कुत्ता पालक कालोनी
(हिंदी दिवस, 14 सितंबर 2014 को देह दान करनेवाले वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग की स्मृति स्वरूप प्रस्तुत है उनका लिखा एक और व्यंग्य "कुत्ता पालक कालोनी" जो बरसों पूर्व देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित समाचार पत्र "नवभारत टाइम्स" में छपा था और इसी शीर्षक से "किताबघर' (नई दिल्ली) ने व्यंग्य पुस्तक प्रकाशित की थी)
// कुत्ता-संस्कृति इस कदर पूरे संसार में छा गई कि हर देश उसका दीवाना बन रहा है। आज सारे संसार में जितने शौक से कुत्ते पाले जाते हैं, उतने शौक से बच्चे नहीं पाले जाते। ‘कुत्तों से प्यार करो और बच्चे पैदा करने से नफरत करो’, यह अधिकांश देशों का नारा बन चुका है। जितने शानदार ढंग से अब कुत्ते पाले जा रहे हैं उसे देखकर आदमी के बच्चे खुद पैदा होने में शर्म खाने लगे हैं। माँ-बाप जबर्दस्ती उन्हें पैदा होने के लिए मजबूर कर दें, यह बात दूसरी है। //
पश्चिमी देशों में कुत्ता पालना आम रिवाज है। बूढ़े माँ-बाप वृद्धगृहों या होटलों में रहते हैं, पर कुत्ता महाशय बड़े नाज-नखरों से घर की शोभा बढ़ाया करते हैं। कुत्ता पालन पश्चिमी संस्कृति का अविभाज्य अंग है। एक विशिष्ट कुत्ता संस्कृति उन देशों में फल-फूल रही है।
तरह-तरह के कुत्तों पर कुत्ता पालक पश्चिमी देश आज जितना धन खर्च कर रहे हैं, उतने धन से, एक अनुमान के अनुसार, एक पंच वर्षीय महायुद्ध आसानी से लड़ा जा सकता है। भारत की तो दो पंच वर्षीय योजनाएँ इस तरह चलाई जा सकती हैं कि भारत विकसित देशों का सिरमौर देश बन सकता है। कुत्ता पालन का यह उच्च स्तरीय शौक पश्चिमी देशों को तब से लगा जबसे उन्होंने संसार के अन्य देशों में कालोनियाँ बसाना आरंभ किया था। कालोनियाँ बसाकर साहब लोग पहला काम उस देश के लोगों को कालोनी से दूर रखने का करते थे और दूसरा काम कुत्ता पालने का। इस दूसरे काम में कुत्तों की बढि़या नस्लें तैयार करने की कुशलता भी शामिल थी। अच्छी बढि़या नस्ल का कुत्ता उसे माना जाता जो अपने पालक को देखते ही पूँछ हिलाता पर दूसरों को देखकर भौं-भौं कर गुर्राता।
कुत्ता पालना और उसकी एक से बढ़ कर एक नस्लें तैयार करना किसी जमाने में पश्चिमी देशों का सर्वाधिक लाभ वाला धंधा था जिसका उन्होंने सभी पूर्वी देशों में निर्यात कर भारी मुनाफा कमाया। समय की करवट ने उनके कुत्ता पालन उद्योग के एकाधिकार को सिमटा दिया पर कुत्ता-संस्कृति इस कदर पूरे संसार में छा गई कि हर देश उसका दीवाना बन रहा है। आज सारे संसार में जितने शौक से कुत्ते पाले जाते हैं, उतने शौक से बच्चे नहीं पाले जाते। ‘कुत्तों से प्यार करो और बच्चे पैदा करने से नफरत करो’, यह अधिकांश देशों का नारा बन चुका है। जितने शानदार ढंग से अब कुत्ते पाले जा रहे हैं उसे देखकर आदमी के बच्चे खुद पैदा होने में शर्म खाने लगे हैं। माँ-बाप जबर्दस्ती उन्हें पैदा होने के लिए मजबूर कर दें, यह बात दूसरी है।
हमारे इस पुरातन पवित्र देश में पंच वर्षीय योजनाओं के फलस्वरूप हर नगर-कस्बे में नई-नई कालोनियाँ बसती जा रही हैं। कालोनियों की विशिष्ट संस्कृति कुत्ता पालन भी उसी तेजी से विस्तार पा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम पश्चिमी देशों को इस क्षेत्र में पछाड़ देंगे और संसार में सीना फुलाकर रहेंगे।
मैं जिस कालोनी में रहता हूँ, वह राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी मानी जाती है। सर्वश्रेष्ठता का प्रमाण यह है कि इस कालोनी में अगर कोई अपनी कन्या विवाहना चाहता है तो उसे सामान्य दहेज बाजार भाव से पाँच-छह लाख रुपये अधिक दहेज देना पड़ सकता है। कन्या का पिता यह भी चाहता है कि समधी जी अपने पुत्र को इस कालोनी अथवा नगर में अवश्य नौकरी दिलाकर अथवा ट्रांसफर कराकर बसा लेगा ताकि वह छाती फुलाकर कह सके कि उसका दामाद राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी का बाशिंदा है। ऐसी सुनियोजित गरिमामयी कालोनी का निवासी बनना पूर्व जन्मों के पुण्यों अथवा वर्तमान जीवन की चतुराइयों का परिणाम है। जो बस गया, धन्य है। जो नहीं बस पाया वह इसके विस्तार में अपनी जगह बनाने के गंभीर प्रयत्न में लगा है और इसके लिए उपयुक्त धंधों में जुटा हुआ है।
इधर आठ-दस वर्षों में कालोनी का जिस तरह विस्तार हो रहा है, उसी तरह कुत्ता पालने के शौक का भी निरंतर विस्तार हो रहा है। पहले लोग गुपचुप कुत्ता पाल लिया करते थे पर अब बाकायदा ‘इनविटेशन’ बँटते हैं। पार्टी होती है और कुत्ते को पट्टा बाँधने के लिए वीआईपी बुलाया जाता है। हफ्तों नए कुत्ते महोदय की चर्चा चलती है और ‘हाउस वाइव्स’ अपने-अपने ‘डाॅगी’ की तुलना, आलोचना करने में दोपहर गुजारती हैं। बड़ी बढि़या और चटाखेदार चर्चा का केंद्र होता है नया कुत्ता।
जिन मकानों में कुत्ते पल रहे हैं उन शानदार मकानों के कलात्मक गेटों पर एक तख्ती टँगी रहती है, जिसमें अंग्रेजी में लिखा रहता है -‘कत्तों से सावधान’। वह तख्ती उन कुत्ता पालक की गरिमा को तो बढ़ाती ही है, उनकी भलमनसाहत का भी सबूत होती है जो हर आदमी को कुत्ते से सावधान करती है। सड़क पर चलता हुआ आदमी तख्ती पढ़कर सावधान हो जाता है। उसकी जानकारी बढ़ जाती है कि ‘साहब’ के कुत्ते से सावधान रहना चाहिए। वह खतरनाक है, नहीं भी हो तो हो सकता है। कितने जनहित चिंतक होते हैं कुत्ता पालक। गाय, घोड़े, भैंस, गधे या बिल्ली पालने वाला कोई भी तो ऐसी तख्ती नहीं टाँगता।
पर मेरी चिंताएँ कुछ दूसरी हैं। कुत्ते से सावधान वाली तख्ती पढ़कर अक्सर मैं चिंताग्रस्त हो जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि कुत्ता पालक को दूसरों की चिंता तो बराबर सताती है, पर क्या वे यह जानते हैं कि अंग्रेजी में लिखी उनकी तख्ती नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए व्यर्थ होती है। उन्हें यह जानकारी नहीं मिल पाती कि तख्ती कुत्तों से सावधान कर रही है। ऐसे बहुत-से लोग तख्ती को बंगले में रहनेवाले साहब के नाम की तख्ती समझते हैं।
पर मेरा चिंतन आगे बढ़ता है। मैं सोचने लगता हूँ कि ऐसे जनहित चिंतक महानुभावों का कुत्ता खतरनाक क्यों है ? क्यों उन्हें अपने कुत्ते से हर आदमी को सावधान करने की आवश्यकता पड़ती है ? क्या वे ऐसा कुत्ता नहीं पाल सकते जो खतरनाक के बजाय सौम्य और शिष्ट हो ? क्या वे ऐसी तख्ती नहीं लटका सकते जिसमें लिखा हो -‘कुत्ता दर्शनीय है। बेखटके आइए और कुत्ते से मुलाकात कीजिए’।
पर कुत्ता पालक का कुत्ता तो खतरनाक है, अन्यथा वह तख्ती लटका कर हर आम और खास आदमियों को उससे सावधान होने की सूचना देने की जहमत क्यों उठाते ? वे तो एक महानता निभा रहे हैं। ऐसी महानता जैसी हर महान आदमी आम आदमियों को भिन्न-भिन्न पचासों खतरों से सावधान करने की उठाता आ रहा है, साम्प्रदायिकता से सावधान, विरोधी राजनीतिज्ञों से सावधान, देश के दुश्मनों से सावधान, रोगों से सावधान, बाढ़-सूखे से सावधान, चोर-डाकुओं, ठगों से सावधान, यहाँ तक कि हर विवाह के समय शुभ मंगल से सावधान और उसी तरह कुत्ते से सावधान। पर हर आदमी इतनी अधिक सावधानियाँ दुनिया भर के झंझटों के बीच कैसे बनाए रख सकता है ? वह कहीं न कहीं, कभी न कभी फिसल ही जाता है और ‘फैमिली प्लानिंग’ की सावधानी की विफलता के समान बच्चा रूपी खतरा पैदा कर ही लेता है। फिर भी यह अच्छा है कि सावधानी की शिक्षा देनेवाली तख्तियाँ मुस्तैदी से लटकाई जाती रहें। कुत्ता पालक इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझता है और अपना फर्ज निभा रहा है।
मैं आगे सोचता हूँ कि कुत्ता पालक तो अपना फर्ज मुस्तैदी से निभा रहा है पर कोई भला आदमी उसके यहाँ सावधान होकर क्यों जाना चाहता है ? कुत्ता आगंतुक को देखकर रौद्र मुद्रा में भौं-भौं करता उछल रहा हो। कुत्ता पालक आगंतुक की आवाज से नहीं कुत्ते के भौंकने से बाहर आते हों। पहले कुत्ते से बोलते हों फिर आगंतुक की ओर लक्ष्य करते हों। वहाँ जाने में क्या तुक है ? आप घबराए-से पालक महोदय के पीछे सिमटे बढ़ रहे हों, कुत्ता पालक के लिए तो पूँछ हिला रहा हो और आप पर गुर्रा रहा हो। बार-बार आपका दिल धड़क उठता हो पर चेहरे पर आधा इंच मुस्कान खिलाकर आपको कुत्ते की सेहत और सुंदरता की तारीफ में चंद शब्द कहने पड़ते हों। अजीब बेहूदी स्थिति होती है उन क्षणों की। पर ऐसे कितने ही लोग हैं जो ‘कुत्ते से सावधान’ वाली तख्ती टँगे गेट पर खड़े-खड़े कुत्ते की भौं-भौं के बीच कुत्ता पालक का इंतजार करते दिखाई देते हैं।
तुलसीदास ने कहा है -
आवत ही हरशत नहीं, नैनन नहीं सनेह
तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे मेह।
मुझे पक्का पता नहीं कि तुलसी ने यह दोहा कुत्ता पालक के लिए कहा था कि उस कुत्ते के लिए जो अपनी श्वान मुद्रा पर भौं-भौं वाला रौद्र भाव लिए आगंतुक पर उछलता, लपकता है। पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि दूसरी पंक्ति वहाँ जाने के लिए निषेध करती है जहाँ कुत्ते से सावधान वाली तख्ती टँगी हो।
आप कभी अपना उषा काल बिगाड़ कर कालोनी की चौड़ी सड़कों पर उतर जाइए तो जितने रिटायर्ड राजनीतिज्ञ, ऊँचे अफसर, बूढ़े सेठ-साहूकार, ठेकेदार, दलाल अपने साथ अपना-अपना कुत्ता और अपनी-अपनी बूढ़ी पत्नी लिए घूमते दिखाई दे जायेंगे। वे कुत्ते को घुमाने निकलते हैं या अपनी पत्नी को, यह साफ मालूम नहीं पड़ता। अगर आप उनसे पाँच-सात कदम आगे-पीछे चलें तो साफ सुन सकते हैं कि वे दो तरह की बातें बतियाते चलते हैं। एक तो रिटायरमेंट के पहले पाले कुत्तों के चाल-चलन और उनके अजूबे करतबों के बारे में, दूसरे अपने अफसर बेटे और फैशनेबुल, खर्चीली बहू की अजीब आदत-व्यवहारों के बारे में। दरअसल प्रातः भ्रमण के वे क्षण उन बूढ़ों के अतीव सुखद क्षण होते हैं जिनमें वे मिल्क बूथ से दो-तीन पैकेट भी लेकर बेटों-बहुओं के घर पहुँचते हैं जो बनवाया उनका होता है। एक भूतपूर्व कुत्ता पालक की दुखद कथा मुझे सुनने मिली। कथा यह है, वह कुत्ता पालक एक बढि़या नस्ल के कुत्ते को कुछ वर्षों पूर्व पाले हुए थे। उनका एकमात्र पुत्र इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ रहा था जिसके साथ रिटायरमेंट के बाद रहने का सुखद सपना वह देखा करते थे। लड़का होस्टल में रहता और कुत्ता उनके पास। कुत्ते पर वह अपना सारा लाड़-दुलार लुटाते। उसके साथ खाना खाते, काॅफी पीते, बढि़या बिस्कुट खिलाते और कभी-कभी अपने पलंग पर सो जाने की इजाजत तक दे देते। मतलब यह कि कुत्ते को अपने बेटे जैसा प्यार करते थे, पर वह कुत्ता वफादार नहीं निकला। उनके कथानुसार कुत्ता, ‘कुत्ता कुल कलंक’ था।
हुआ यह था कि वह कुत्ता बगल के बंगले वाली कुतिया से आशनाई कर बैठा। कुछ दिनों बाद कुतिया के पालक अफसर को दूर सिविल लाइंस में बंगला अलाॅट हो गया और वह अपनी कुतिया के साथ सिविल लाइन शिफ्ट हो गए। कुत्ता मजनू के समान अपनी लैला कुतिया के लिए चक्कर काटने लगा। साहब ने देखा कि कुत्ता खानदानी और बढि़या नस्ल का है तो उन्होंने उसके लिए बंगले का गेट खोल दिया। मजनू लैला से मिला और घर जमाई-सा उस बंगले में ही बस गया। पूर्व कुत्ता पालक टापते रह गए।
इधर लायक बेटे ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। लगे हाथ सुंदर बहू और ऊँची नौकरी भी मिल गई। पर नौकरी मिली दूर के नगर में। वह जब से वहाँ अपनी पत्नी के साथ गया तो माँ-बाप को बुलाने का नाम ही नहीं लेता। रिटायर्ड माँ-बाप अपने सपने धूल में मिलते कई वर्षों से देख रहे हैं। अब वह भूतपूर्व कुत्ता पालक महोदय अपने बेवफा कुत्ते और नालायक बेटे को एक जैसी गालियाँ दिया करते हैं। यह सही है कि ऐसे कुत्ता पालक अपवाद हैं हमारी कालोनी में, पर मैं फिर सोचता हूँ कि कहीं बेवफा कुत्तों और नालायक बेटों की बाढ़ अगले दस-बीस वर्षों में हर कालोनी में न फैल जाये। मुझे विक्टर ह्यूगो का कथन याद हो आता है -‘ज्यों-त्यों मैं आदमी का अध्ययन करता हूँ, त्यों-त्यों मुझे कुत्तों से प्यार होता जा रहा है’। और मैं वर्तमान तथा भविष्य पर सोचने लगता हूँ।
तरह-तरह के कुत्तों पर कुत्ता पालक पश्चिमी देश आज जितना धन खर्च कर रहे हैं, उतने धन से, एक अनुमान के अनुसार, एक पंच वर्षीय महायुद्ध आसानी से लड़ा जा सकता है। भारत की तो दो पंच वर्षीय योजनाएँ इस तरह चलाई जा सकती हैं कि भारत विकसित देशों का सिरमौर देश बन सकता है। कुत्ता पालन का यह उच्च स्तरीय शौक पश्चिमी देशों को तब से लगा जबसे उन्होंने संसार के अन्य देशों में कालोनियाँ बसाना आरंभ किया था। कालोनियाँ बसाकर साहब लोग पहला काम उस देश के लोगों को कालोनी से दूर रखने का करते थे और दूसरा काम कुत्ता पालने का। इस दूसरे काम में कुत्तों की बढि़या नस्लें तैयार करने की कुशलता भी शामिल थी। अच्छी बढि़या नस्ल का कुत्ता उसे माना जाता जो अपने पालक को देखते ही पूँछ हिलाता पर दूसरों को देखकर भौं-भौं कर गुर्राता।
कुत्ता पालना और उसकी एक से बढ़ कर एक नस्लें तैयार करना किसी जमाने में पश्चिमी देशों का सर्वाधिक लाभ वाला धंधा था जिसका उन्होंने सभी पूर्वी देशों में निर्यात कर भारी मुनाफा कमाया। समय की करवट ने उनके कुत्ता पालन उद्योग के एकाधिकार को सिमटा दिया पर कुत्ता-संस्कृति इस कदर पूरे संसार में छा गई कि हर देश उसका दीवाना बन रहा है। आज सारे संसार में जितने शौक से कुत्ते पाले जाते हैं, उतने शौक से बच्चे नहीं पाले जाते। ‘कुत्तों से प्यार करो और बच्चे पैदा करने से नफरत करो’, यह अधिकांश देशों का नारा बन चुका है। जितने शानदार ढंग से अब कुत्ते पाले जा रहे हैं उसे देखकर आदमी के बच्चे खुद पैदा होने में शर्म खाने लगे हैं। माँ-बाप जबर्दस्ती उन्हें पैदा होने के लिए मजबूर कर दें, यह बात दूसरी है।
हमारे इस पुरातन पवित्र देश में पंच वर्षीय योजनाओं के फलस्वरूप हर नगर-कस्बे में नई-नई कालोनियाँ बसती जा रही हैं। कालोनियों की विशिष्ट संस्कृति कुत्ता पालन भी उसी तेजी से विस्तार पा रही है। अगर यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम पश्चिमी देशों को इस क्षेत्र में पछाड़ देंगे और संसार में सीना फुलाकर रहेंगे।
मैं जिस कालोनी में रहता हूँ, वह राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी मानी जाती है। सर्वश्रेष्ठता का प्रमाण यह है कि इस कालोनी में अगर कोई अपनी कन्या विवाहना चाहता है तो उसे सामान्य दहेज बाजार भाव से पाँच-छह लाख रुपये अधिक दहेज देना पड़ सकता है। कन्या का पिता यह भी चाहता है कि समधी जी अपने पुत्र को इस कालोनी अथवा नगर में अवश्य नौकरी दिलाकर अथवा ट्रांसफर कराकर बसा लेगा ताकि वह छाती फुलाकर कह सके कि उसका दामाद राजधानी की सर्वश्रेष्ठ कालोनी का बाशिंदा है। ऐसी सुनियोजित गरिमामयी कालोनी का निवासी बनना पूर्व जन्मों के पुण्यों अथवा वर्तमान जीवन की चतुराइयों का परिणाम है। जो बस गया, धन्य है। जो नहीं बस पाया वह इसके विस्तार में अपनी जगह बनाने के गंभीर प्रयत्न में लगा है और इसके लिए उपयुक्त धंधों में जुटा हुआ है।
इधर आठ-दस वर्षों में कालोनी का जिस तरह विस्तार हो रहा है, उसी तरह कुत्ता पालने के शौक का भी निरंतर विस्तार हो रहा है। पहले लोग गुपचुप कुत्ता पाल लिया करते थे पर अब बाकायदा ‘इनविटेशन’ बँटते हैं। पार्टी होती है और कुत्ते को पट्टा बाँधने के लिए वीआईपी बुलाया जाता है। हफ्तों नए कुत्ते महोदय की चर्चा चलती है और ‘हाउस वाइव्स’ अपने-अपने ‘डाॅगी’ की तुलना, आलोचना करने में दोपहर गुजारती हैं। बड़ी बढि़या और चटाखेदार चर्चा का केंद्र होता है नया कुत्ता।
जिन मकानों में कुत्ते पल रहे हैं उन शानदार मकानों के कलात्मक गेटों पर एक तख्ती टँगी रहती है, जिसमें अंग्रेजी में लिखा रहता है -‘कत्तों से सावधान’। वह तख्ती उन कुत्ता पालक की गरिमा को तो बढ़ाती ही है, उनकी भलमनसाहत का भी सबूत होती है जो हर आदमी को कुत्ते से सावधान करती है। सड़क पर चलता हुआ आदमी तख्ती पढ़कर सावधान हो जाता है। उसकी जानकारी बढ़ जाती है कि ‘साहब’ के कुत्ते से सावधान रहना चाहिए। वह खतरनाक है, नहीं भी हो तो हो सकता है। कितने जनहित चिंतक होते हैं कुत्ता पालक। गाय, घोड़े, भैंस, गधे या बिल्ली पालने वाला कोई भी तो ऐसी तख्ती नहीं टाँगता।
पर मेरी चिंताएँ कुछ दूसरी हैं। कुत्ते से सावधान वाली तख्ती पढ़कर अक्सर मैं चिंताग्रस्त हो जाता हूँ। सोचने लगता हूँ कि कुत्ता पालक को दूसरों की चिंता तो बराबर सताती है, पर क्या वे यह जानते हैं कि अंग्रेजी में लिखी उनकी तख्ती नब्बे प्रतिशत लोगों के लिए व्यर्थ होती है। उन्हें यह जानकारी नहीं मिल पाती कि तख्ती कुत्तों से सावधान कर रही है। ऐसे बहुत-से लोग तख्ती को बंगले में रहनेवाले साहब के नाम की तख्ती समझते हैं।
पर मेरा चिंतन आगे बढ़ता है। मैं सोचने लगता हूँ कि ऐसे जनहित चिंतक महानुभावों का कुत्ता खतरनाक क्यों है ? क्यों उन्हें अपने कुत्ते से हर आदमी को सावधान करने की आवश्यकता पड़ती है ? क्या वे ऐसा कुत्ता नहीं पाल सकते जो खतरनाक के बजाय सौम्य और शिष्ट हो ? क्या वे ऐसी तख्ती नहीं लटका सकते जिसमें लिखा हो -‘कुत्ता दर्शनीय है। बेखटके आइए और कुत्ते से मुलाकात कीजिए’।
पर कुत्ता पालक का कुत्ता तो खतरनाक है, अन्यथा वह तख्ती लटका कर हर आम और खास आदमियों को उससे सावधान होने की सूचना देने की जहमत क्यों उठाते ? वे तो एक महानता निभा रहे हैं। ऐसी महानता जैसी हर महान आदमी आम आदमियों को भिन्न-भिन्न पचासों खतरों से सावधान करने की उठाता आ रहा है, साम्प्रदायिकता से सावधान, विरोधी राजनीतिज्ञों से सावधान, देश के दुश्मनों से सावधान, रोगों से सावधान, बाढ़-सूखे से सावधान, चोर-डाकुओं, ठगों से सावधान, यहाँ तक कि हर विवाह के समय शुभ मंगल से सावधान और उसी तरह कुत्ते से सावधान। पर हर आदमी इतनी अधिक सावधानियाँ दुनिया भर के झंझटों के बीच कैसे बनाए रख सकता है ? वह कहीं न कहीं, कभी न कभी फिसल ही जाता है और ‘फैमिली प्लानिंग’ की सावधानी की विफलता के समान बच्चा रूपी खतरा पैदा कर ही लेता है। फिर भी यह अच्छा है कि सावधानी की शिक्षा देनेवाली तख्तियाँ मुस्तैदी से लटकाई जाती रहें। कुत्ता पालक इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझता है और अपना फर्ज निभा रहा है।
मैं आगे सोचता हूँ कि कुत्ता पालक तो अपना फर्ज मुस्तैदी से निभा रहा है पर कोई भला आदमी उसके यहाँ सावधान होकर क्यों जाना चाहता है ? कुत्ता आगंतुक को देखकर रौद्र मुद्रा में भौं-भौं करता उछल रहा हो। कुत्ता पालक आगंतुक की आवाज से नहीं कुत्ते के भौंकने से बाहर आते हों। पहले कुत्ते से बोलते हों फिर आगंतुक की ओर लक्ष्य करते हों। वहाँ जाने में क्या तुक है ? आप घबराए-से पालक महोदय के पीछे सिमटे बढ़ रहे हों, कुत्ता पालक के लिए तो पूँछ हिला रहा हो और आप पर गुर्रा रहा हो। बार-बार आपका दिल धड़क उठता हो पर चेहरे पर आधा इंच मुस्कान खिलाकर आपको कुत्ते की सेहत और सुंदरता की तारीफ में चंद शब्द कहने पड़ते हों। अजीब बेहूदी स्थिति होती है उन क्षणों की। पर ऐसे कितने ही लोग हैं जो ‘कुत्ते से सावधान’ वाली तख्ती टँगे गेट पर खड़े-खड़े कुत्ते की भौं-भौं के बीच कुत्ता पालक का इंतजार करते दिखाई देते हैं।
तुलसीदास ने कहा है -
आवत ही हरशत नहीं, नैनन नहीं सनेह
तुलसी तहाँ न जाइए कंचन बरसे मेह।
मुझे पक्का पता नहीं कि तुलसी ने यह दोहा कुत्ता पालक के लिए कहा था कि उस कुत्ते के लिए जो अपनी श्वान मुद्रा पर भौं-भौं वाला रौद्र भाव लिए आगंतुक पर उछलता, लपकता है। पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि दूसरी पंक्ति वहाँ जाने के लिए निषेध करती है जहाँ कुत्ते से सावधान वाली तख्ती टँगी हो।
आप कभी अपना उषा काल बिगाड़ कर कालोनी की चौड़ी सड़कों पर उतर जाइए तो जितने रिटायर्ड राजनीतिज्ञ, ऊँचे अफसर, बूढ़े सेठ-साहूकार, ठेकेदार, दलाल अपने साथ अपना-अपना कुत्ता और अपनी-अपनी बूढ़ी पत्नी लिए घूमते दिखाई दे जायेंगे। वे कुत्ते को घुमाने निकलते हैं या अपनी पत्नी को, यह साफ मालूम नहीं पड़ता। अगर आप उनसे पाँच-सात कदम आगे-पीछे चलें तो साफ सुन सकते हैं कि वे दो तरह की बातें बतियाते चलते हैं। एक तो रिटायरमेंट के पहले पाले कुत्तों के चाल-चलन और उनके अजूबे करतबों के बारे में, दूसरे अपने अफसर बेटे और फैशनेबुल, खर्चीली बहू की अजीब आदत-व्यवहारों के बारे में। दरअसल प्रातः भ्रमण के वे क्षण उन बूढ़ों के अतीव सुखद क्षण होते हैं जिनमें वे मिल्क बूथ से दो-तीन पैकेट भी लेकर बेटों-बहुओं के घर पहुँचते हैं जो बनवाया उनका होता है। एक भूतपूर्व कुत्ता पालक की दुखद कथा मुझे सुनने मिली। कथा यह है, वह कुत्ता पालक एक बढि़या नस्ल के कुत्ते को कुछ वर्षों पूर्व पाले हुए थे। उनका एकमात्र पुत्र इंजीनियरिंग काॅलेज में पढ़ रहा था जिसके साथ रिटायरमेंट के बाद रहने का सुखद सपना वह देखा करते थे। लड़का होस्टल में रहता और कुत्ता उनके पास। कुत्ते पर वह अपना सारा लाड़-दुलार लुटाते। उसके साथ खाना खाते, काॅफी पीते, बढि़या बिस्कुट खिलाते और कभी-कभी अपने पलंग पर सो जाने की इजाजत तक दे देते। मतलब यह कि कुत्ते को अपने बेटे जैसा प्यार करते थे, पर वह कुत्ता वफादार नहीं निकला। उनके कथानुसार कुत्ता, ‘कुत्ता कुल कलंक’ था।
हुआ यह था कि वह कुत्ता बगल के बंगले वाली कुतिया से आशनाई कर बैठा। कुछ दिनों बाद कुतिया के पालक अफसर को दूर सिविल लाइंस में बंगला अलाॅट हो गया और वह अपनी कुतिया के साथ सिविल लाइन शिफ्ट हो गए। कुत्ता मजनू के समान अपनी लैला कुतिया के लिए चक्कर काटने लगा। साहब ने देखा कि कुत्ता खानदानी और बढि़या नस्ल का है तो उन्होंने उसके लिए बंगले का गेट खोल दिया। मजनू लैला से मिला और घर जमाई-सा उस बंगले में ही बस गया। पूर्व कुत्ता पालक टापते रह गए।
इधर लायक बेटे ने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। लगे हाथ सुंदर बहू और ऊँची नौकरी भी मिल गई। पर नौकरी मिली दूर के नगर में। वह जब से वहाँ अपनी पत्नी के साथ गया तो माँ-बाप को बुलाने का नाम ही नहीं लेता। रिटायर्ड माँ-बाप अपने सपने धूल में मिलते कई वर्षों से देख रहे हैं। अब वह भूतपूर्व कुत्ता पालक महोदय अपने बेवफा कुत्ते और नालायक बेटे को एक जैसी गालियाँ दिया करते हैं। यह सही है कि ऐसे कुत्ता पालक अपवाद हैं हमारी कालोनी में, पर मैं फिर सोचता हूँ कि कहीं बेवफा कुत्तों और नालायक बेटों की बाढ़ अगले दस-बीस वर्षों में हर कालोनी में न फैल जाये। मुझे विक्टर ह्यूगो का कथन याद हो आता है -‘ज्यों-त्यों मैं आदमी का अध्ययन करता हूँ, त्यों-त्यों मुझे कुत्तों से प्यार होता जा रहा है’। और मैं वर्तमान तथा भविष्य पर सोचने लगता हूँ।
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