शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

"शिकारी और भोले कबूतर"


लघुकथा/ हरिकृष्ण तैलंग 
 "शिकारी और भोले कबूतर"

(यह लघुकथा "सारिका" के बहुचर्चित आपातकाल अंक में छपी थी )

शिकारी ने जाल फैलाया। चार कबूतर उसमें आ फँसे। ओट में छिपा शिकारी खुश होता हुआ उनके पास आया। उसने कबूतरों की गर्दन मरोड़ने के लिए हाथ फैलाया ही था कि कबूतरों ने गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की, ‘महाशय, हम गरीब और निरीह पक्षी हैं। हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं। यदि आप हमें मार डालेंगे तो नन्हे-नन्हे बेपर के बच्चे बेसहारा हो जायेंगे। उनका पालन-पोषण फिर कौन करेगा ? मेहरबानी करके हमें छोड़ दें। आपको अपने बाल-बच्चों की कसम है।’
शिकारी का दिल यह रूदन सुनकर भर आया। पर दूसरे ही क्षण उसकी जीभ पर कबूतरों के स्वादिष्ट माँस का जायका तैर आया। तब भी वह बाल-बच्चों की कसम उतारना चाहता था। एक क्षण सोचकर उसने कबूतरों से कहा, ‘मुझे तुम लोगों पर दया आ गई है। अब मैं तुम लोगों को नहीं मारूँगा। तुम लोगों को उड़ जाने की अब पूरी आजादी है।’
कबूतर बड़े खुश हुए। सच्चे दिल से उन्होंने शिकारी को दुआएँ दीं। फिर उड़ जाने की कोशिश करने लगे। पर जाल में पैर फँसे होने के कारण बेचारे फड़फड़ा कर रह जाते। जी-तोड़ मेहनत और भूख-प्यास ने उनका शरीर तोड़ डाला। कुछ घंटों बाद वे स्वयं मर गये।
शाम को शिकारी फिर आया। कबूतर उठाये और खुश होता हुआ घर लौट गया।
शिकारी जाल अब भी फैलाता है, पर जाल में फँसे हुए भोले कबूतरों को उड़ जाने की आजादी देकर वह दयावान कहलाना सीख गया है।

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