शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

आम आदमी पर बहस: अंतर्कथा/ हरिकृष्ण तैलंग


दिवंगत साहित्यकार की स्मृति में स्थापित प्रथम "श्री हरिकृष्ण तैलंग स्मृति सम्मान" कानपुर के मूर्धन्य बाल साहित्यकार डाॅ. राष्ट्रबंधु और भोपाल के युवा व्यंग्यकार श्री शान्तिलाल जैन को 29 दिसंबर 2014, सोमवार, शाम 4 बजे "मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभागृह (पी.एंड टी. चैराहा, शास्त्री नगर), भोपाल प्रदान किया जाएगा. ज्ञातव्य है, इस माह 27 दिसंबर को वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग की 80वीं सालगिरह है। ईश्वर ने गत हिंदी दिवस, 14 सितंबर 2014 को उन्हें अपने पास बुला लिया परंतु अपनी यादगार रचनाओं के बलबूते स्व. तैलंग हमारे बीच सदैव रहेंगे। "धर्मयुग" में प्रकाशित उनका एक चर्चित व्यंग्य पढ़िए
आम आदमी पर बहस: अंतर्कथा
राजनीति के साथ साहित्य में भी आम आदमी अब खास बन गया है। साहित्य की पुरानी विधाएँ, जो विधवा हो चकी हैं, आदमी के दिल और आँखों से सरोकार रखती थीं। पुराने साहित्य का आदमी अमूमन राजा अथवा अमीरजादा होता था। उसके दिल और जिस्म के दुःख-दर्दों की गाथा और आँसुओं का नमकीनपन इतना जायकेदार होता था कि लाखों लोग उसे दिन में पढ़ते थे (क्योंकि तब बिजली थी नहीं) और अपनी रातें रो-रोकर बिताते थे। जमाना पलटा और सुंदरियों व छैलाओं की जगह आम आदमी आन विराजा। कारण एक यह भी था कि पुरानी सुंदरियाँ सब जूठी हो चुकी थीं। आम आदमी के आर्थिक शोषण और अपमान के सूक्ष्म चित्रण, जो दिल के दर्द से ज्यादा दर्दनाक होते हैं और हो सकते हैं क्योंकि ये रचनाकार के सामर्थ पर निर्भर करते हैं, गहरे आधुनिक बोध में धँसा साहित्यकार अपनी पूरी ताकत से रचनाओं में करने को बाध्य हुआ। अगर आम आदमी के दर्द को उसकी भाषा अभिव्यक्ति देने में असमर्थता जताती है तो वह अश्लील गालियों का इस्तेमाल कर रचना को असरदार बना देता है। दरअसल, यह कोई घटिया सृजन नहीं है क्योंकि आम आदमी और अश्लीलता पर्यायवाची शब्द जो हैं।
पुराने जमाने में साहित्य का प्रणेता राज्य का आश्रय पाता था या कहें, राज्य खुद उसे आश्रय देता था। तब वह बढि़या काव्य कृतियाँ रच देता था या शासन उससे रचवा लेता था। जाहिर है, आज के प्रजातंत्रीय शासन में भी अपने साहित्य कला धर्म को निभाने के लिए आम आदमी, जो राजनेताओं के भाषणों और विज्ञापनों को छोड़कर कहीं नहीं मिला, के बखूबी चित्रण में समर्थ साहित्यकारों द्वारा उस पकड़ में न आनेवाले आम आदमी की तलाश गहरी दिलचस्पी से कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं। 
शासन ऐसे खोजी साहित्यकारों को अकादमियों, विश्वविद्यालयों, सरकारी पत्र-पत्रिकाओं और प्रशासनिक सेवाओं में ऊँचे पद और पुरस्कार मुहैया कर रहा है। उनके साहित्य की अच्छी सरकारी खरीद हो जाती है और उनका शिखर सम्मान जारी रहता है। शासन की मंशा यह है कि चूँकि वह अन्य गंभीर समस्याओं में बेहद व्यस्त रहता है, इसलिए ऐसे साहित्यकार उस आम आदमी को खोजकर उसके रू-ब-रू खड़ा कर सकें जिसके लिए वह बेहद परेशान रहकर -’दीनू का पक्ष शासन का पक्ष है’- के विज्ञापन अकसर अखबारों को रिलीज कर मोटी रकम देता रहता है।
ऐसे उदात्त लक्ष्य से ग्रसित समर्थ साहित्यकार राजधानियों और महानगरों के संत्रास भरे माहौल में कोंडागाँव और दूसरे गाँवों से पदयात्रा करते-करते अपनी मुहिम पर डटे हुए हैं। दरअसल, यह बेहद जरूरी और सुविधाजनक है, क्योंकि आम आदमी बराबर गाँवों से उकता-उकता कर कभी-न-कभी महानगरों, राजधानियों की यात्रा पर निकल ही पड़ता है। अतः जैसे ही वह पकड़ में आया, आनन-फानन वे उसे नजदीक के शासकीय थाने के हवाले कर देंगे।
ऐसी अद्भुत वीरोचित निष्ठा से हमारा साहित्यकार फ्लैटों, बंगलों, मोबाइल, वाइ-फाई, सरकारी गाडि़यों से लैस अपना सामाजिक दायित्व डाकुओं को पकड़नेवाली विशेष पुलिस से कहीं अधिक सतर्कता से निभा रहा है। फिर भी शासन की दोहरी नीति के कारण वह बेचारा शराब और सुंदरियों से विशेष पुलिस की अपेक्षा कहीं अधिक वंचित है। कुछ अधिक संवेदनशील साहित्यकार इस पक्षपात से मन-ही-मन झुँझलाते रहते हैं और शुद्ध देशी के सहारे उसे झेलने की नियति सह रहे हैं। 
ऐसे उत्साही साहित्यकारों ने हर राजधानी और नगर में ऐसी संस्थाएँ गठित कर रखी हैं जो वक्त-बेवक्त साहित्यिक आयोजनों में आम आदमी को हर कोण और गहरे नजरिए से खास-खास आदमियों के रू-ब-रू कराने का महत्वपूर्ण काम करती रहती हैं। वहाँ दीनू और धनिया -जिन्हें शासन विज्ञापित करता रहता है, उन आयोजनों में बराबर शिरकत करते हैं और टेंट गाड़ने, कुर्सियाँ उठाने-धरने, जूठे बर्तन और कप-प्लेटें उठाने का काम बड़ी मुस्तैदी और उम्मीदों से गई रात तक करते रहते हैं। फिर अपनी-अपनी गुदडि़यों में उस नई सुबह के इंतजार में दुबक कर सो जाते हैं, जब उन्हें फिर कुर्सियाँ लादनी पड़ेंगी, बर्तन माँजने पड़ेंगे, कप धोने पड़ेंगे और झाडू़ लगानी पड़ेगी।
राजधानी की साहित्यिक संस्था ‘आम जन साहित्य संघ’ ने भी तय किया कि अब समय आ गया है जब नगर में ‘बीते दशक के साहित्य में आम आदमी की महायात्रा का आंकलन’ विषयक अखिल भारतीय विचार गोष्ठी आयोजित कर लिया जाए। तीन दिन के गहन कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर ली गई। बजट बनाया गया। आम आदमी पर बहस के लिए कम-से-कम दस लाख तो चाहिए ही। पाँचेक लाख शासकीय अनुदान मिल जाए तो बाकी राशि स्मारिका, नवोदित साहित्यकारों, सेठ-साहूकारों और साहित्य प्रेमी अफसरों के सहयोग से जुटा ली जाएगी। शासन पाँच लाख दे ही देगा, क्योंकि वर्तमान पंच वर्षीय योजना में साहित्य, कला और संस्कृति के विकास के लिए शासन ने उतनी राशि रख छोड़ी है जितना किसी एक निगम में वर्ष भर का घाटा होता है या किसी छोटी बाँध परियोजना में सीमेंट का घोटाला हो जाता है या खाद्य निगम महीने में उतना गेहूँ सड़ा डालता है। 
जैसे एक करोड़पति अपने परिवार की प्रौढ़ाओं के लिए सौंदर्य प्रसाधनों पर प्रतिवर्ष व्यय करता है, उसी प्रकार शासन भी अपने अरबपति स्वभाव के अनुरूप कला और साहित्य-संस्कृति मंत्रालय को राशि मुहैया कर देता है। जिस तरह करोड़पति परिवार की प्रौढ़ाएँ अपनी-अपनी पसंद के ब्रांडवाले फेसवाॅश, पाउडर, लेवेंडर, लिपिस्टिक, हेयर डाई, परफ्यूम आदि इस्तेमाल कर अपनी झुर्रियों और दागों को छवि प्रदान करती हैं, वैसे ही शासन का सांस्कृतिक सचिव अपनी पसंद के ब्रांडवाली कला और साहित्य पर बजट की राशि के खर्च द्वारा शासन की छवि निखारे रखता है।
सो साहित्य संघ के पदाधिकारियों ने अपने प्रदेश के प्रबुद्ध संस्कृति सचिव से भेंट कर अनुदान प्राप्त करने का निश्चय किया। संस्कृति सचिव सौभाग्य से कठिन प्रतीकवादी कविता और कला विचारों के लिए विख्यात थे ही। उनकी कृपा से कला और साहित्य प्रदेश में छलाँगे भर रहा था। सचमुच प्रदेश ने तीन चीजों में अखिल भारतीय चमत्कार दिखाए हैं। पहली चीज जंगल, दूसरी संरक्षित जंगली जानवर और तीसरी कलाएँ और साहित्य। ये चीजें बराबर एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं। सच पूछा जाए तो जंगल, जंगली जानवर और साहित्य, विशेषकर गूढ़ प्रतीकवाली कविताएँ, एक ही सिक्के के तीन पहलू हैं। जंगल होंगे तो जंगली जानवर होंगे। जंगली जानवर होंगे तो कविताओं के लिए प्रतीक भरपूर मिलेंगे। हमारी सरकार इस भौतिक सत्य को बखूबी समझती है, तभी उसने तीनों को संरक्षित कर रखा है और तीनों क्षेत्रों में बढ़-चढ़कर कीर्तिमान स्थापित किए हैं। ऐसे अनुकूल अवसर पर पाँच लाख मिलने में कोई खास दिक्कत नहीं आएगी, बशर्ते सचिव महोदय कृपावंत हो जाएँ। 
एक संध्या को संस्था के पदाधिकारीगण संस्कृति सचिव के बँगले पर पहुँचे। उन्हें अपनी योजना बताई। आशीर्वाद और मार्गदर्शन चाहा। फिर विनयावत होकर पाँच लाख के शासकीय अनुदान राशि का प्रार्थना पत्र सेवा में प्रस्तुत किया। इस दौरान सचिव महोदय ने इधर-उधर पाँच-सात फोन किए। अपनी कुतिया को, जो बार-बार आकर खड़ी हो जाती थी, तीन बार सहलाया। गंभीर मुद्रा में दो-तीन अधीनस्थों को जो निजी काम से आए थे, डाँट पिलाई। फिर साहित्य संघ के अध्यक्ष से बोले, आप किन-किन बहसकारों और कवियों को बुला रहे हैं ?’
अध्यक्ष ने एक लिस्ट उनके सम्मुख रखते हुए निवेदन किया, ‘सर, अभी फाइनल तो कुछ भी नहीं किया। फिर भी ये नाम हमें सूझे हैं। कुछ नाम आप भी सुझा दें तो कृपा होगी।’ 
सचिव ने लिस्ट पर नजर फेरी। मुंबई के लोगों के नाम पढ़कर उन्होंने मुँह बिचकाया और अपनी कलम से क्राॅस लगा दिया। दिल्ली के पाँच लोगों पर टिक लगाकर दो नाम और जोड़े। त्रिवेंद्रम और हापुड़वालों के नाम भी लिख दिए। भोपाल के तीन नाम रहने दए, इंदौर-उज्जैन, सागर से भी एक-एक नाम लिखे। तीन-चार नाम और सुझाए और बोले, ‘इन लोगों को भी बुला लीजिए। आप चाहेंगे तो कुछ लोगों को मैं लिख दूँगा।’
‘तब तो बड़ी सुविधा हो जाएगी, सर !’ संस्था के मंत्री प्रफुल्लित हो बाग-बाग हो गए। अनेक फूल, भिन्न-भिन्न जाति के उनके चेहरे पर खिल उठे। अध्यक्ष और मंत्री का अंतरमन समझ गया कि अनुदान मिलने के चांसेस ज्यादा हैं। अपने काँटेदार दाँत निपोरते हुए मंत्री बोले, ‘दरअसल, हम लोग आपके मार्गदर्शन के लिए ही आए हैं। आपके सुझाए नाम तो हमारे दिमाग से उड़ ही गए थे, जिन्हें याद रखना बेहद जरूरी था। सर, हम लोग स्मारिका भी छपवा रहे हैं। अगर दो-तीन विज्ञापन जनसंपर्क विभाग दे दे तो सहूलियत हो जाएगी।’
‘कह दूँगा।’ सचिव ने गंभीर होकर उत्तर दिया।
‘सर, गोल्डी बिटिया अब क्या कर रही है ? हाई स्कूल में थी तब तो बड़ी अच्छी कविताएँ करती थी।’ प्रोफेसर सुमंगलकुमार ने पूछा।
‘आजकल वनस्थली में है। कविता के साथ ही अब उसे कविता और घुड़सवारी का शौक हो गया है। तीनों में अच्छी प्रगति है उसकी। आपने ‘मधुमती’ में उसकी कविता देखी थी क्या ?’ सचिव ने प्रसन्न भाव से प्रोफेसर से पूछा।
‘अच्छा, मधुमती में छपी है उसकी कविता ! आखिर संस्कार कहाँ जाएँगे !’ प्रोफेसर चहकते स्वर में बोले।
‘सर, गोल्डी बिटिया की कुछ कविताएँ और कव्हर पेज के लिए कथक मुद्रा में एक फोटो मँगवा दीजिए न, स्मारिका की शोभा बढ़ जाएगी।’ मंत्रीजी बोल पड़े।
‘कह दूँगा, पर मूडी है वह। देखो ई-मेल करती है कि नहीं।’ सचिव ने कहा।
‘दो-तीन दिन बाद हम आपको याद दिला देंगे, सर। आप कह तो दीजिए ही। अपने नगर के साहित्यिक आयोजन की स्मारिका में अपनी बिटिया की कविताएँ न छपे, यह कैसे हो सकता है ! फिर नए लोगों को तो प्रकाश में आना ही चाहिए।’ अध्यक्ष ने दृढ़ता से कहा और अपनी कार्यकारिणी की ओर देखा। सब सिर हिला उठे थे।
‘सर, आयोजन के विभिन्न सत्रों के उदघाटनकर्ता, अध्यक्ष भी तय करने थे।’ मंत्री ने फिर अपने दाँत बाहर कर पूछा।
‘यह सब फिर। आप मिलते रहिए बीच-बीच में।’ सचिव ने कहा।
‘जी हाँ, जी हाँ। यह सब तो फिर तय हो सकता है। अनुदान स्वीकृत हो जाए तो अधिक चिंता न रहती।’ अध्यक्ष बोले।
‘देखिए, मैं अपनी तरफ से अधिकाधिक अनुदान रिकमंड कर दूँगा, पर भाई मंत्रीजी कितना स्वीकृत करेंगे, कह नहीं सकता। उनसे भी आप लोग मुलाकात कर लीजिए। देखिए, मुख्यमंत्रीजी का भानजा शीलकुमार बड़ा अच्छा चित्रकार है। आप उससे कुछ चित्र स्मारिका के लिए ले लें तो अच्छा रहेगा।’ सचिव ने कारगर सुझाव दिया।
‘अरे वाह, यह तो बढि़या रहेगा ! हम लोग कल-परसों में ही मुख्यमंत्रीजी और संस्कृति मंत्री से मुलाकात कर लेते हैं और शीलकुमारजी से भी विनती कर लेंगे।’ अध्यक्ष चहककर बोले।
चाय आ गई। काली थी, कड़वी थी पर साहित्य संघ के पदाधिकारियों ने उसे बड़े चाव से पिया। अपनी इज्जत हुई समझकर वे परम तुष्ट हुए और सचिव के सुसंस्कृत होने का गहरा अहसास वे करते रहे। चलते समय सब सचिव को हाथ जोड़-जोड़कर बाहर आ गए। उन सबकी मुखमुद्रा मोहक हो उठी थी।
साहित्य संस्थान के पदाधिकारियों ने मुख्यमंत्री और मंत्री से मुलाकात ले ली। शीलकुमारजी से भी विनती कर ली। संस्कृति सचिव से बराबर संपर्क बनाए रहे। गोल्डी बिटिया की कविताएँ और फोटो मिल गए। आयोजन की तिथियाँ नजदीक सरकती आ गईं। स्मारिका छप गईं, जनसंपर्क विभाग ने तीन विज्ञापन और शासन से वांछित अनुदान भी कृपापूर्वक मिल गए थे। 
आम आदमी पर बहस आयोजन के तीन दिवसीय कार्यक्रमों का लब्बोलुआब यह रहा -आमंत्रित बहसकार और कविगण नगर की तीन आलीशान होटल्स में ठहराए गए थे क्योंकि वे सब एक साथ नहीं ठहरना चाहते थे। स्टेशन पर ही इस बात पर विवाद खड़ा हो गया था जो आयोजकों के सिरदर्द का कारण बना। पर चूँकि सिरदर्द की टेबलेट्स उनकी पाॅकेट में थीं, अतः उन्हें गुटक कर और ठंड में भी ठंडा पानी पीकर उन्होंने चतुराई से विवाद टाला और मनचाहे होटलों में मनचाहे साथियों के साथ सबकी व्यवस्था की।
कार्यक्रम का उदघाटन माननीय मुख्यमंत्रीजी ने किया, इसलिए अच्छी-खासी भीड़ और पुलिस की व्यवस्था रही। चंद विद्वानों के भाषण हुए जिनमें आधुनिक साहित्य में आम आदमी के जिक्र की अहमियत पर रोशनी डाली गई। परिचर्चा दूसरे दिन शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में होनी थी, पर वे व्यस्तता के कारण नहीं आए। अतः अध्यक्षता कृषि सचिव ने की। आखिर कल्चर और एग्रीकल्चर एक-दूसरे से काफी साम्य जो रखते हैं। पाँच परचे पढ़े गए और पंद्रह प्रश्नों पर जोरदार झड़पें हुईं। बहसकार परस्पर आरोपों-प्रत्यारोपों में चीखे-चिल्लाए, एक-दूसरे पर गुर्राए। मेजों पर बराबर घूँसे चलते रहे। इस दौरान कुछ गिलास चकनाचूर हुए और कुछ प्लेट्स फूट गईं। उनके टुकड़े दीनू और धनिया ने बड़ी तत्परता से बीने, वरना कइयों के नाजुक पैर और मासूम चेहरे घायल होकर बदसूरत हो सकते थे। ऐसी जोरदार और शानदार बहस की तीस-पैंतीस उपस्थित श्रोताओं ने, जो सचमुच बुद्धिजीवी थे, नगर में खूब चर्चा की, जिससे काॅफी हाउस और हिंदी के प्रोफेसरों के बैठकखाने गरम होते रहे।
आयोजकों ने तनाव कम करने के लिए बहसकारों और कविगणों को नगर के दर्शनीय स्थलों की सैर कराई। नगर की कुछ उदीयमान कवियित्रियाँ भी साथ थीं। इनसे स्थलों की दर्शनीयता बढ़ गई और आपसी तनाव की तुर्शी कम होने में काफी मदद मिली।
उस रात कई बहसकार और कवि अपने-अपने होटलों में देर रात पहुँचे थे। वहाँ उन्होंने फिर दो-दो पैग व्हिस्की के डाले और दिनभर की थकान से चूर-चूर हो फोम के गद्दों पर निढाल हो सो गए थे।
प्रातःकाल नौ बजे की कवि गोष्ठी का आयोजन साढ़े ग्यारह बजे आरंभ हो सका क्योंकि कवियों के अलावा आज दस-बारह श्रोतागण ही थे। फिर भी कवि गोष्ठी हुई और खूब सराही गई। तीन-तीन, चार-चार पेजी कविताएँ कवियों ने सुनाईं और परस्पर खूब वाहवाही की।
दीनू और धनिया, जो बराबर खड़े शिरकत कर रहे थे, को केवल चिडि़या, बाज, लकड़बग्घा, रोटी, गदराए बदनवाली लड़की, सुअर जैसे चंद शब्द ही समझ में आए। आखिर उन्हें कविता समझकर करना भी क्या था ? वे तो इस फिक्र में थे कि साहब लोग जाएँ तो कुर्सियाँ और दरियाँ समेटें। उन्हें एक-दो बार मिनरल वाॅटर और गरम चाय तथा बिस्कुट की प्लेटें भी बाँटनी पड़ी थीं। तीसरे दिन शाम तक होटल खाली हो गए थे। आयोजकों ने होटलों के बिल चुकाए। एक लाख तिरेसठ हजार रुपए देने पड़े थे। बहसकार और कविगण अपना यात्रा व्यय और पारिश्रमिक ले गए। टेंट, बिजली और अन्य व्यवस्थाओं में भी डेढ़ेक लाख रुपए व्यय हुए। प्रेस का बिल तिरेपन हजार सात सौ का था। दीनू व धनिया की पौने चार सौ रुपए मजदूरी बकाया रही जो अभी तक नहीं दी गई है।
दीनू से आयोजक कहते हैं कि स्मारिका के विज्ञापनों का कुछ पैसा अटका पड़ा है, वह मिल जाए तो दीनू व धनिया की बकाया मजदूरी का भुगतान कर दिया जाएगा। दो-तीन हफ्ते भटकने के बाद दीनू और धनिया उन पैसों की उम्मीद ही छोड़ बैठे हैं।

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