व्यंग्य "घासचोरी का मुकदमा"/ हरिकृष्ण तैलंग
प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा इसी शीर्षक से प्रकाशित व्यंग्य संग्रह को मप्र साहित्य अकादमी का शरद जोशी सम्मान और मप्र हिंदी साहित्य सम्मलेन का वागीश्वरी सम्मान मिला था.
// मंत्री जी उषाकाल में अपनी बढि़या घास की फसल के बीच घूम रहे थे कि उन्हें दिखाई दिया कि पाँच-सात बित्ते जमीन की घास गायब है। एक-एक बित्ता घास उनकी नजरों में थी। एक एक तिनके से उन्हें मोह था, पर यहाँ तो सैकड़ों तिनके गायब हो चुके थे। पूरा प्रदेश और देश भले ही कोई चर जाये पर अपने बंगले की अपनी घास कोई चर ले तो कैसे सहा जा सकता है ! मंत्री जी कभी भी इतने नहीं तमतमाये थे, चाहे उनके विभाग में कितने ही भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हुए हों, कितनी ही महत्वपूर्ण फाइलें गायब हुई हों, हजारों पुराने मसले निपटने के लिए पड़े हों, प्रदेश में कितने ही डाकू लूट और हत्याएँ कर रहे हों, कितने ही मासूम बच्चों-बच्चियों का अपहरण हुआ हो, कितनी युवतियों के साथ बलात्कार होकर उनकी हत्या कर दी गई हे, यहाँ तक कि एक मंत्री के बंगले की चट्टान पर ही युवती की सिरकटी लाश पाई गई हो, वह सदा शांत भावी बने रहे, कतई विचलित नहीं हुए। तपे-तपाये गाँधीवादी और परम्परागत अहिंसा के हामी जो थे। पर यह तो मामला ही कुछ दूसरा था।//
मंत्री के बंगले में बढि़या घास लहलहा रही थी।
यों आमतौर पर सभी बंगलों, खासकर सरकारी बंगलों की जमीन बड़ी उपजाऊ होती है। बंगले वाले उसमें कुछ भी उपजा सकते हैं, और भारी फसलें ले सकते हैं। फिर मंत्री जी के बंगलों की फसलों के क्या कहने ! वे कोई भी फसल उगायें, बीज, खाद, सिंचाई, सुरक्षा आदि प्रजातंत्र की समझदार जनता जुटा देती है। मंत्री जी अंकुरण के समय से ही उस फसल को दिन दूनी, रात चैगुनी बढ़ता देख खुश होते रहते हैं। उनके पेट और चेहरे की रौनक उसी अनुपात में बढ़ती रहती है।
तो मंत्री जी के बंगले में बढि़या घास लहलहा रही थी। मंत्री जी और उनके परिवार की खुशियों का पारावार न था। फुरसत के क्षणों में वे यह सलाह करते रहते कि बंगले की बढि़या घास किस-किस गाय को कितनी-कितनी मात्रा में कब-कब चराना है ताकि भरपूर मात्रा में दूध और मक्खन मिलता रह सके। मंत्री जी और उनका परिवार ऐसी ही आनंददायी कल्पनाओं में था कि एक हादसा हो गया।
हुआ यह कि मंत्री जी उषाकाल में अपनी बढि़या घास की फसल के बीच घूम रहे थे कि उन्हें दिखाई दिया कि पाँच-सात बित्ते जमीन की घास गायब है। एक-एक बित्ता घास उनकी नजरों में थी। एक एक तिनके से उन्हें मोह था, पर यहाँ तो सैकड़ों तिनके गायब हो चुके थे। पूरा प्रदेश और देश भले ही कोई चर जाये पर अपने बंगले की अपनी घास कोई चर ले तो कैसे सहा जा सकता है ! मंत्री जी तमतमा गये।
मंत्री जी कभी भी इतने नहीं तमतमाये थे, चाहे उनके विभाग में कितने ही भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हुए हों, महत्वपूर्ण फाइलें गायब हो हुई, अनगिनत पुराने मसले निपटने के लिए पड़े हों, प्रदेश में कितने ही डाकू लूट और हत्याएँ कर रहे हों, कितने ही मासूम बच्चों-बच्चियों का अपहरण हुआ हो, कितनी युवतियों के साथ बलात्कार होकर उनकी हत्या कर दी गई हे, यहाँ तक कि उनके बंगले की चट्टान पर ही युवती की सिरकटी लाश पाई गई हो या राजधानी की घनी बस्ती के काली मंदिर के चबूतरे पर युवक की लाश मिली पर वह सदा शांत भावी बने रहे, कतई विचलित नहीं हुए। तपे-तपाये गाँधीवादी और परम्परागत अहिंसा के हामी जो थे। पर यह तो मामला ही कुछ दूसरा था। यह तो अति थी इसलिए मंत्री जी का घास चोरी पर तमतमाना मनोवैज्ञानिक रूप से वाजिब था।
सो मंत्री जी तमतमाये। उनके तमतमाने पर बंगले में हड़कंप मच गया और घास चोरी की सूचना टेलीफोन से तुरंत पुलिस को दी गई।
मंत्री जी के बंगले में घास की चोरी ? कलंक लग गया। पुलिस की क्षमता पर कलंक याने कि पुलिस फौरन हरकत में आ गई। घंटे-दो घंटे में चोर पकड़ लिया गया। पुलिस की तत्परता और क्षमता की प्रशंसा हुई।
मामला मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। मात्र दस-बारह रुपये की घास चोरी का मामला था।
मजिस्ट्रेट ने घास चोर से पूछा -‘तुम्हारे ऊपर मंत्री जी के बंगले से घास चुराने का इल्जाम है। तुम्हें इस बारे में क्या कहना है ?’
घास चोर -‘हजूर, मैं तो एक गट्ठा घास काटने गया था, पर पाँच-सात मुट्ठी घास ही काट पाया था कि सिपाही मियाँ ने मुझे भगा दिया। हजूर, मुझ पर तो जुल्म हुआ है, एक भरपूर गट्ठा घास न काटने देने का जुल्म। हजूर न्याय करें, सच्चा न्याय करें।’
मजिस्ट्रेट -‘एक तो तुमने चोरी की, ऊपर से जुल्म होने की शिकायत कर रहे हो ? बिना मालिक की मर्जी के गुपचुप उसकी चीज ले लेना चोरी है। कानून यह कहता है।’
घास चोर -‘हजूर, जो कानून कहता है वही मैं कहता हूँ। बंगला मंत्री जी की मिल्कियत नहीं है। बंगला और बंगले की जमीन, जहाँ बढि़या घास लहलहा रही है, आम आदमियों की मिल्कियत है जो मंत्रियों को सौंपी गई है। हजूर, मैं आम आदमी हूँ। मैंने वोट दिया था।’
मजिस्ट्रेट -‘माना तुम आम आदमी हो, मतदाता हो पर बंगले पर मंत्री जी का कब्जा है। घास उन्होंने उगाई है, अतः वे उसके मालिक हैं। मर्जी के बिना घास लेकर तुमने चोरी की है।’
घास चोर -‘हजूर, बंगला मंत्री जी के कब्जे में है पर घास उन्होंने नहीं उगाई। हजूर, मैं रोज देखता रहा अफसर आकर मजूरों से घास लगवाते थे। चपरासी पानी देते, निदाई करते थे। सिपाही घास की सुरक्षा करते और उन सबकी तनख्वाह सरकारी खजाने से मिलती है जो खजाना जनता की कमाई से भरता है। मंत्री जी और उनके घरवालों ने तो न छदाम लगाई, न एक बूँद पसीना बहाया। तो हजूर, घास मंत्री जी की मिल्कियत कैसे हो गई ?’
थोड़ा रुककर घास चोर आगे बोला -‘हजूर, पाँच दिन तो मैं भी घास लगाने बंगले पर गया था, पर हजूर मुझे सरकारी रेट से रोजाना दस रुपया कम दिया गया था। मेरा पचास रुपये का हिस्सा बैठता है। हजूर, अगर मेरे द्वारा ली गई घास दस-बारह रुपए की थी तो हजूर बकाया मजूरी और दिला दें।’
मजिस्ट्रेट -‘मान लिया तुम्हें घास लगाने की मजदूरी पर रखा गया था। पर यदि तुम्हें कम मजदूरी मिली थी तो तुमने मंत्री जी से, अफसरों से शिकायत क्यों नहीं की ?’
घास चोर -‘हजूर, शिकायत की थी। शिकायत करने में छठा दिन चला गया और सातवें दिन से मुझे काम पर आने से मना कर दिया गया।’
मजिस्ट्रेट -'इसका कोई सबूत है तुम्हारे पास कि तुम्हें पाँच दिनों की मजदूरी कम दी गई ?’
घास चोर -‘हजूर, सबूत यह है कि मैं अपने हिस्से की बकाया रकम की घास काटने गया था। मेरी गैया और बछिया भूखी थी हजूर। मंत्री जी भले मेरी गाय की भूख की परवाह न करें पर मैं आदमी होकर अपनी गाय, बछिया को कैसे भूखा देख सकता था ? सो एक गट्ठा घास काटने गया था, हजूर !
यह जुल्म है हजूर कि मालिक को अपनी भूखी गैया के लिए गट्ठा भर घास भी न लेने दी जाये और मालिकों का नुमाइंदा मालिकों की घास का दूध और मक्खन पाने के लिए इस्तेमाल करे। हजूर, मैं प्रजातंत्री मुल्क का बाशिंदा हूँ। न्याय करें हजूर।’
मजिस्ट्रेट गंभीर हो गया, बोला -‘ले जाओ इसे, फैसला अगली पेशी पर होगा।’
यों आमतौर पर सभी बंगलों, खासकर सरकारी बंगलों की जमीन बड़ी उपजाऊ होती है। बंगले वाले उसमें कुछ भी उपजा सकते हैं, और भारी फसलें ले सकते हैं। फिर मंत्री जी के बंगलों की फसलों के क्या कहने ! वे कोई भी फसल उगायें, बीज, खाद, सिंचाई, सुरक्षा आदि प्रजातंत्र की समझदार जनता जुटा देती है। मंत्री जी अंकुरण के समय से ही उस फसल को दिन दूनी, रात चैगुनी बढ़ता देख खुश होते रहते हैं। उनके पेट और चेहरे की रौनक उसी अनुपात में बढ़ती रहती है।
तो मंत्री जी के बंगले में बढि़या घास लहलहा रही थी। मंत्री जी और उनके परिवार की खुशियों का पारावार न था। फुरसत के क्षणों में वे यह सलाह करते रहते कि बंगले की बढि़या घास किस-किस गाय को कितनी-कितनी मात्रा में कब-कब चराना है ताकि भरपूर मात्रा में दूध और मक्खन मिलता रह सके। मंत्री जी और उनका परिवार ऐसी ही आनंददायी कल्पनाओं में था कि एक हादसा हो गया।
हुआ यह कि मंत्री जी उषाकाल में अपनी बढि़या घास की फसल के बीच घूम रहे थे कि उन्हें दिखाई दिया कि पाँच-सात बित्ते जमीन की घास गायब है। एक-एक बित्ता घास उनकी नजरों में थी। एक एक तिनके से उन्हें मोह था, पर यहाँ तो सैकड़ों तिनके गायब हो चुके थे। पूरा प्रदेश और देश भले ही कोई चर जाये पर अपने बंगले की अपनी घास कोई चर ले तो कैसे सहा जा सकता है ! मंत्री जी तमतमा गये।
मंत्री जी कभी भी इतने नहीं तमतमाये थे, चाहे उनके विभाग में कितने ही भ्रष्टाचार के किस्से उजागर हुए हों, महत्वपूर्ण फाइलें गायब हो हुई, अनगिनत पुराने मसले निपटने के लिए पड़े हों, प्रदेश में कितने ही डाकू लूट और हत्याएँ कर रहे हों, कितने ही मासूम बच्चों-बच्चियों का अपहरण हुआ हो, कितनी युवतियों के साथ बलात्कार होकर उनकी हत्या कर दी गई हे, यहाँ तक कि उनके बंगले की चट्टान पर ही युवती की सिरकटी लाश पाई गई हो या राजधानी की घनी बस्ती के काली मंदिर के चबूतरे पर युवक की लाश मिली पर वह सदा शांत भावी बने रहे, कतई विचलित नहीं हुए। तपे-तपाये गाँधीवादी और परम्परागत अहिंसा के हामी जो थे। पर यह तो मामला ही कुछ दूसरा था। यह तो अति थी इसलिए मंत्री जी का घास चोरी पर तमतमाना मनोवैज्ञानिक रूप से वाजिब था।
सो मंत्री जी तमतमाये। उनके तमतमाने पर बंगले में हड़कंप मच गया और घास चोरी की सूचना टेलीफोन से तुरंत पुलिस को दी गई।
मंत्री जी के बंगले में घास की चोरी ? कलंक लग गया। पुलिस की क्षमता पर कलंक याने कि पुलिस फौरन हरकत में आ गई। घंटे-दो घंटे में चोर पकड़ लिया गया। पुलिस की तत्परता और क्षमता की प्रशंसा हुई।
मामला मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। मात्र दस-बारह रुपये की घास चोरी का मामला था।
मजिस्ट्रेट ने घास चोर से पूछा -‘तुम्हारे ऊपर मंत्री जी के बंगले से घास चुराने का इल्जाम है। तुम्हें इस बारे में क्या कहना है ?’
घास चोर -‘हजूर, मैं तो एक गट्ठा घास काटने गया था, पर पाँच-सात मुट्ठी घास ही काट पाया था कि सिपाही मियाँ ने मुझे भगा दिया। हजूर, मुझ पर तो जुल्म हुआ है, एक भरपूर गट्ठा घास न काटने देने का जुल्म। हजूर न्याय करें, सच्चा न्याय करें।’
मजिस्ट्रेट -‘एक तो तुमने चोरी की, ऊपर से जुल्म होने की शिकायत कर रहे हो ? बिना मालिक की मर्जी के गुपचुप उसकी चीज ले लेना चोरी है। कानून यह कहता है।’
घास चोर -‘हजूर, जो कानून कहता है वही मैं कहता हूँ। बंगला मंत्री जी की मिल्कियत नहीं है। बंगला और बंगले की जमीन, जहाँ बढि़या घास लहलहा रही है, आम आदमियों की मिल्कियत है जो मंत्रियों को सौंपी गई है। हजूर, मैं आम आदमी हूँ। मैंने वोट दिया था।’
मजिस्ट्रेट -‘माना तुम आम आदमी हो, मतदाता हो पर बंगले पर मंत्री जी का कब्जा है। घास उन्होंने उगाई है, अतः वे उसके मालिक हैं। मर्जी के बिना घास लेकर तुमने चोरी की है।’
घास चोर -‘हजूर, बंगला मंत्री जी के कब्जे में है पर घास उन्होंने नहीं उगाई। हजूर, मैं रोज देखता रहा अफसर आकर मजूरों से घास लगवाते थे। चपरासी पानी देते, निदाई करते थे। सिपाही घास की सुरक्षा करते और उन सबकी तनख्वाह सरकारी खजाने से मिलती है जो खजाना जनता की कमाई से भरता है। मंत्री जी और उनके घरवालों ने तो न छदाम लगाई, न एक बूँद पसीना बहाया। तो हजूर, घास मंत्री जी की मिल्कियत कैसे हो गई ?’
थोड़ा रुककर घास चोर आगे बोला -‘हजूर, पाँच दिन तो मैं भी घास लगाने बंगले पर गया था, पर हजूर मुझे सरकारी रेट से रोजाना दस रुपया कम दिया गया था। मेरा पचास रुपये का हिस्सा बैठता है। हजूर, अगर मेरे द्वारा ली गई घास दस-बारह रुपए की थी तो हजूर बकाया मजूरी और दिला दें।’
मजिस्ट्रेट -‘मान लिया तुम्हें घास लगाने की मजदूरी पर रखा गया था। पर यदि तुम्हें कम मजदूरी मिली थी तो तुमने मंत्री जी से, अफसरों से शिकायत क्यों नहीं की ?’
घास चोर -‘हजूर, शिकायत की थी। शिकायत करने में छठा दिन चला गया और सातवें दिन से मुझे काम पर आने से मना कर दिया गया।’
मजिस्ट्रेट -'इसका कोई सबूत है तुम्हारे पास कि तुम्हें पाँच दिनों की मजदूरी कम दी गई ?’
घास चोर -‘हजूर, सबूत यह है कि मैं अपने हिस्से की बकाया रकम की घास काटने गया था। मेरी गैया और बछिया भूखी थी हजूर। मंत्री जी भले मेरी गाय की भूख की परवाह न करें पर मैं आदमी होकर अपनी गाय, बछिया को कैसे भूखा देख सकता था ? सो एक गट्ठा घास काटने गया था, हजूर !
यह जुल्म है हजूर कि मालिक को अपनी भूखी गैया के लिए गट्ठा भर घास भी न लेने दी जाये और मालिकों का नुमाइंदा मालिकों की घास का दूध और मक्खन पाने के लिए इस्तेमाल करे। हजूर, मैं प्रजातंत्री मुल्क का बाशिंदा हूँ। न्याय करें हजूर।’
मजिस्ट्रेट गंभीर हो गया, बोला -‘ले जाओ इसे, फैसला अगली पेशी पर होगा।’
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