-सी रह गई ? किस सजग पार्षद ने किस जानवर के लिए प्रस्ताव रखा और किस जानवर के लिए प्रस्ताव पास नहीं होने दिया। कौन-सा पार्षद किस-किस चिडि़या के लिए दहाड़ा और कौन शेर के लिए मिमियाता दिखा ?
फिर जानवरों की मौत, दुबला होना, खाद्य सामग्री और दवाइयों में भ्रष्टाचार आदि कितने अनगिनत मसले रहेंगे चर्चाओं के लिए, इन सब कवायदों से चिडि़याघर आसानी से उभरकर आयेगा।
सो भैया, चिडि़याघर की स्थापना नगर निगमों के लिए अत्यंत लाभप्रद उपक्रम है। मेरी तो मंशा है, हर नगर निगम और नगरपालिका अपने-अपने नगर में चिडि़याघर स्थापित करे और अपना पुनर्जन्म सफल करे।

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