"प्रजातंत्र की परम्परा"/ हरिकृष्ण तैलंग
// सौ जन-आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले इंद्र को प्रधान मानकर सत्ता की बागडोर उन्हें थमा दी गई। उन्होंने अपना मंत्रिमंडल बनाया और शासन के विभागों का बँटवारा कर दिया। सत्ताधारी बनते ही इंद्र का अखाड़ा जमने लगा। अप्सराएँ उनके चारों ओर मँडराने लगीं। गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर उन्हें रिझाने में जुट गए। सत्ता की कृपा के आकांक्षी अनेक ऋषि इंद्र की स्तुति में ऋचाएँ रचने लगे। नारदों ने इंद्र का यश लोकभर में फैलाना आरंभ कर दिया। इंद्र की नाट्यशाला में तरह-तरह के नाटकों का नित्य प्रदर्शन होने लगा। विदूषकों की बन आई। इंद्र दरबार के वे अब शक्तिशाली पार्षद थे। //
साहित्यकार पिता से जिज्ञासु पुत्र ने पूछा -‘पिताजी, बरसात के समय मेढ़क इतना क्यों टरटराते हैं ?’
पिता ने बताया -‘बेटा, देवराज इंद्र को पानी बरसाने की याद दिलाने के लिए।’
बेटे ने पूछा -‘इसकी कोई कथा है क्या, पिताजी ?’
‘हाँ, है बेटा। सुनोगे ?’ कहकर पिता कहानी सुनाने लगा -
प्राचीन काल में लंबे जनसंघर्ष और लाखों लोगों के बलिदानों के बाद सत्ता जनता को सौंप दी गई। सत्ता पाकर जनता खुशी से झूम उठी। अब उसका चिरकाल का सपना मूर्त होगा। न कोई दीन रहेगा, न दरिद्री। शोषण, अन्याय, अज्ञान, भेदभाव और रोग समूल नष्ट हो जाएंगे। सब सुखी होंगे, सब राजा होंगे। परस्पर प्रेम करते हुए सब अपने-अपने कर्त्तव्यों के पालन में रत रहेंगे। शासन जन-जन के द्वार जायेगा।
पर सभी तो राजकाज नहीं देख सकते थे, इसलिए जनता ने अपने बीच से कुछ लोगों को राजकाज चलाने के लिए चुना। सौ जन-आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले इंद्र को प्रधान मानकर सत्ता की बागडोर उन्हें थमा दी गई। उन्होंने अपना मंत्रिमंडल बनाया और शासन के विभागों का बँटवारा कर दिया। सत्ताधारी बनते ही इंद्र का अखाड़ा जमने लगा। अप्सराएँ उनके चारों ओर मँडराने लगीं। गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर उन्हें रिझाने में जुट गए। सत्ता की कृपा के आकांक्षी अनेक ऋषि इंद्र की स्तुति में ऋचाएँ रचने लगे। नारदों ने इंद्र का यश लोकभर में फैलाना आरंभ कर दिया। इंद्र की नाट्यशाला में तरह-तरह के नाटकों का नित्य प्रदर्शन होने लगा। विदूषकों की बन आई। इंद्र दरबार के वे अब शक्तिशाली पार्षद थे। सोमरस से भरे चषक वे इंद्र दरबार को अर्पित करते रहते। यह आलम देखकर सृजन-स्वभावी ब्रह्मलोक में आकर बस गए। पालनकर्ता विष्णु श्री सहित क्षीरसागर में जाकर सो गये। कल्याणकारी शिव ने अन्नपूर्णा सहित संन्यास ले लिया और कैलाश पर पहुँच कर समाधि लगा ली। सरस्वती विलुप्त हो गई।
वसंत का समापन हुआ। ग्रीष्म आया। उसका ताप प्रखर होने लगा। जेठ में असह्य गर्मी से सारी सृष्टि झुलसने लगी। सब आकाश की ओर देखने लगे। अब बादल आयेंगे। जल बरसायेंगे। प्यासी धरती तृप्त हो, हरी-भरी हो उठेगी। मोर नाचेंगे और चिडि़या चहचहायेंगी। पर यह क्या हो रहा है ? आँखें फाड़कर देखते-देखते आषाढ़ बीत गया। सावन के कितने ही दिन सूखे निकल गए। आकाश में बादल तो छाते, गहराते, कभी-कभी बिजली भी कौंध जाती पर छुटपुट बूँदों के अलावा धरती को कुछ न मिला।
मनुष्यों ने सोचा, पशु-पक्षियों ने सोचा, वृक्षों, नदी-नालों और पहाड़ों ने भी सोचा -यह कैसा अपना राज्य है ? कैसे हमारे सत्ताधारी हैं ? वे समय पर पानी भी नहीं बरसा रहे। आखिर आगे की फसलों का क्या होगा ? चलो, इंद्र के पास चलें। हमने ही उन्हें सत्ता सौंपी है। प्रशासन को पहले से चुस्त, कुशल और गतिमान बनाने के लिए ही अपने प्रतिनिधि हमने शासन में भेजे हैं, न कि इसलिए कि हमारी सुरक्षा और समृद्धि ही खतरे में पड़ जाये। आखिर यह कैसी जनहितकारी कुशलता है कि पानी के लिए भी हमें आकाश की ओर देखते रहना पड़ रहा है ? चलो, चलो। सब राजधानी चलो। इंद्र के महल को घेर लो और उनसे जवाब तलब करो।
भीड़ उमड़ पड़ी। वह राजधानी जा पहुँची। उसने इंद्र का महल घेर लिया। इंद्र भवन के आसपास पुलिस की सख्त व्यवस्था थी। चतुर पुलिस को पहले ही पता चल गया था कि बहुत बड़ी भीड़ भवन को घेरने वाली है इसलिए उसने अच्छी घेराबंदी कर ली थी। जब भीड़ भवन के विशाल फाटक से भीतर घुसने लगी तो पुलिस अफसरों ने टोका -‘कहाँ जाते हो ?’
भीड़ बोली -‘हम जनता हैं। अपने प्रतिनिधि इंद्र के पास आए हैं उन्हें कर्तव्य बोध कराने। हमने क्या इसलिए उन्हें सत्ता सौंपी है कि वे समय पर पानी भी न बरसायें ? जाओ, उन्हें खबर करो कि जनता आई है। वह आकर अपने आकाओं से मिलें।’
इंद्र भवन के आसपास तैनात अफसर समझदार थे। शिष्ट भी थे। बोले -‘ठीक है, आप सभी आराम से विराजिए। हम माननीय इंद्र महोदय को सूचना भिजवाते हैं।’
भीड़ के अगुए अफसरों की विनम्रता से प्रभावित हुए। उन्हें अच्छा लगा, बोले -‘अच्छी बात है, हम यहीं बगीचे में उनकी प्रतीक्षा कर लेंगे।’ भीड़ इधर-उधर बँट गई। जगह-जगह गोल घेरे में लोग-बाग बैठ गए।
कुछ देर बाद इंद्र भवन का पब्लिक रिलेशन आॅफिसर आया। नम्रता से झुककर बोला -‘भाइयों, आप लोगों में से चार-पाँच आदमी माननीय इंद्र जी से बात करियेगा। वे जल्दी ही यहाँ आने वाले हैं। जनता की सेवा में वह दो-दो बजे रात तक व्यस्त रहते हैं। अभी भी बेहद जरूरी काम-काज निपटाने में जुटे हैं।’
भीड़ ने दस-बारह अगुए तय कर लिए। काफी समय इसमें बीत गया। बहुत-से लोग ऊबने लगे। तभी महल से वित्त मंत्री निकले। फिर गृहमंत्री यमराज निकले। फिर उद्योग मंत्री विश्वकर्मा और प्रचार मंत्री नारद जी निकले। गंधर्व और किन्नर गण भी अपने-अपने वाद्य यंत्रों को सँभाले बाहर चले गए। और अंत मे सजी-धजी पर कुम्हलाई उर्वशी, रंभा, चित्रलेखा आदि अप्सराएँ निकलीं। विनय भाव से वे सब भीड़ को नमस्कार कर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो चलते बने।
कुछ देर बाद ‘अनाउंसमेंट’ हुआ और इंद्र बाहर आते दिखे। साथ में कृषि और जल मंत्री वरुण जी थे। रात भर के जागरण से म्लान मुख पर मुस्कराहट लाकर, दोनों हाथ जोड़ उन्होंने भीड़ का अभिवादन किया और बोले -’अहोभाग्य हमारे ! जनता जनार्दन के दर्शन कर रहा हूँ। जब से आप लोगों ने राजकाज की यह झंझट सौंपी है, मैं चाहकर भी आप लोगों के बीच नहीं रह पाता। इसका बड़ा दुःख और कष्ट है मुझे, पर जनता ने जो दायित्व मुझे सौंपा है उसे सामर्थ्य भर निभाता रहूँ, यह मेरा कर्तव्य है। कहिए, आप लोग जनराज्य में कुशल मंगल और आनंद से तो हैं ?’
भीड़ के अगुए ने कहा -‘काहे का कुशल मंगल और कैसा आनंद ? माननीय महोदय, आषाढ़ कोरा निकल गया है और सावन के इतने दिनों में कभी-कभी बिजली भर कौंधी है, पानी गिरा ही नहीं। आखिर फसलें कैसे होंगी ? क्या पीयेंगे हम लोग ? भला पानी ऋतु आते ही क्यों नहीं बरसाया गया मान्यवर ? आपकी सरकार क्या कर रही है ?’
यह सुनकर इंद्र ने वरुण की ओर देखा। वरुण जी बोले -‘सरकार पूरी तत्परता से जनता की कठिनाइयों पर नजर रख रही है। मेरे मंत्रालय को अभी तक पानी न बरसने की कोई सूचना नहीं मिली थी। जनता का कोई ज्ञापन भी मंत्रालय को प्राप्त नहीं हुआ है। अनुचर मेघ अपने-अपने मंडल में बराबर दौरे पर जा रहे हैं। उन्होंने भी पानी न बरसने की कोई रिपोर्ट सरकार के पास नहीं भेजी। पर आज जनता स्वयं आयी है इसलिए हो सकता है, अनुचरों ने अपना कर्त्तव्य न निभाया हो। जाँच करवाकर, शीघ्र ही उचित कार्यवाही सरकार करेगी श्रीमान।’
इंद्र वरुण का वक्तव्य सुनकर बोले -‘यह खेद की बात है कि जनराज्य में अभी भी नौकरशाही की जड़ें मजबूत हैं। यह जनता का राज्य है। अनुचरों को अपना रवैया बदलना चाहिए। खैर, जनता की शिकायत पर दोषी अनुचरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी।’
वरुणजी, अभी जल सचिव को आदेश भेजिए कि हर मेघ मंडलाधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में जल बरसाये।’ फिर इंद्र जनता को संबोधित करते हुए बोले -‘भाइयों, हमने कठिन संघर्ष और बलिदानों के बाद स्वराज्य पाया है। यह जनता का राज्य है, जनता के द्वारा है और जनता के लिए है। आप लोगों को यह अधिकार है कि आप अपने प्रतिनिधियों को जन कल्याण के लिए मजबूर कर दें। हम जनता जनार्दन के सेवक हैं। आपके आदेशों का पालन करेंगे। जब भी हम गफलत करें, हमें दिशा दिखाइए। गल्ती करें, आकर हमारा कान पकड़ लीजिए। जनता का यह दायित्व है कि वह अपने प्रतिनिधियों पर नजर रखे और उन्हें भटकने न दे। आप लोग अपनी मांगें बराबर सरकार तक पहुँचाते रहिए और जोरदार स्वरों में ताकि सरकार कर्त्तव्य पथ पर बनी रहे।’
तभी ड्राइवर शानदार रथ लेकर पास आकर खड़ा हो गया। इंद्र ने वरुण सहित उसमें प्रवेश किया, फिर दोनों हाथ जोड़ लिए। रथ वायु गति से आगे बढ़ गया। अब भीड़ इस मसले पर विचार करने लगी कि सरकार के सामने जनता की मांगों को कौन प्रस्तुत किया करेंगे ? कौन वर्ग यह दायित्व उठाने को तैयार है ?
सबसे पहले वृक्षों से पूछा गया कि क्या वे इस जनहितकारी दायित्व को उठायेंगे ? वृक्षों ने कुछ सोचकर उत्तर दिया -‘भाइयों, हम प्रकृति से बँधे हैं अतः असमर्थ हैं। चलना-फिरना हमारा स्वभाव नहीं है। बड़ी कठिनाई से इस बार आप लोगों के साथ आए हैं। हमें रोज अपनी जीवन रक्षा के लिए धरती से, हवा से तत्व ग्रहण करने पड़ते हैं। समय पर फूलना-फलना पड़ता है। यदि यह न करें तो हमारी संतति ही नष्ट हो जायेगी। फिर हम वाचाल भी नहीं हैं कि मांगें जोरदार शब्दों में प्रस्तुत कर सकें इसलिए हमें क्षमा किया जाये।’
नदी-नालों से कहा गया तो वे बोले -‘हम वैसे ही गर्मी में क्षीण हो जाते हैं। नित्य प्रवाह हमारा धर्म है। इंद्र के राजभवन में कौन घंटों बैठा रहेगा ? हमें तो माफी दी जाये ?’
पशुओं ने भी इंकार करते हुए कहा -‘हमें अपने भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है। फिर हमारे पास वह भाषा कहाँ है जो हम मांगों के लिए प्रयुक्त करें ? बेहतर होगा कि किन्हीं और को यह जिम्मेदारी सौंपिये ?’
पक्षियों से कहा गया तो उन्होंने तर्क दिया -‘न भैया, हमें अपने जात भाइयों के पकाये जाने की गंध आ रही थी इंद्र भवन से। हमें अकेले अगर वहाँ जाना पड़ा तो पता नहीं कितने वापिस आ पायेंगे। फिर हमारे दाना-पानी का ठिकाना कौन करेगा, हम संग्रह तो करते नहीं।’
तब मनुष्यों ने कहा -‘यह दायित्व हम निभा सकते हैं पर सभी मांगें हम ही प्रस्तुत किया करें यह उचित न होगा इसलिए दूसरे वर्गों में से किसी को कोई एक दायित्व उठाना चाहिए।’
यह बात सुनकर मेढ़क सामने आये और बोले -‘जल बरसाने की मांग हम करेंगे। इंद्र को यथा समय यह याद दिला दिया करेंगे कि वह पानी बरसायें। यह दायित्व हमारा।’
मेढ़कों की बात सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। जल ही तो जीवन है। यह मांग पूरी होती रहे तो शेष सभी कुछ पूरा हो जायेगा। सारी भीड़ खुशियाँ मनाती अपने-अपने स्थानों को लौट गई।
तब से जेठ की गर्मी जैसे ही असह्य हो उठती है और इंद्र के अनुचर मेघ दौरे पर निकलते हैं, मेढ़क यत्र-तत्र सर्वत्र ‘टर्र टर्र’ टर्राने लगते हैं। इंद्र तब वरुण से कहते हैं -‘पानी बरसाओ, पानी बरसाओ।’ वरुण मेघों को जल बरसाने का आदेश देते हैं। पानी बरसने लगता है। पर मेढ़क टर्राते ही रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं उनकी टर्राहट बंद हुई तो मेघ पानी बरसाना बंद न कर दें क्योंकि जब मांग ही नहीं तो उसकी पूर्ति कौन करेगा ? जब पर्याप्त पानी बरस जाता है तब मेढ़क टर्राना बंद कर देते हैं और पानी बरसना बंद हो जाता है। तब हम मनुष्य कहते हैं -बरसात खत्म हो गई।
बेटा, यह कथा है मेढ़क के लगातार बरसात भर टरटराने की। बड़ा हितकारी दायित्व निभाते हैं मेढ़क। अगर वे न टर्राएँ तो इंद्र पानी ही न बरसायें।’ साहित्यकार पिता ने कथा पूरी की।
‘अजीब मजाक है पिताजी, मेढ़कों की टर्र-टर्र सुनकर ही इंद्र को पानी बरसाने की याद आती है।’ जिज्ञासु बेटे ने आश्चर्य व्यक्त किया।
‘हमारे देश में प्राचीनकाल से प्रजातंत्र की यही परंपरा है, बेटा।’ साहित्यकार पिता ने भरत वाक्य कहा।
पिता ने बताया -‘बेटा, देवराज इंद्र को पानी बरसाने की याद दिलाने के लिए।’
बेटे ने पूछा -‘इसकी कोई कथा है क्या, पिताजी ?’
‘हाँ, है बेटा। सुनोगे ?’ कहकर पिता कहानी सुनाने लगा -
प्राचीन काल में लंबे जनसंघर्ष और लाखों लोगों के बलिदानों के बाद सत्ता जनता को सौंप दी गई। सत्ता पाकर जनता खुशी से झूम उठी। अब उसका चिरकाल का सपना मूर्त होगा। न कोई दीन रहेगा, न दरिद्री। शोषण, अन्याय, अज्ञान, भेदभाव और रोग समूल नष्ट हो जाएंगे। सब सुखी होंगे, सब राजा होंगे। परस्पर प्रेम करते हुए सब अपने-अपने कर्त्तव्यों के पालन में रत रहेंगे। शासन जन-जन के द्वार जायेगा।
पर सभी तो राजकाज नहीं देख सकते थे, इसलिए जनता ने अपने बीच से कुछ लोगों को राजकाज चलाने के लिए चुना। सौ जन-आंदोलनों का नेतृत्व करने वाले इंद्र को प्रधान मानकर सत्ता की बागडोर उन्हें थमा दी गई। उन्होंने अपना मंत्रिमंडल बनाया और शासन के विभागों का बँटवारा कर दिया। सत्ताधारी बनते ही इंद्र का अखाड़ा जमने लगा। अप्सराएँ उनके चारों ओर मँडराने लगीं। गंधर्व और किन्नर अपनी-अपनी कलाएँ प्रदर्शित कर उन्हें रिझाने में जुट गए। सत्ता की कृपा के आकांक्षी अनेक ऋषि इंद्र की स्तुति में ऋचाएँ रचने लगे। नारदों ने इंद्र का यश लोकभर में फैलाना आरंभ कर दिया। इंद्र की नाट्यशाला में तरह-तरह के नाटकों का नित्य प्रदर्शन होने लगा। विदूषकों की बन आई। इंद्र दरबार के वे अब शक्तिशाली पार्षद थे। सोमरस से भरे चषक वे इंद्र दरबार को अर्पित करते रहते। यह आलम देखकर सृजन-स्वभावी ब्रह्मलोक में आकर बस गए। पालनकर्ता विष्णु श्री सहित क्षीरसागर में जाकर सो गये। कल्याणकारी शिव ने अन्नपूर्णा सहित संन्यास ले लिया और कैलाश पर पहुँच कर समाधि लगा ली। सरस्वती विलुप्त हो गई।
वसंत का समापन हुआ। ग्रीष्म आया। उसका ताप प्रखर होने लगा। जेठ में असह्य गर्मी से सारी सृष्टि झुलसने लगी। सब आकाश की ओर देखने लगे। अब बादल आयेंगे। जल बरसायेंगे। प्यासी धरती तृप्त हो, हरी-भरी हो उठेगी। मोर नाचेंगे और चिडि़या चहचहायेंगी। पर यह क्या हो रहा है ? आँखें फाड़कर देखते-देखते आषाढ़ बीत गया। सावन के कितने ही दिन सूखे निकल गए। आकाश में बादल तो छाते, गहराते, कभी-कभी बिजली भी कौंध जाती पर छुटपुट बूँदों के अलावा धरती को कुछ न मिला।
मनुष्यों ने सोचा, पशु-पक्षियों ने सोचा, वृक्षों, नदी-नालों और पहाड़ों ने भी सोचा -यह कैसा अपना राज्य है ? कैसे हमारे सत्ताधारी हैं ? वे समय पर पानी भी नहीं बरसा रहे। आखिर आगे की फसलों का क्या होगा ? चलो, इंद्र के पास चलें। हमने ही उन्हें सत्ता सौंपी है। प्रशासन को पहले से चुस्त, कुशल और गतिमान बनाने के लिए ही अपने प्रतिनिधि हमने शासन में भेजे हैं, न कि इसलिए कि हमारी सुरक्षा और समृद्धि ही खतरे में पड़ जाये। आखिर यह कैसी जनहितकारी कुशलता है कि पानी के लिए भी हमें आकाश की ओर देखते रहना पड़ रहा है ? चलो, चलो। सब राजधानी चलो। इंद्र के महल को घेर लो और उनसे जवाब तलब करो।
भीड़ उमड़ पड़ी। वह राजधानी जा पहुँची। उसने इंद्र का महल घेर लिया। इंद्र भवन के आसपास पुलिस की सख्त व्यवस्था थी। चतुर पुलिस को पहले ही पता चल गया था कि बहुत बड़ी भीड़ भवन को घेरने वाली है इसलिए उसने अच्छी घेराबंदी कर ली थी। जब भीड़ भवन के विशाल फाटक से भीतर घुसने लगी तो पुलिस अफसरों ने टोका -‘कहाँ जाते हो ?’
भीड़ बोली -‘हम जनता हैं। अपने प्रतिनिधि इंद्र के पास आए हैं उन्हें कर्तव्य बोध कराने। हमने क्या इसलिए उन्हें सत्ता सौंपी है कि वे समय पर पानी भी न बरसायें ? जाओ, उन्हें खबर करो कि जनता आई है। वह आकर अपने आकाओं से मिलें।’
इंद्र भवन के आसपास तैनात अफसर समझदार थे। शिष्ट भी थे। बोले -‘ठीक है, आप सभी आराम से विराजिए। हम माननीय इंद्र महोदय को सूचना भिजवाते हैं।’
भीड़ के अगुए अफसरों की विनम्रता से प्रभावित हुए। उन्हें अच्छा लगा, बोले -‘अच्छी बात है, हम यहीं बगीचे में उनकी प्रतीक्षा कर लेंगे।’ भीड़ इधर-उधर बँट गई। जगह-जगह गोल घेरे में लोग-बाग बैठ गए।
कुछ देर बाद इंद्र भवन का पब्लिक रिलेशन आॅफिसर आया। नम्रता से झुककर बोला -‘भाइयों, आप लोगों में से चार-पाँच आदमी माननीय इंद्र जी से बात करियेगा। वे जल्दी ही यहाँ आने वाले हैं। जनता की सेवा में वह दो-दो बजे रात तक व्यस्त रहते हैं। अभी भी बेहद जरूरी काम-काज निपटाने में जुटे हैं।’
भीड़ ने दस-बारह अगुए तय कर लिए। काफी समय इसमें बीत गया। बहुत-से लोग ऊबने लगे। तभी महल से वित्त मंत्री निकले। फिर गृहमंत्री यमराज निकले। फिर उद्योग मंत्री विश्वकर्मा और प्रचार मंत्री नारद जी निकले। गंधर्व और किन्नर गण भी अपने-अपने वाद्य यंत्रों को सँभाले बाहर चले गए। और अंत मे सजी-धजी पर कुम्हलाई उर्वशी, रंभा, चित्रलेखा आदि अप्सराएँ निकलीं। विनय भाव से वे सब भीड़ को नमस्कार कर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो चलते बने।
कुछ देर बाद ‘अनाउंसमेंट’ हुआ और इंद्र बाहर आते दिखे। साथ में कृषि और जल मंत्री वरुण जी थे। रात भर के जागरण से म्लान मुख पर मुस्कराहट लाकर, दोनों हाथ जोड़ उन्होंने भीड़ का अभिवादन किया और बोले -’अहोभाग्य हमारे ! जनता जनार्दन के दर्शन कर रहा हूँ। जब से आप लोगों ने राजकाज की यह झंझट सौंपी है, मैं चाहकर भी आप लोगों के बीच नहीं रह पाता। इसका बड़ा दुःख और कष्ट है मुझे, पर जनता ने जो दायित्व मुझे सौंपा है उसे सामर्थ्य भर निभाता रहूँ, यह मेरा कर्तव्य है। कहिए, आप लोग जनराज्य में कुशल मंगल और आनंद से तो हैं ?’
भीड़ के अगुए ने कहा -‘काहे का कुशल मंगल और कैसा आनंद ? माननीय महोदय, आषाढ़ कोरा निकल गया है और सावन के इतने दिनों में कभी-कभी बिजली भर कौंधी है, पानी गिरा ही नहीं। आखिर फसलें कैसे होंगी ? क्या पीयेंगे हम लोग ? भला पानी ऋतु आते ही क्यों नहीं बरसाया गया मान्यवर ? आपकी सरकार क्या कर रही है ?’
यह सुनकर इंद्र ने वरुण की ओर देखा। वरुण जी बोले -‘सरकार पूरी तत्परता से जनता की कठिनाइयों पर नजर रख रही है। मेरे मंत्रालय को अभी तक पानी न बरसने की कोई सूचना नहीं मिली थी। जनता का कोई ज्ञापन भी मंत्रालय को प्राप्त नहीं हुआ है। अनुचर मेघ अपने-अपने मंडल में बराबर दौरे पर जा रहे हैं। उन्होंने भी पानी न बरसने की कोई रिपोर्ट सरकार के पास नहीं भेजी। पर आज जनता स्वयं आयी है इसलिए हो सकता है, अनुचरों ने अपना कर्त्तव्य न निभाया हो। जाँच करवाकर, शीघ्र ही उचित कार्यवाही सरकार करेगी श्रीमान।’
इंद्र वरुण का वक्तव्य सुनकर बोले -‘यह खेद की बात है कि जनराज्य में अभी भी नौकरशाही की जड़ें मजबूत हैं। यह जनता का राज्य है। अनुचरों को अपना रवैया बदलना चाहिए। खैर, जनता की शिकायत पर दोषी अनुचरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जायेगी।’
वरुणजी, अभी जल सचिव को आदेश भेजिए कि हर मेघ मंडलाधिकारी अपने-अपने क्षेत्र में जल बरसाये।’ फिर इंद्र जनता को संबोधित करते हुए बोले -‘भाइयों, हमने कठिन संघर्ष और बलिदानों के बाद स्वराज्य पाया है। यह जनता का राज्य है, जनता के द्वारा है और जनता के लिए है। आप लोगों को यह अधिकार है कि आप अपने प्रतिनिधियों को जन कल्याण के लिए मजबूर कर दें। हम जनता जनार्दन के सेवक हैं। आपके आदेशों का पालन करेंगे। जब भी हम गफलत करें, हमें दिशा दिखाइए। गल्ती करें, आकर हमारा कान पकड़ लीजिए। जनता का यह दायित्व है कि वह अपने प्रतिनिधियों पर नजर रखे और उन्हें भटकने न दे। आप लोग अपनी मांगें बराबर सरकार तक पहुँचाते रहिए और जोरदार स्वरों में ताकि सरकार कर्त्तव्य पथ पर बनी रहे।’
तभी ड्राइवर शानदार रथ लेकर पास आकर खड़ा हो गया। इंद्र ने वरुण सहित उसमें प्रवेश किया, फिर दोनों हाथ जोड़ लिए। रथ वायु गति से आगे बढ़ गया। अब भीड़ इस मसले पर विचार करने लगी कि सरकार के सामने जनता की मांगों को कौन प्रस्तुत किया करेंगे ? कौन वर्ग यह दायित्व उठाने को तैयार है ?
सबसे पहले वृक्षों से पूछा गया कि क्या वे इस जनहितकारी दायित्व को उठायेंगे ? वृक्षों ने कुछ सोचकर उत्तर दिया -‘भाइयों, हम प्रकृति से बँधे हैं अतः असमर्थ हैं। चलना-फिरना हमारा स्वभाव नहीं है। बड़ी कठिनाई से इस बार आप लोगों के साथ आए हैं। हमें रोज अपनी जीवन रक्षा के लिए धरती से, हवा से तत्व ग्रहण करने पड़ते हैं। समय पर फूलना-फलना पड़ता है। यदि यह न करें तो हमारी संतति ही नष्ट हो जायेगी। फिर हम वाचाल भी नहीं हैं कि मांगें जोरदार शब्दों में प्रस्तुत कर सकें इसलिए हमें क्षमा किया जाये।’
नदी-नालों से कहा गया तो वे बोले -‘हम वैसे ही गर्मी में क्षीण हो जाते हैं। नित्य प्रवाह हमारा धर्म है। इंद्र के राजभवन में कौन घंटों बैठा रहेगा ? हमें तो माफी दी जाये ?’
पशुओं ने भी इंकार करते हुए कहा -‘हमें अपने भोजन के लिए इधर-उधर भटकना पड़ता है। फिर हमारे पास वह भाषा कहाँ है जो हम मांगों के लिए प्रयुक्त करें ? बेहतर होगा कि किन्हीं और को यह जिम्मेदारी सौंपिये ?’
पक्षियों से कहा गया तो उन्होंने तर्क दिया -‘न भैया, हमें अपने जात भाइयों के पकाये जाने की गंध आ रही थी इंद्र भवन से। हमें अकेले अगर वहाँ जाना पड़ा तो पता नहीं कितने वापिस आ पायेंगे। फिर हमारे दाना-पानी का ठिकाना कौन करेगा, हम संग्रह तो करते नहीं।’
तब मनुष्यों ने कहा -‘यह दायित्व हम निभा सकते हैं पर सभी मांगें हम ही प्रस्तुत किया करें यह उचित न होगा इसलिए दूसरे वर्गों में से किसी को कोई एक दायित्व उठाना चाहिए।’
यह बात सुनकर मेढ़क सामने आये और बोले -‘जल बरसाने की मांग हम करेंगे। इंद्र को यथा समय यह याद दिला दिया करेंगे कि वह पानी बरसायें। यह दायित्व हमारा।’
मेढ़कों की बात सुनकर सब बड़े प्रसन्न हुए। जल ही तो जीवन है। यह मांग पूरी होती रहे तो शेष सभी कुछ पूरा हो जायेगा। सारी भीड़ खुशियाँ मनाती अपने-अपने स्थानों को लौट गई।
तब से जेठ की गर्मी जैसे ही असह्य हो उठती है और इंद्र के अनुचर मेघ दौरे पर निकलते हैं, मेढ़क यत्र-तत्र सर्वत्र ‘टर्र टर्र’ टर्राने लगते हैं। इंद्र तब वरुण से कहते हैं -‘पानी बरसाओ, पानी बरसाओ।’ वरुण मेघों को जल बरसाने का आदेश देते हैं। पानी बरसने लगता है। पर मेढ़क टर्राते ही रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं उनकी टर्राहट बंद हुई तो मेघ पानी बरसाना बंद न कर दें क्योंकि जब मांग ही नहीं तो उसकी पूर्ति कौन करेगा ? जब पर्याप्त पानी बरस जाता है तब मेढ़क टर्राना बंद कर देते हैं और पानी बरसना बंद हो जाता है। तब हम मनुष्य कहते हैं -बरसात खत्म हो गई।
बेटा, यह कथा है मेढ़क के लगातार बरसात भर टरटराने की। बड़ा हितकारी दायित्व निभाते हैं मेढ़क। अगर वे न टर्राएँ तो इंद्र पानी ही न बरसायें।’ साहित्यकार पिता ने कथा पूरी की।
‘अजीब मजाक है पिताजी, मेढ़कों की टर्र-टर्र सुनकर ही इंद्र को पानी बरसाने की याद आती है।’ जिज्ञासु बेटे ने आश्चर्य व्यक्त किया।
‘हमारे देश में प्राचीनकाल से प्रजातंत्र की यही परंपरा है, बेटा।’ साहित्यकार पिता ने भरत वाक्य कहा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें