सोमवार, 22 दिसंबर 2014

स्मृति शेष श्री हरिकृष्ण तैलंग

स्मृति शेष श्री हरिकृष्ण तैलंग

शब्द शिल्पी का हिंदी दिवस पर देह दान


// ताउम्र हिंदी की सेवा करनेवाले 80 वर्षीय वरिष्ठ रचनाकार श्री हरिकृष्ण तैलंग के 14 सितंबर 2014 को देहावसान पश्चात उनकी अंतिम इच्छानुसार मेडिकल स्टडी और रिसर्च हेतु कोलार रोड, भोपाल स्थित "एलएन मेडिकल काॅलेज एंड रिसर्च सेंटर" में उनकी देह समर्पित कर दी गयी। प्रख्यात डाॅक्टर  डीके सत्पथी देहदाताओं को "आधुनिक दधीची" मानते हैं जिनका मृत शरीर राक्षस रुपी अनगिनत रोगों से लड़ने में अध्धयनरत चिकित्सकों की मदद करेगा।// 
  
‘श्री हरिकृष्ण तैलंग की व्यंग्य रचनाएँ जीवन में व्याप्त छद्म को पकड़ती हैं। उन्होंने बड़ी बारीकी से अपने आसपास की जिंदगी को देखा और समझा है, उसके अंदर मौजूद व्यंग्य को बाहर लाने की सफल कोशिश की है। अपनी रचनाओं में श्री तैलंग ने आज के पाखंड और मानवीय संवेदना के प्रति तथाकथित संभ्रांतता की पोल अच्छी तरह खोली है। वर्तमान, स्नाब सभ्यता को बेनकाब किया है।’ उक्त मान्यता सुपरिचित समीक्षक और शिक्षाविद् रमेश दवे की है। 27 दिसंबर 1934 को राजा बिलहरा (सागर) में जन्मे श्री तैलंग ने रचनात्मक और यशस्वी जीवन जिया और मरणोपरांत मानव शरीर की संरचना और उसकी क्रियात्मक प्रक्रिया समझने हेतु निर्जीव देह को चिकित्सकीय अध्ययन हेतु अर्पित कर उत्कृष्ट प्रेरणा का अनुकरणीय सृजन कर दिया। उल्लेखनीय कि हिंदी की दीर्घ सेवा करनेवाले इस अनूठे रचनाकार ने अपने जीवन की आखिरी सांस भी हिंदी दिवस (14 सितंबर) को ही ली जिसे राष्ट्रभाषा हिंदी का हर साहित्यकार और प्रेमी सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है। 
उन्होंने व्यंग्य पुस्तक "घासचोरी का मुक़दमा" में लिखा, ‘मेरा सरोकार सिर्फ विपक्ष में खड़ा होना है, पक्ष के और विपक्ष के भी। और विपक्ष के भी किसी विपक्ष में, जो बहुतों का पक्ष हो सकता है, पर एक विवेकसंगत तार्किकता और सच होने की अनुभूति के साथ।’ वे चर्चा में अक्सर कहते थे कि सारा संसार दो पक्षों में ही विभक्त नहीं है। संसार भर के लोगों का भाग्य बारह राशियों में नहीं आँका जा सकता। अगर ऐसा ही होता तो अँधेरे में जागता संयमी या विवेकशील क्या कुछ देख पाता ? कबीर भी छाती ठोककर यह नहीं कहते -दोनों ने ही राह नहीं पाई, और, संसार खाने और सोने में मगन है, सिर्फ कबीर ही जागता तथा रोता है।’ 
लेखन का आरंभ यूँ श्री तैलंग ने बाल साहित्य से किया और तब की सर्वश्रेष्ट, बहुपठित बाल पत्रिकाओं -‘पराग’, ‘बालसखा’, ‘नंदन’, ‘बालभारती’ आदि में प्रमुखता से प्रकाशित होकर प्रथम पंक्ति के शीर्षस्थ बाल रचनाकारों में अपनी अमिट छाप गढ़ी, जो अंत तक उनके कृतित्व पर चस्पा रही। नई पीढ़ी के उत्तम चरित्र निर्माण और चहुँमुखी उत्थान में बतौर श्रेष्टतम बाल साहित्यकार उनके साहित्य का अमूल्य योगदान है। बाल मनोविज्ञान के अदभुत, सक्षम और संस्कारशील लेखन के लिए वे प्रतिष्ठित रहे। ‘कुत्तापालक कालोनी’ और ‘घास चोरी का मुकदमा’ शीर्षक व्यंग्य संग्रहों ने उन्हें अग्रणीय व्यंग्यकारों में स्थापित किया। ‘घास चोरी का मुकदमा’ को मप्र साहित्य अकादमी का प्रतिष्ठित "शरद जोशी सम्मान" और मप्र हिंदी साहित्य सम्मलेन का "वागीश्वरी सम्मान" भी प्राप्त हुआ। उनकी मारक और गुदगुदानेवाली व्यंग्य रचनाओं में समकालीन जीवन की विसंगत और विरोधाभासी विडंबनाओं के पैने, चुुटीले विश्लेषण को खूब सराहा। समीक्षक जो गुण लीक से हटकर मानते हैं, वह यह कि व्यंग्य के लिए उन्होंने कहानी, नाटक, उपन्यास, कविता जैसी किसी विधा को माध्यम न बनाकर उसको किस्सगोई या अति नरेटिविज्म से बचाया, इसीलिए उनका व्यंग्य सौ फीसदी खरा, खालिस, टंच व्यंग्य माना गया, दूसरी विधा नहीं। उनके अनुसार, सार्थक व्यंग्य रचना की भाषा रचनात्मक माध्यमों से तरह-तरह के तेवर प्रकट करती है। उन्होंने व्यंग्य को अंग्रेजी शब्द ‘सटायर’ का अनुवाद मात्र नहीं माना। न ही व्यंग्य की तुलना हास्य से करने के हिमायती थे। ‘आयरनी’ शब्द को भी वे व्यंग्य का समानार्थी अथवा पर्यायवाची नहीं मानते थे बल्कि उसे साहित्य की एक संपूर्ण रचनात्मक शैली कहते रहे। विद्वतजन मानते हैं कि आयरनी व्यंग्य से अधिक गंभीर अभिव्यक्ति है। पुरस्कृत व्यंग्य कृति में उन्होंने समर्पण के तहत् जो कटाक्ष -‘बेटियों को, जो औरत बनने के साथ-साथ समाज में व्याप्त बहुविध व्यंग्य की शिकार बने रहने को अभिशप्त रहती हैं’-  किया, वह उनकी संवेदनात्मक और गहरी चिंतन दृष्टि का परिचायक है। पहले व्यंग्य संग्रह "कुत्ता पालक कॉलोनी" में उन्होंने समर्पण में लिखा -‘उनको जो व्यंग्य उपजा रहे हैं’। श्री तैलंग कहा करते थे कि ‘व्यंग्य जिया ज्यादा जा रहा है। लिखा कम जा रहा है। समय की नियति ने सभी रसों में मिलावट कर रखी है। श्रृंगार, करुणा, वात्सल्य आदि की परिणिति अब व्यंग्य होती है। मिलावट समर्थ व्यंग्यकार को नजर आ रही है और वह कचोट खा-खा जाता है। वही कचोट वह रचना में उतार रहा है।’
उनकी राय थी कि ‘सारा समाज स्वर्ण में सारे गुण देख रहा है, जबकि व्यंग्यकार की तीसरी आँख स्वर्ण कलश में भरे जहर को पहचान रही है। सुखिया सब संसार है पर दुखिया अकेला व्यंग्यकार। जब सब खाने-पीने, मौज-मस्ती में दिन और सोने में रात गुजार रहे हैं, व्यंग्यकार जाग रहा है और अँधियारे की बढ़ती कालिमा पर रो रहा है। पर विडंबना यह है कि उसका रोना ‘शिष्ट हास्य’ कहा जा रहा है।’ वे पूरे भरोसे के साथ मानते थे कि ‘जब आजादी के बाद का इतिहास लिखा जायेगा तो इतिहासकार को व्यंग्य साहित्य प्रमाणिक सामग्री मुहैया करेगा। अन्य सामग्री तिथियाँ और नाम जुटाने के काम की भर रहेंगी। व्यंग्यकारों पर ऐसी संभावना का दायित्व है। व्यंग्य लेखन की यही सार्थकता मुझे लगती है, इसलिए विनय है कि व्यंग्यकार को पूरी ईमानदारी और दृढ़ता के साथ पैनी नजर रख कुशल कलम थामे रहना होगा।’     
वे कहते थे -"बढ़ते जा रहे पाखंड की विद्रूपताएँ, विसंगतियाँ सामाजिक आचरण की समरसता को हर जगह भंग, ध्वस्त कर रही हैं, एक सच्चा व्यंग्यकार अपनी पैनी नजर से उन्हीं को सामने रचता है। चूँकि हर वस्तु, घटना, आदमी का चरित्र, कार्यकलाप बहुआयामी हैं, जटिल हैं, उन बहुआयामों, जटिलताओं को परखकर रचनाकार तह तक जाकर असलियत को उभारता है, व्यक्ति, समाज, देश, पर्यावरण आदि की बेहतरी के लिए अपना पक्ष विवेचित करता है।   
श्री तैलंग की कुछ चर्चित पुस्तकें
देश के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में शुमार डाॅ. ज्ञान चतुर्वेदी के अनुसार ‘सामान्य से लगनेवाले, लगभग स्थानीय-से विषयों को व्यापक व्यंग्य का फलक देना, वह भी एकदम सीधी-सहज-सरल भाषा में, बगैर किसी चमत्कारिक शैलीगत प्रयोगों के मगर फिर भी अपने व्यंग्य में एक:बात’ पैदा करना श्री तैलंग की विशेषता रही है। वे आज की पीढ़ी के बहुत-से स्वनामधन्य व्यंग्यकारों को अच्छे व्यंग्य के दो-चार पाठ पढ़ा सकते हैं।’
श्री तैलंग का ‘वे लोग’ परिवार से जीवंत रिश्ता रहा है। बाल साहित्य, नवसाक्षर, प्रौढ़, व्यंग्य आदि विधाओं की उनकी प्रमुख पुस्तकें ‘पतंग बोली’, ‘होली का हौवा’, ‘जूता चर्चा’, ‘बात का बतंगड़’, ‘मेंढक की करामात’, ‘बोलती पुतलियाँ’, ‘वाहन कैसे बने कैसे चले’, ‘हमारा गाँव हमारा देश’, ‘फलों का राजा आम’, ‘प्याज और लहसुन’, ‘पर्यावरण और संतुलित भोजन’, ‘जल: जीवन और जहर’, संस्कृत कथाएँ’, ‘बुद्धचरितम्’ ‘अपंग जिनसे दुनिया दंग’, ‘बकरी के जिद्दी बच्चे’, ‘अच्छे दोस्त बनाओ’, ‘कथाओं में नाचता मोर’ आदि हैं। "नाम एक नगर अनेक" और "नाम एक व्यक्ति अनेक" उनकी प्रकाशनाधीन पुस्तकें हैं। एक लोकप्रिय और श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में भी उनकी पहचान अमिट रही है। 

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