गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

हास्य क्या है ? व्यंग्य क्या है ?

हास्य क्या है ? व्यंग्य क्या है ?

//इस माह 27 दिसंबर को वरिष्ठ रचनाकार हरिकृष्ण तैलंग की 80वीं सालगिरह है। ईश्वर ने गत हिंदी दिवस, 14 सितंबर 2014 को उन्हें अपने पास बुला लिया परंतु अपनी यादगार रचनाओं के बलबूते स्व. तैलंग हमारे बीच सदैव रहेंगे। बाल साहित्यकार के साथ ही उन्हें कुशल व्यंग्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठा प्राप्त रही। आम पाठक हास्य और व्यंग्य को लेकर कुछ ‘कन्फ्यूज’ रहता है, इसलिए अनूठे रचनाकार की स्मृति स्वरूप प्रस्तुत है दोनों शैलियों के फर्क और समानता को समझाता उनका लिखा व्यंग्य जो बरसों पूर्व देश के बहुपठित और प्रतिष्ठित पत्रिका "साप्ताहिक हिन्दुस्तान" में छपा था //

सुबह-सुबह एक सज्जन आ गये। बोले -‘एक कारण से कष्ट दे रहा हूँ। बहुत वर्षों से पाठक हूँ, मेरे पिता और स्वर्गीय दादा-परदादा भी अच्छे पाठक थे। मुझ तक वंश परम्परा ने कोई तरक्की नहीं की। अब चाहता हूँ कि मेरी संतान यथास्थिति भंग करे। मेरा कुलभूषण उपाध्याय या आचार्य बन जाये।’
‘इस तरह की वंशोन्नति में मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ? मेरी सिफारिश भला क्या काम आयेगी ?’ मैंने पूछा।
वह बोले -’सिफारिश नहीं, समझाइश चाहता हूँ। बात यह है कि साहित्य की अनेक विधाएँ मुझे अज्ञानी बनने पर विवश कर रही हैं। मैं उनमें अंतर नहीं कर पाता और विद्वानों के सामने मात्र पाठक की हैसियत रखता हूँ। आप मुझे वह ज्ञान दृष्टि दीजिये जिससे मैं किसी साहित्य रचना की नई विशिष्टता पहचान सकूँ।’
मैं सोफे पर उकड़ूं बैठकर बोला -‘आप किन-किन साहित्यिक विधाओं में गड़बड़ा जाते हैं ? किन-किन रचना शैलियों में आपको शंकाएँ उत्पन्न होती हैं ?’
वह शांत भाव से बोले -’कई वर्षों से उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता, प्रगतिवादी, जनवादी, प्रतीकवादी, परम्परावादी, आतंकवादी, अश्लीलतावादी शैलियों आदि में लिखी जा रही हैं, गीत, नवगीत, अगीत का मसला है। कौन-सा गीत कब गीत है, कब और कैसे वह नवगीत हो गाता है, गीत कब अगीत होता है, समझ में नहीं आता।’
मैं बोला -‘भाई, यह सब साहित्य की बारीक बातें हैं। अच्छा होता यदि आप किसी यूनिवर्सिटी के हिंदी प्रोफेसर के पास जाते। वह साहित्य विधाओं का पोस्टमार्टम ज्यादा बारीकी से करते हैं। उनके पास पचासों शास्त्रीय औजार हैं जो विधाओं का रेशा-रेशा अलग करने में सक्षम हैं। वह साहित्यिक बारीकियों को शास्त्रीय ढंग से समझा सकते हैं।’
वह सज्जन तपाक से बोले -‘आदरणीय, पहले मैंने भी यही सोचा था, पर मैं किसी प्राध्यापक के पल्ले नहीं पड़ना चाहता। वह अकेला महारथी मुझ नासमझ अभिमन्यु को जमीन पर खड़ा देख अपने साहित्यशास्त्र के चक्रव्यूह में फँसाकर मेरा दम तोड़ देगा। तब मेरी संतान फिर पाठक की पाठक रह जायेगी। नहीं, नहीं, अगली पीढ़ी के लिए मैं यह संकट मोल लेना नहीं चाहता। फिर प्राध्यापकीय समझ तो शिक्षा सचिव के अनुसार बदलती रहती है। शिक्षा सचिव जिसे कविता कहे, प्राध्यापक उसके साँचे तैयार करता है। कभी-कभी कविता को उसके साँचे सविता और परहिता की तरह इस्तेमाल के लिए रूपायित कर देते हैं। हम जैसे उस परिवर्तनीय शिक्षा सचिवीय समझ को अपने पल्लू में नहीं बाँध पायेंगे। आप ज्यादा अच्छे ढंग से मुझे साहित्यिक समझ ग्रहण करा सकते हैं इसलिए आपकी शरण आया हूँ।’
मैं मन ही मन पुलकित हुआ। आनंदातिरेक से मुझे तुलसीकालीन रोमांच हो आया। बोला -‘आपको यह विश्वास कैसे जमा कि मैं आपको साहित्यिक रचनाओं की आधुनिक बुनावट समझा सकता हूँ ?’
वह बोले -’देखिये, मैं पहले ही बता चुका हूँ कि खानदानी पाठक हूँ। आपकी फोटो समेत संक्षिप्त जीवनी आपकी रचनाओं के साथ कई बार पढ़ चुका हूँ। आप उन्नीस सौ फिफ्टी सिक्स के हिंदी एमए हैं। साहित्य मार्तण्ड, साहित्यचंद्र, साहित्य शिरोमणि की उपाधियाँ देकर साहित्यिक संस्थाएँ धन्य हो चुकी हैं। आप नगर में सर्वाधिक प्रकाशित साहित्यकार हैं। भला आपकी विद्वता में शक कैसे हो सकता है ? आप तो मुझे सबसे पहले हास्य और व्यंग्य में अंतर समझा दीजिये। मैं इन विधाओं की पहचान में गड़बड़ा जाता हूँ।’
मैं आश्वस्त हो गया कि जिज्ञासु की मुझमें पूरी-पूरी आस्था है। पालथी मारकर बैठते हुए मैंने पूछा -’मैं आपको हास्य-व्यंग्य शास्त्रीय शैली में समझाऊँ कि प्रायमरी शैली में ?’
‘आप प्रायमरी शैली में ही समझाइए। बहुत वर्ष हो गये उस शैली से दूर रहते। आह, क्या ढंग था ! सारे अक्षर, शब्द, लिंग भेद के साथ थोड़े ही समय में सीख गया था।’ वह प्रसन्न भाव से बोले।
‘‘इस शैली में मुझे और आपको, दोनों को सहूलियत होगी’, मैंने बोलना षुरु किया -‘तो पाठकजी, हास्य और व्यंग्य दोनों विधाएँ हिंदी साहित्य की भूमि पर इधर कुछ दशकों से खूब फल-फूल रही हैं। अच्छा किसान वह होता है जो मिश्रित खेती करता है अर्थात् गेहूँ के साथ सोयाबीन भी बोता है और अच्छे दाम कमाता है। उसी प्रकार अच्छा संपादक वह है जो अन्य विधाओं के साथ हास्य-व्यंग्य भी छापता है। इससे पत्र-पत्रिकाओं की फसल याने सर्कुलेशन काफी बढ़ जाता है।’
‘पर पाठकों की मुसीबत तो बढ़ जाती है, कौन-सी रचना गेहूँ हैं, कौन-सी सोयाबीन समझ में नहीं आता।’ उन्होंने टोका।
‘भाई, धीरज रखें। सब समझ आ जायेगा’, मैंने कहा -‘अपने कथन को यूरोपीय समाज के उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ। जैसे यूरोपीय महिला कब मिस और मिसेज होती है, समझ पाना सरल नहीं होता। वहाँ तलाक और विवाह इतनी जल्दी-जल्दी होते हैं कि सुबह जो मिसेज थी, शाम की किसी पार्टी में वह मिस हो सकती है। यदि किसी ने अज्ञानवश उसे मिसेज कह दिया तो ‘इडियट’ या ‘डेम फूल’ बनना पड़ सकता है। अगर दूसरे दिन उसे मिस कहा गया तो कहने वाला फिर मुश्किल में पड़ सकता है। वहाँ कोई माँग तो भरी नहीं जाती कि आप कोई स्पष्ट विचार बना सकें। उसी तरह यदि रचना के ऊपर व्यंग्य या हास्य छपा है तो ठीक, वरना पाठक भ्रम में पड़कर अज्ञानी कहला सकता है। जो भ्रमपूर्ण स्थिति यूरोपीय समाज की महिलाओं की है, वही भारतीय समाज में पुरुषों की डिग्रियों के बारे में है। कौन सच्चा "बीए" है और कौन ठीक-ठाक "एमए", इस पर कोई अंतिम निर्णय नहीं दे सकता। इसे भी मैं एक उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ -
एक सज्जन ने नेम प्लेट बनवाई। उसमें नाम के साथ बीए दर्ज था। एक माह बाद उस पट्टिका पर बीए पुतवाकर एमए दर्ज करवा लिया। लोगों ने यह देखा तो पूछा, भाई साहब, ऐसी कौन-सी यूनिवर्सिटी है जो एक माह में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री बख्श देती है ? उन्होंने जवाब दिया -हमारे देश में अनगिनत ऐसे विश्वविद्यालय हैं जो एक माह में क्या एक सप्ताह में एमए करा सकते हैं। "वन डे सिरीज" पढ़कर क्या लोग एमए नहीं हो रहे हैं ? आप लोग यदि संदर्भ और प्रसंग पर नजर रखते तो समझ जाते कि मेरा बीए ‘बेचलर अगेन’ होना था। आप लोग जानते ही हैं कि पत्नी की मृत्यु से मैं पुनः कुँवारा हो गया था। वह तो उन विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कृपा है जो अपने क्षेत्र का व्यापक और गहरा सर्वेक्षण करते हैं और जहाँ कोई बीए उन्हें दिखा वे उसे पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा एमए की डिग्री देने उतावले हो उठते हैं। सो एक कुलपति की नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने मुझे फौरन एमए याने 'मेरिड अगेन' बना दिया। आप स्वयं देखिये, मेरी डिग्री किस श्रेणी की है।
दो क्षणों बाद उनकी ताजी पत्नी भाप उड़ाती चाय लेकर कमरे में दाखिल हुई। सबने देखा, डिग्री प्रथम श्रेणी की थी।
उदाहरणों से मैं समझ गया कि मिस और मिसेज, बीए और एमए भ्रम पैदा करनेवाले शब्द हैं। हास्य और व्यंग्य भी भ्रम पैदा करते हैं। उस भ्रम को भेदने का साहित्यिक बाण दीजिए मुझे’, वह सज्जन बोले।
‘अब मैं उदाहरणों द्वारा आपको हास्य-व्यंग्य समझा रहा हूँ। यह शैली आपको माफिक आती है। देखिये, शरीर में दाँत हास्य का उदाहरण है और जीभ व्यंग्य का। हास्य ठोस होता है, दृश्य होता है और स्पष्ट चमकता है। वह खिलखिलाता है और शोर करता है। व्यंग्य परदे में रहता है, कोमल और लोचदार होता है। सभी तरह के मीठे, खट्टे, कड़वे, चिरपिरे स्वाद की अनुभूति कराता है। व्यंग्य आकारहीन होता है, वाणी और शब्दों की वक्र सार्थकता से पैंतरे बदल-बदलकर वार करता है। वह अंदर तक धँसता चला जाता है पर उसकी गहराई नापी नहीं जा सकती। वह इतनी प्यारी मार करता है कि घायल मुस्कराता रहता है, चमत्कृत-सा होकर वाह-वाह करता है।
हास्य छुरा है, नंगा रहता है, सीधा घुसता है। छुरा घौंपने में कोई कुशलता की दरकार नहीं होती। व्यंग्य तलवार है, मखमली म्यान में रहता है। अपनी वक्रता के अनुसार तिरछी मार करता है, गहराई तक घुसता है और चीर देता है पर उच्च कोटि की निपुणता की माँग करता है।
हास्य नाटकों का विदूषक है। वह अपनी विचित्र वेषभूषा, चुलबुलेपन और बनावटी हरकतों से हास्य पैदा करता है। व्यंग्य नाटकों का राजा होता है। गंभीर रहता है। अनेक रानियाँ रखता है जो एक-दूसरों से जलती तो हैं पर राजा की कृपा चाहती हैं। राजा स्थितियों को उपजाता है और उन स्थितियों का बेमानीपन आपको सोचने-विचारने पर मजबूर कर देता है।
राजनीतिज्ञों में गाँधी एक जबर्दस्त प्रभावशाली व्यंग्य था अपने युग का। एक जीता-जागता, साक्षात् व्यंग्य बनकर ब्रिटिश साम्राज्य के सम्मुख अपनी पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ। ब्रिटिश सम्राट और उसके सभी कारिन्दे गाँधी के व्यंग्य से घायल हो जाते थे। वह उनके सामने अपनी क्षीण काया और अधनंगापन लेकर इस तरह मुस्कराता था कि उसकी छवि बढ़ जाती थी और सामने वालों का पानी उतर जाता था पर फिर भी वे ‘वाह-वाह’ करते थे और सोचने-विचारने को मजबूर हो जाते थे। आज के सारे राजनीतिज्ञों की सादगी, देशभक्ति और जनहित चिंता एक ठहाकेदार हास्य है। सारी जनता देख-देख हँसती तो है पर अंदर-अंदर आहें भी भरती है।
फूलों में गोभी का फूल हास्य है और टेसू का फूल व्यंग्य। व्यंग्य का रंग, रूप, आकार आकर्षक होता है। उसकी वक्रता और सुगंधहीनता व्यंग्य पैदा करती है और विचारणीय होती है। गोभी का फूल किसी को भेंट कीजिए, दर्शक हँस पड़ेंगे। टेसू का फूल भेंट करने पर दर्शकों को उसके प्रतीकार्थ पर विचारों में डूबना-उतरना पड़ेगा। यदि कोई लिखता है ‘मेरी पत्नी सुंदर और समझदार है’ तो यह व्यंग्य वाक्य हुआ। यदि यह लिखा जाये कि ‘मेरी प्रेमिका अथवा साली कुरूप या मूर्ख है’ तो वह हास्य वाक्य हुआ।’
‘हास्य व्यंग्य लेखक की कुशलता पर उदाहरण सहित टिप्पणी करो, इस प्रश्न का क्या उत्तर होगा ?’ पाठकजी ने पूछा।
‘हास्य लेखक शब्दों के बेढंगे प्रयोगों से हास्य उत्पन्न करता है, अतः हास्य के लिए ऊँचे दर्जे की कुशलता की आवश्यकता नहीं होती। व्यंग्य स्थितियों की प्रस्तुति की वक्रता और भंगिमा पर निर्भर करता है, अतः व्यंग्यकार ऊँचे दर्जे का कुशल कलाकार होता है। हास्य लेखक अपने नाम के साथ कोई मजाकिया उपनाम जरूर लगाता है पर व्यंग्यकार अपने नाम और अपनी कुशल क्षमता से ही विख्यात होता है। हास्य हाथी है, गेंडा है पर व्यंग्य चीते-सी चतुरता रखता है। वह कब, कहाँ और कैसे हमला कर देगा, कितनी चपलता से करेगा, कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। हमला करके, गहरे तक घायल करके वह चतुराई से बच निकलेगा अगले शिकार के लिए। ऐसी प्राकृतिक चतुरता, प्रज्ञा का धनी होता है कुशल व्यंग्यकार।’
कुछ क्षण मैं ठहरा। फिर पूछा -‘पाठकजी, अब आप हास्य-व्यंग्य के अंतर को समझ गये होंगे ?’
‘जी हाँ। अच्छी तरह समझ गया। आपका हास्य-व्यंग्य में अंतर समझाना हास्य है और मेरा समझने आना एक व्यंग्य’, कहते हुए पाठकजी उठ खड़े हुए और बगैर नमस्कार कर चलते बने।

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