शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

सिविल लाइनवाले हनुमानजी


व्यंग्य/हरिकृष्ण तैलंग
सिविल लाइनवाले हनुमानजी
//तुलसीदास को भगवान राम से हनुमानजी ने ही मिलवाया था। एकनिष्ठ रामभक्त को भी ‘मीडिएटर’ का सहारा लेना पड़ा था। शायद इस कलिकाल में भगवान का यही रवैया है या शायद हनुमान ने ही रामजी को सुझाया हो -'तुलसी आपका भक्त जरूर है, पर परम्परा विरोधी है। पीडि़त जनता की ओर है। आम आदमियों की भाषा बोलता है। जनकवि कुछ उल्टे-सुल्टे पश्न न पूछ बैठे ? आम आदमियों की पीड़ाएँ बताकर, आपको द्रवित कर, इस रावण राज्य के हनन का निमंत्रण न दे दे। आप ठहरे लोक रंजक। राजपाट छोड़-छाड़कर फिर अवतार न ले लें। एक ही रावण से युद्ध कर हम लोग तो थक चुके हैं। अब रामराज्य में मजे की वंशी बजा रहे हैं। दर्जनों रावणों से कौन लड़ेगा ? सो हे रामजी, बेचारे तुलसी से, जो रामराज्य के सपनों में खोया रहता है, मिल तो लो पर बोलना कुछ नहीं। बाकी हम समझ लेंगे। रामजी भी अपने निजी सेवक की बात मान गए। पुरानी परम्परा है, माननीयों से मिलना हो तो माध्यमों के माध्यम से मिल लो, पर पहले उन्हें संतुष्ट करके।'//
बहुत दिनों से बाहु पीड़ा से परेशान हूँ। वाम बाहु है जो पीड़ा दे रहा है। डाॅक्टर बदले, दवाएँ बदलीं पर दर्द में कोई खास हेर-फेर नहीं हुआ। दर्द से पूरा शरीर बेचैन रहता है। पहले शरीर अच्छा खाता-पीता था। चैन से सोता था, पर अब वामांग शरीर सुख के विरुद्ध हो गया है। पता नहीं कौन-सा और कितना भ्रष्टाचार हो गया मुझसे कि वामांग इस तरह विचल उठा है ?
पत्नी कहती है -‘वामांग शरीर का आधा हिस्सा है। वह शरीर सुख और पुष्टता के लिए बराबरी का साझीदार है। दिल भी उसी तरफ है जो पूरे शरीर में रक्त-प्रवाह बनाए रखता है। पर यदि सारे सुख दाएँ हाथ की हथेली पर ही रखे जाते रहें तो वामांग विद्रोह कर सकता है। पूरे शरीर को तकलीफ में डाल सकता है। तुम्हारे दाएँ बाहु ने कभी इस तरह सोचा ही नहीं। बस, मजे से सारी सुख-सुविधाएँ चुन-चुनकर उठाता रहा। मीठा-मीठा खाता-पीता रहा। इसी से तुम्हारा वाम बाहु चिढ़ गया है।’
पत्नी की बात गड़ती तो है, पर कोई उत्तर नहीं देता। इस कष्ट में वही सेवा कर रही है पर पैनी बातें भी कर देती है। मित्रों को पता चला तो उनका आना-जाना शुरु हुआ। हर एक अपने-अपने नुस्खों के साथ आया, पर एक दिन एक मित्र ने साफ कहा -’आपने बीसियों सूत्रों से प्राप्त उपचार कर डाले पर दर्द गया नहीं। वामांग का दर्द सूत्रों से संतुष्ट न होगा। उसके लिए संपूर्ण शक्ति लगाना पड़ेगी। एक ही रास्ता है तुम्हारे कष्ट निवारण का।’
‘कौन-सा ?’ मैं उत्सुकता से पूछ बैठा।
‘हनुमानजी की शरण गहो। इस कलिकाल में वही एकमात्र संकटमोचन हैं।’ मित्र ने पूरे आत्मविश्वास से कहा।
तभी पत्नी भी आकर मूढ़े पर बैठ गई। बोली -‘मैं तो कब से कह रही हूँ, पर सुनते कहाँ हैं ? मुझे दिन भर परेशान करते रहते हैं।’ उसके चेहरे पर शिकायत उभर आई थी।
‘तभी वामांग की पीड़ा सह रहे हैं। भाभीजी, सारे देश में जब आदमी निराश हो जाता है तो देवी-देवताओं की शरण में आ जाता है। पुरातन काल से यही भारतीय परंपरा है। नहीं तो इस देश में तैंतीस करोड़ देवताओं की कल्पना की जाती भला ?’ मित्र बोले।
‘हाँ भाई, अब तो निराशाएँ और बढ़ती जा रही हैं। तभी तो देवी-देवताओं की संख्या में भी इजाफा हो चुका है। संतोषी माता, भगवान रजनीश, सत्य साईं बाबा, प्रजापति ब्रह्मा आदि चालीस-पचास देवता और बढ़ गए हैं। आजादी के बाद इस क्षेत्र में परिवार नियोजन की कोई बंदिश नहीं लगी।’ मैंने मुस्कराकर कहा।
‘देखो जी, दूसरों के सामने ताने मत दिया करो। संतोषी माता का व्रत करती हूँ। तभी निभा रही हूँ।’ पत्नी को बुरी लगी मेरी बात।
‘भाभीजी, ठीक कहती हैं। नए देवी-देवताओं में प्रताप न होता तो उनके नए-नए मंदिर भव्य और भीड़ जोड़ने वाले होते क्या ? आप तो कुछ ले आइए खाने-पीने को, तब तक मैं इन्हें समझाता हूँ।’ मित्र ने कहा। पत्नी अपना पल्लू समेट कर अंदर चली गई।
‘आप जरूर भाभी को तंग करते रहते हैं। उसी की सजा है यह वामांग का दर्द। अगर ठीक करना चाहते हो तो हनुमानजी की शरण में जाओ। शनि और मंगल को दर्शन करो उनका’, मित्र बोले।
‘करूंगा दर्शन। पर किस हनुमान के पास जाऊँ ? मुहल्ले के ही या मरघटिया हनुमान के ?’ मैंने पूछा।
मित्र ने मुँह बिचकाया। बोले -‘इतने नए-नए हनुमान मंदिर बन गए हैं, पर तुम उन्हीं मरघटिया हनुमान से चिपके हो। वह तो काफी पुराने हैं। उनका प्रताप अब जाता रहा।‘
‘तो फिर’, मैंने पूछा।
वह बोले -‘सिविल लाइन वाले हनुमानजी का आजकल बड़ा प्रताप है। पैंतीस साल पहले एक बाबा ने उनकी स्थापना की थी। पहले की मढि़या अब आलीशान मंदिर बन चुकी है। जो भी, जैसी भी पीड़ा निवारण चाहता है अपनी अर्जी लगाता है और फल पाता है। हाँ, पीड़ा के अनुसार दर्शनों की संख्या और प्रसादी का सवाल है।’
‘दर्शन तो कई बार कर आऊंगा पर प्रसादी ? कच्ची चढ़ती है या पक्की ?’ मैंने मुस्कराकर पूछा।
‘कच्ची चढ़ती होगी तुम्हारे मरघटिया हनुमान के यहाँ। सिविल लाइन वाले को शुद्ध पक्की चाहिए। वह भी पउवा भर नहीं फुल एक किलो, नहीं तो पुजारी भगा देगा तुम्हें’, मित्र ने आत्मीय लहजे में बताया।
‘ठीक है। भुगतूंगा उसे भी। पीड़ा से मुक्ति तो मिले’, मैं कह रहा था कि श्रीमती प्याले खनखनाते आ गई। टेबल पर रखते हुए बोली -‘अभी तो मैं भुगत रही हूँ। मुक्ति तो मुझे मिलेगी’, और भीतर चली गई।
मित्र के जाने के बाद मैं सोचने लगा, मित्र ने बात तो पते की कही है। हनुमानजी तो पुराने जागृत देवता हैं। चिरजीवी हैं। इस कलिकाल में भी साक्षात् दर्शन देते हैं। तुलसीदास को भगवान राम से उन्होंने ही मिलवाया था। एकनिष्ठ रामभक्त को भी ‘मीडिएटर’ का सहारा लेना पड़ा था। राजा राम से कवि तुलसी की मुलाकात दो बार हुई थी। शायद इस कलिकाल में भगवान का यही रवैया है या शायद हनुमानजी ने ही रामजी को सुझाया हो -तुलसी आपका भक्त जरूर है, पर परम्परा विरोधी है। पीडि़त जनता की ओर है। आम आदमियों की भाषा बोलता है। जनकवि कुछ उल्टे-सुल्टे पश्न न पूछ बैठे ? आम आदमियों की पीड़ाएँ बताकर, आपको द्रवित कर, इस रावण राज्य के हनन का निमंत्रण न दे दे। आप ठहरे लोक रंजक। राजपाट छोड़-छाड़कर फिर अवतार न ले लें। एक ही रावण से युद्ध कर हम लोग तो थक चुके हैं। अब रामराज्य में मजे की वंशी बजा रहे हैं। दर्जनों रावणों से कौन लड़ेगा ? सो हे रामजी, बेचारे तुलसी से, जो भारत में रामराज्य के सपनों में खोया रहता है, मिल तो लो पर बोलना कुछ नहीं। बाकी हम समझ लेंगे। रामजी भी अपने निजी सेवक की बात मान गए। पुरानी परम्परा है, माननीयों से मिलना हो तो माध्यमों के माध्यम से मिल लो, पर पहले उन्हें संतुष्ट करके।
फिर याद आया, तुलसी को भी बाहु कष्ट हुआ था। बचपन से ही उन्होंने बहुत कष्ट सहे थे। जवानी कुछ सरस हुई थी कि वामांग विचल गया। सो उन्हें रघुनाथजी से प्रीत करनी पड़ी। उनके गुणगान का पट्टा लिख दिया उन्होंने। ‘रामचरित’ रचकर राम का यश जगत् व्यापी बना दिया। फिर भी उन्हें अपने कष्टों के लिए ‘थ्रू प्राॅपर चेनल’ कई अर्जियाँ देना पड़ी थीं। ‘विनय पत्रिका’ जैसा काव्य ग्रंथ ही बन गया उन अर्जियों से। रामराज्य में संतों को ही उचित मार्ग अपनाना पड़ता है।
बाद में, उन्हें दकियानूसी ब्राह्मणों ने पीड़ा पहुँचाई। उनकी खिल्लियाँ उड़ाकर उन्हें खूब खिजाया। फिर तुलसी को बाहु पीड़ा ने सताया था। मैं सोचता हूँ कि तुलसी का वाम बाहु ही पीड़ाग्रस्त हुआ था, क्योंकि उसी काल में उन्होंने पीड़ा मुक्ति के लिए ‘हनुमान बाहुक’ लिखा जो दाहिने हाथ से ही लिखा होगा। अगर दायें बाहु में पीड़ा होती तो ‘हनुमान बाहुक’ कैसे लिखा जाता ? (इस शोध के लिए मुझे डाॅक्टरेट मिलना चाहिए) 
मेरे शंकालु मन में तभी एक प्रश्न और उछला। बाहु कष्ट के लिए तुलसी ने राम बाहुक क्यों नहीं लिखा ? शंका समाधान भी मेरे मन ने किया, रामजी सर्वप्रभुत्व सम्पन्न थे। लोक कल्याण के बड़े-बड़े मसले थे उनके पास। दुनिया भर की चिंताएँ उनके सिर-माथे रहती हैं। भारत तो अपना राज्य है। गरीब और संत प्रकृति के संतोषी भक्तों के लिए उनके पास फुरसत कहाँ ? वह छोटा काम क्यों करें ? वह तो उद्धारक हैं। पूरे शरीर का ही उद्धार करते हैं। उन्होंने अहिल्या का उद्धार किया ही था जिसका पूरा शरीर शिला हो गया था। कठोर और रसहीन। राम ने अपने चरण कमल छुआकर उसे कोमलांगी, सुंदर, सरस नारी में बदल दिया था। अगर तुलसी के पूरे शरीर में लकवा मार जाता तो अर्जी पाने पर रामजी आगे आकर उनके पूरे शरीर का उद्धार कर देते। राम नाम सत्य हो जाता।
तुलसी को इतनी समझ थी। छोटे-से काम के लिए वह सर्वप्रभुत्व सम्पन्न प्रभु को क्यों परेशान करते ? जब पीए ही मामला निपटा सकता है तो माननीय को क्यों तकलीफ दी जाये ? शासन के गोरखधंधों से गुजरते हुए कवि तुलसी की यह अनुभव यात्रा थी कि ‘राम से बड़ो राम कर दासा’। सो तुलसी ने ‘हनुमान बाहुक’ लिखा। मैं तुलसी की अर्जी के कुछ वाक्य बुदबुदा उठा -‘को नहीं जानत है जग में, कपि संकटमोचन नाम तिहारो, बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो’। 
उसी समय मेरी पत्नी ने शीघ्रता से प्रवेश किया और हाथ की थाली स्टूल पर रखते हुए बोली -‘लो, दलिया खा लो।’ 
मैंने कहा -‘अभी हनुमानजी से संकट हरने की प्रार्थना कर रहा था कि तुम यह संकट ले आईं। अरे, खीर नहीं बना सकती थी क्या ?’
वह बोली -‘चावल बादी करते हैं। मुझे टीवी देखना है।’ जितनी झपाटे से वह आई थी उससे ज्यादा सपाटे से वह चलती बनी। मेरी पत्नी सीता के आगे बेचारे हनुमानजी भी मजबूत दिखते हैं, सोचते हुए मैं दलिया निपटाने लगा।
शनिवार को सिविल लाइन जाने की मानसिक तैयारी में जुटा। शाम तक अपने-आपको तैयार करता रहा। दरअसल हिम्मत नहीं हो रही थी। लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे ? कहीं कोई कह न दे -‘भैया, तुम भी बिगड़ गए। कहीं हनुमानजी या उनका पुजारी यह न सोचे, बेटा, अब आए हो जब तकलीफ में पड़े। सुख में कभी याद भी नहीं किया, अब पीड़ा में पड़े तो आ पहुँचे। देवताओं के दरबार में आना ही पड़ता है आदमी को। फिर तुम जैसे अदने आदमी की अकड़ ज्यादा दिनों तक कैसे चलती ? अब घनचक्कर बना दूंगा तुमको। लगाते रहो परिक्रमा। पर जाना तो है ही। सो पाँच बजते-बजते घर के बाहर कदम रख दिया। एक सौ एक रुपए पत्नी ने प्रसाद के लिए पेंट की पाॅकेट में रख दिये थे। 
चार सड़कें -साम, दाम, दंड, भेद सिविल लाइन जाती हैं। किस सड़क पर कदम रखूँ, किसे चुनूँ ? पता नहीं किस सड़क पर चलकर पहुँचने वालों की पहले सुनी जाती है। चौराहे पर आया तो चक्कर में पड़ गया। फिर सोचा, क्यों न गली कूचों से चला चलूँ। आज न सुनी जायेगी तो मंगल को फिर विनती कर लेंगे। कई शनिवार और मंगल लगेंगे अभी तो।
हनुमान मंदिर के नजदीक पहुँचा तो मंदिर के बाहर काफी चहल-पहल दिखी। अनेक सरकारी गाडि़याँ, स्कूटर, बाइक्स आदि वहाँ खड़े थे। सजी-धजी महिलाएँ, चपल नवयुवतियाँ, नजरें फेंकते प्रौढ़ पुरुष, फिकरे कसते नौजवान, खादीधारी, टेरीकाट-जींसधारी सभी तरह के लोग आ-जा रहे थे। कई परिचित चेहरे भी दिखे। पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन दर्शन कर चले आ रहे थे। नमस्कार कर पूछा -‘आप कैसे ?’ 
बोले -‘साले, एसपी ने इधर लाइन अटैच कर दिया है। एक शोहदे को चार-पाँच बेंत सटकार दिये थे। वह किसी का भाई-भतीजा था साला। अब हनुमानजी की मेहरबानी हो तो वापस थाना मिल जाये। भंडारा कर दूंगा।’ और वह चले गये।
सेठ बिहारीलाल अपनी गजकाया पत्नी के साथ हाथी की चाल से चले आ रहे थे, पूछा -‘सेठजी, कैसे ?’
‘संकटमोचन के दरबार में अर्जी लगाने आया था जी। पाँच सौ बारे ज्यादा दिखाकर खाद्य विभाग ने मुकदमा चला दिया। हफ्ता पहुँचाने के बाद यह हाल है। बच गया तो चोला चढ़ाऊंगा।’ कहते हुए दोनों अपनी कार में धसे और चलते बने। 
तभी तेज हाॅर्न बजने लगा तो किनारे हो गया। देखा, राज्य मंत्री की कार थी। एक एमएलए भी बैठा था। हनुमानजी की कृपा से कोई काम मुश्किल नहीं, ऐसा मान वे दर्शनों को आये होंगे। डायरेक्टर आहूजा भी दिखे। पत्नी और कन्या के साथ पुड़े और मालाओं से लदे थे। पाँच-पाँच लाख में पचासों भर्तियों का आरोप विधानसभा में उन पर लगाया गया था। डाॅक्टर सोनी भी दिखे। बेचारे का ट्रांसफर किसी प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में कर दिया गया था। जुल्फें छितराये, गले में रंग-बिरंगा छींट का रूमाल बाँधे, चार-पाँच छोकरों से घिरा नत्थू सिंह भी दिखा। बलात्कार के आरोप में पिछले दिनों पकड़ा गया था और अब जमानत पर था। इंजीनियर बाधवानी भी दिखे। उनकी सीमेंट घपले की इन्क्वायरी चल रही है। प्रो. कंचनकुमार अपनी नई नवेली पत्नी के साथ दिखे जो कुछ वर्ष पहले उनकी स्टूडेंट थी। अभी हाल में उन्होंने कोर्ट मैरिज की थी। संतान कामना से हनुमान मंदिर दर्शन के लिए आए थे। और भी कई लोग थे। अनेक समस्याएँ, अनगिनत कष्ट थे उन सबके। सभी को भरोसा था कि हनुमान दरबार में उनके संकट दूर हो सकेंगे। वे भी हनुमानजी से कुछ न कुछ वायदा कर आये थे, करने वाले थे। हनुमान मंदिर का वैभव और सजावट उन सबकी कृतज्ञ प्रवृत्ति का परिणाम थी।
मेरे मन में फिर शंका का संचार हुआ। कैसी-कैसी महत्वपूर्ण मुसीबतों को हरने का काम है हनुमानजी के पास। भला मेरी पीड़ा हरने के लिए उन्हें समय मिलेगा, याद रहेगी मेरी पीड़ा ? फिर भी अंदर की ओर बढ़ा। गर्भगृह के बाहर दो पुजारी बैठे हैं। भीड़ है उनके पास। धक्का-मुक्की भी चल रही है। पुजारीगण प्रसाद, नारियल, मालाएँ लेकर गर्भगृह में बैठे मुख्य पुजारी की ओर बढ़ा देते हैं। मैं भी लाइन में लग गया। तभी वह मिनिस्टर आया। साथ में एमएलए आया। दर्शनार्थियों में हड़बड़ी मच गई। पुजारी खड़े हो गये। झुककर बोले -‘हटो रास्ता दो, मिनिस्टर साहब हैं। आइए साहब, आइए श्रीमान।’
श्रीमान मुस्कराते चेहरे से, इधर-उधर नजर फेंकते, नमस्कारों के उत्तर में सिर हिलाते गर्भगृह में घुस गये। खड़ा हुआ मुख्य पुजारी बोला -‘स्वागत है, अब आपके केबिनेट में जाने के अवसर बढ़ गये हैं। हाईकमान को हनुमानजी स्वप्न में हुक्म देने ही वाले हैं और भैयाजी, आप भी किसी निगम के अध्यक्ष होनेवाले हैं। मंत्री का दर्जा मिलेगा। बोलो -हनुमानजी की जय !’ पूरा मंदिर जय जयकार से गूँज उठा। घंटे टनटना उठे।
मुख्य पुजारी बोला -‘श्रीमान, यदि अनुकंपा हो जाये और मंदिर के पास एक धर्मशाला बन जाये तो भक्तों का कष्ट दूर हो जायेगा।’ तभी इंजीनियर बाधवानी लाइन को छोड़ता हुआ आ खड़ा हुआ और मिनिस्टर को नमस्कार कर चरणों में झुक गया। मंत्रीजी खिल गये। बोले -‘लो धर्मशाला का डौल हो गया। बाधवानी, कुछ करो इंतजाम। धरम का काम है।’
‘जी सर, आपकी दुआ से हो जायेगा।’ बाधवानी ने हाथ जोड़े-जोड़े ही कहा।
आहूजा, नत्थूसिंह, कंचन कुमार और दो-तीन और मिनिस्टर तक आ गये थे, मुस्कराकर नमस्कार कर रहे थे। 
‘क्यों नत्थू सिंह क्या हाल है ?’ मिनिस्टर ने पूछा।
‘ठीक है साब, मेरी छवि बिगाड़ी जा रही है। झूठे आरोप में फँसाया गया हूँ।’ नत्थूसिंह बोला।
‘भाई, हनुमानजी सबका संकट हरते हैं।’ मिनिस्टर बोले। फिर हनुमानजी को नमन कर कुछ बुदबुदाते रहे और सबके साथ गर्भगृह के बाहर आ गये। चारों-पाँचों उनके पीछे-पीछे थे।
मैं यह सब नजारा नजदीक से देख-सुन रहा था। कैसे-कैसे और कितने लोग हनुमानजी के मंदिर में हाजिर होते हैं। तभी देखा, एक औरत दो छोटे-छोटे बच्चों के लिए पुजारियों के पास खड़ी उलझ रही थी। वह गर्भगृह तक जाना चाहती थी। वह कह रही थी -‘महाराज, मुझे मूर्ति तक जाने दो। वहीं मैं प्रसाद चढ़ाऊंगी। छह-सात बार आ चुकी हूँ पर काम नहीं हुआ। मुसीबत की मारी हूँ महाराज, मुझे भीतर जाने दो।’
मैं उस औरत के पास पहुँचा। उसकी नजरों का याचना भाव मुझे अंदर तक भेद गया। मैंने पूछा -‘क्या मुसीबत है तुम्हारी ?’ वह बोली -‘तीन साल हो गये मेरे पति को मरे। शिक्षा विभाग में चपरासी थे। अभी तक न पिंसन मिली, न फंड का पैसा। ससुरे दफ्तर वाले कहते हैं कि सरबस बुक नहीं मिल रही। फंड का हिसाब नहीं है। मुझे भी काम पर नहीं लगाते। पाँच हजार रुपये माँगते हैं। अब हनुमानजी के दरबार में आई हूँ विनती करने।’ औरत की आँखें छलछला उठी थी।
मैंने पुजारी से पूछा -‘क्यों नहीं जाने देते इस बेचारी को ?’
पुजारी ने मुझे गहरी नजर से देखा और पूछा -‘आप क्या कोई नेता हैं ? पत्रकार हैं ?’
‘नहीं, मैं आदमी हूँ’, मैं बोला।
‘अगर आप आदमी हैं तो आपको नजर आया होगा कि मूर्ति तक किन-किन को जाने दिया जाता है।’ पुजारी बोला।
‘पर यह तो मुसीबत की मारी है, गरीब, असहाय विधवा है। इसे जाने दो।’
‘सभी मुसीबत के मारे यहाँ आते हैं। सभी हनुमानजी के आगे गरीब और असहाय हैं, और हम मुख्य पुजारी के सामने।’ पुजारी बुदबुदाया।
मुझे लगा कैसे-कैसे भूत-प्रेत हनुमानजी को घेरे हैं जबकि तुलसी ने कहा है -भूत पिशाच निकट नहीं आवा, महावीर जब नाम सुनावा। मैंने गर्भगृह की ओर नजर घुमाई, देखा मुख्य पुजारी मुझे घूर रहा है। उसकी भंगिमा भौंडी हो गयी थी। हनुमानजी तक अपन कष्ट निवारण की प्रार्थना पहुँचाने का उत्साह मरता-सा लगा। कहीं सिविल लाइन वाले हनुमानजी ऐसी ही मुख-मुद्रा बनाकर मुझे न घूर उठें। चलें, बाहर चलें।
मैं बाहर आ गया। सोचा, सिविल लाइन वाले हनुमान मेरी पीड़ा नहीं हरेंगे। मैं तो मंगल को मरघटिया महावीर के पास ही जाऊंगा। उनसे विनती करूंगा -हे पवनपुत्र, इस रावण राज्य को अब आग लगा दो, यह राम का ही काज है। लंका धू-धू कर जले, मेरे उसके, सबके असह्य कष्ट उसमें जल जायेंगे। जल्दी करो, महावीर।
मैं घर आ गया। पत्नी के हाथों पर एक सौ एक रुपये रखे तो वह मुँह देखने लगी। मैंने कहा -‘मुँह क्या देख रही हो। अगले मंगल को मरघटिया हनुमान के दर्शन करने जाऊंगा। अब सिविल लाइन नहीं जाऊंगा।‘ सीता मेरा मुँह देखे जा रही थी।

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