गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

संस्कृत कथा : नैषध चरित्

संस्कृत भाषा का ललित साहित्य विश्व भर में विख्यात है। संस्कृत साहित्य में मानवीय प्रवृत्तियों का रसमय और उदात्त रूप उच्च कलात्मकता से उकेरा गया है। राजसी गरिमा और प्रवृत्तियों के साथ ही सामान्य जन के आचरण और मनोभावों, सामाजिक रीति-रिवाजों, उच्च विचारों, प्रकृति का समृद्ध और अलौकिक सौंदर्य, उसका मानवीयकरण जिस प्रभावी ढंग से, जिस सूक्ष्मता और कुशलता से चित्रित किया गया है, वह अनुपम है। पर कम लोग ही उस अनोखी और समृद्ध सम्पदा से सुपरिचित हैं। इसका कारण संस्कृत भाषा से अनभिज्ञता तथा ग्रंथों का बड़ा आकार है। यदि हम अपनी पुरातन संस्कृति, जो संस्कृत ग्रंथों में बिखरी पड़ी है, से अपरिचित बने रहते हैं तो अपनी ही गरिमा खोते हैं। साथ ही देश की गौरवमयी परम्परा के भागीदार भी नहीं बन पाते। इन्हीं विचारों को लेकर श्री हरिकृष्ण तैलंग ने संस्कृत भाषा के अनेक श्रेष्ठ महाकाव्यों और नाटकों की वृहद कथावस्तु का संक्षिप्त, पर रोचक अनुवाद किया जो उनकी दो पुस्तकों -दिल्ली के किताबघर प्रकाशन गृह से छपीं - "संस्कृत कथाएं" और "बुद्ध चरितम" में भी पढ़े जा हैं।

संस्कृत कथा : नैषध चरित्

(‘नैषध चरित्’ संस्कत साहित्य के सबसे बढि़या महाकाव्यों में से एक है। इस महाकाव्य में निषध नरेश नल और विदर्भ की सुंदर राजकुमारी दमयंती के प्रेम और विवाह की मनोहारी कथा है। मनोहारी कथा के कारण ‘नैषध चरित’ को काव्यों का कीमती हार कहा जाता है। इसके रचनाकार महाकवि श्रीहर्ष 12वीं सदी में कन्नौज के राजा के सभा पंडित थे। राजा के आग्रह पर श्रीहर्ष ने ‘नैषध चरित’ की रचना की थी।)
बहुत पुराने जमाने में निषध नामका एक राज्य था। निषध राज्य अपनी शक्ति और धन-दौलत के लिए संसार प्रसिद्ध था। राजा नल वहाँ राज करते थे। वे जितने सुंदर थे, उतने ही वीर और विद्वान भी थे। अपनी प्रजा का पालन अपनी संतान जैसा करते थे। उनके राज्य में न कोई बिना पढ़ा-लिखा था, न गरीब। सारी प्रजा सुख-चैन से जीवन बिताती थी। उसी काल में विदर्भ राज्य के राजा भीमदेव थे। ऋषि दमन के आशीर्वाद से उनके यहाँ तीन पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ। पुत्रों के नाम दम, दन्त और दमन थे। पुत्री का नाम था दमयंती। राजकुमारी दमयंती अपनी सुंदरता के लिए सारे देश में प्रसिद्ध थी। उसके रूप् और गुणों की चर्चा सुन-सुनकर कई देशों के राजा उसे अपनी रानी बनाना चाहते थे।
राजा नल भी उससे गहरा प्रेम करने लगे थे। कभी-कभी वे राजकुमारी दमयंती को याद कर बेचैन हो जाया करते थे। एक दिन मन बहलाने के लिए वे एक सुंदर बगीचे में रथ पर सवार होकर जा पहुँचे। चारों ओर प्रकृति की सुंदरता बिखरी हुई थी। हरे-भरे वृक्ष और लताएँ धीमी-धीमी हवा में झूम रहे थे। रंग-बिरंगे फूलों की सुवास वातावरण में भरी थी। धूप चाँदनी जैसा सुख दे रही थी। पक्षी कलरव कर रहे थे और कोयलें मीठा गाना गा रही थीं। पर दमयंती की कल्पना में डूबे नल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था।
वहाँ एक सुंदर जलाशय भी था, जिसमें कई रंगों के सुन्दर कमल खिले थे। तभी राजहंसों का एक दल वहाँ आकर उतरा। राजा नल कुछ समय उनकी सुंदरता देखते रहे। फिर उनका मन एक हंस को पकड़ने के लिए मचल उठा। उन्होंने देखा सबसे सुंदर एक हंस अपने सुनहरे पंखों में मुँह छुपाकर सो रहा था। राजा नल चुपके से उस सुंदर हंस की ओर बढ़े और पास पहुँचकर उसे पकड़ लिया। हंस छुटकारे के लिए खूब फड़फड़ाया पर उसका कोई वश न चला। तब वह मनुष्य वाणी में राजा से बोला, ‘हे राजन्, आप बहुत वैभवशाली हैं। फिर भी आपको मेरे सुनहरे पंखों का लोभ है। पर मेरे पंखों से न आपका कोश भरेगा, न आपके यश में वृद्धि होगी। मुझे मारने से पहले आपको मेरे बूढ़े माता-पिता, युवा पत्नी और छोटे बच्चों की दशा पर विचार करना चाहिए। मेरे मर जाने पर उनका पालन-पोषण कौन करेगा ?’
फिर हंस अपनी मृत्यु का सोच विलाप कर उठा, ‘हे विधाता, कमल नाल से पैदा होने पर भी तुम कितने कठोर हो ! अपने कोमल हाथों से तुमने मेरी सुंदर पत्नी को तो रच दिया, पर उन्हीं हाथों से उसके भाग्य में विधवा होना कैसे लिख दिया ? मेरे नन्हे बच्चों की तो अभी आँखें भी नहीं खुलीं। भूखे-प्यासे वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। यदि समय पर उन्हें भोजन न मिला तो वे चूं-चूं करते हुए मर जायेंगे।’ ऐसा करुण विलाप करते हुए हंस बेहोश हो गया।
दयावान राजा नल को हंस पकड़ने पर बड़ा पछतावा हुआ। दया के कारण उनकी आँखों में आँसू छलछला पड़े। आँसू की कुछ बूँदे हंस के सिर पर गिरीं तो हंस को होश आ गया। राजा ने उसे छोड़ दिया। वह खुश होकर अपने साथियों में जा मिला। उसके संगी-साथी भी उसे अपने बीच पाकर चहकने लगे। कुछ क्षणों बाद वह हंस अपने दल में से उड़कर राजा के पास आकर बैठ गया।फिर मीठे स्वर में बोला, ‘राजन्, आप जितने सुंदर हैं उतने ही उदार और दयावान भी हैं। आपने मुझे छोड़कर बड़ा उपकार किया है। मैं आपका आभारी हूँ। मैं आपका कोई प्रिय कार्य करना चाहता हूँ। आप कहें तो मैं विदर्भ की राजकुमारी दमयंती के पास जा सकता हूँ। वह साक्षात् लक्ष्मी के समान सुंदर हैं, सुलक्षणा हैं। वह आपकी ही रानी बनने योग्य हैं। मैं उनके पास जाकर आपकी प्रशंसा उन्हें सुनाऊंगा।’
हंस से अपने मन की बात सुनकर राजा नल प्रसन्न हो उठे। प्यार से उसे सहलाते हुए बोले, ‘प्रिय हंस, तुम्हारा शरीर ही सोने का नहीं है, बातों में भी तुम बड़े चतुर हो। दमयंती के रूप और गुणों का वर्णन कर तुमने उसे मेरे सामने साकार कर दिया है। उसके बिना मुझे यह सुवास भरी हवा, सुखदायी चंद्रमा, सुंदर फूल, हरा भरा वन कुछ भी अच्छे नहीं लग रहे हैं। यदि तुम मुझे दमयंती से मिलवाने में सहायता कर सको तो मैं तुम्हारा उपकार मानूँगा। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो।’
राजा नल से विदा लेकर हंस विदर्भ राज्य की राजधानी कुंडनपुर पहुँचा। कुंडनपुर बड़ा सुंदर नगर था। ऊँचे-ऊँचे भवन, साफ-सुथरी सड़कें और खूबसूरत बाग-बगीचे नगर की शोभा बढ़ा रहे थे। साफ जल से भरे सरोवरों में कमल खिल रहे थे। फल-फूलों से लदे वृक्ष और पौधे आँखों को सुख देते थे। उन सबकी शोभा देखता हुआ हंस दमयंती के उपवन में जा उतरा।
उस सोने से दमकते सुंदर हंस को देखकर दमयंती उसे पकड़ने के लिए धीमे-धीमे उसकी ओर बढ़ी। पर जैसे ही दमयंती हंस को पकड़ने लपकी, त्यों ही हंस उड़कर और दूर जा बैठा। दमयंती भी दबे पाँव उसका पीछा करते हुए वहाँ जा पहुँची। पर फिर हंस उड़कर लताओं से घिरे एक कुंज में जा बैठा। दमयंती भी दौड़कर वहाँ जा पहुँची। वह बुरी तरह थक चुकी थी।
दमयंती को थका हुआ जानकर हंस बोला, ‘राजकुमारी, युवा हो जाने पर भी तुम्हारा बचपना अभी गया नहीं। तुम कितना भी चाहो पर मुझे पकड़ न पाओगी। हम देवताओं के पक्षी हैं। देवों की अनुमति से हम महाराज नल का अदभुत सरोवर देखने धरती पर उतरे हैं। सुंदरता में महाराज नल कामदेव के पर्याय हैं। उनका सौंदर्य देखकर स्वर्ग की अप्सराएँ भी उन्हें पाने के लिए ललचा रही हैं। वैभव और गुणों के अपार भंडार राजा नल का यश सारा संसार जानता है। वे सब तरह से तुम्हारे योग्य वर हैं।’
हंस से मनभावन बातें सुनकर दमयंती बोली, ‘हंस, बालसुलभ चंचलता के कारण मैंने तुम्हें पकड़ने का यत्न किया था। तुम्हें जो कष्ट हुआ, उसके लिए मुझे क्षमा कर दो। मैं कन्या होकर अपने विवाह की बात खुद कैसे कर सकती हूँ। पर मैंने यह निश्चय कर लिया है कि राजा नल के सिवाय किसी दूसरे से विवाह नहीं करूंगी। तुम राजा नल को मुझसे विवाह करने के लिए तैयार कर दो। मैं तुम्हारा गुण जीवन भर गाऊंगी।’
हंस समझ गया कि दमयंती भी राजा नल से गहरा प्रेम करती है। उन्हें ही वर के रूप में पाना चाहती है। वह बोला, ‘हे राजकुमारी, जैसे तुम राजा नल से प्रेम करती हो वैसे ही राजा नल तुम्हें चाहते हैं। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो और तुम दोनों सदा सुखी रहो। अब मैं राजा नल के पास जाकर तुम्हारे हृदय के भाव कहूँगा।’ यह कहकर हंस वहाँ से उड़ गया।
उधर राजा नल बेचैनी से हंस का इंतजार कर रहे थे। हंस के वहाँ पहुँचते ही वे उतावले हो दमयंती के विषय में बातें करने लगे। हंस भी उत्साह के साथ दमयंती की बातें उन्हें बताता रहा। हंस के चले जाने के बाद दमयंती राजा नल के लिए बेचैन रहने लगी। उसका हँसना-खेलना बंद हो गया। वह उदास होकर उन्हीं के विचारों में खोई रहती। कभी-कभी प्रलाप भी करने लगती। पिता राजा भीमदेव अपनी युवा पुत्री की दशा देख चिंता में डूबने लगे। अच्छे से अच्छे वैद्यों से दमयंती की दवा करवाई गई, पर शरीर का रोग हो तो मिटे, मन का रोग वैद्यों की दवा से कैसे दूर होता ? दमयंती की माँ की सलाह पर राजा भीम ने दमयंती के स्वयंवर की घोषणा कर दी। सभी देशों के राजकुमारों को बुलावा भेजा गया। अतुल रूपवती और गुणवती दमयंती को पाने के लिए देवता भी लालायित थे। अतः स्वयंवर का समाचार सुन देवराज इंद्र, अग्नि, जल के देवता वरुण और मृत्यु के देवता यम भी सज-धजकर विदर्भ की राजधानी कुंडनपुर की ओर चले। देवराज इंद्र ने तो दमयंती पर असर डालने के लिए अपनी दूतियाँ भी गुप्त रूप से दमयंती के पास भेजीं। महाराज भीमदेव को बहुत कीमती-कीमती उपहार भी भिजवाये।
रास्ते में देवताओं की भेंट राजा नल से हो गई। उनके अनुपम स्वरूप को देखकर दूसरे सारे दवता निराश हो गए। भला नल के होते हुए दमयंती उन्हें क्यों अपना पति बनायेगी ? दमदमाता हीरा छोड़कर भला कौन मूर्ख काँच के गुरियों को गले में पहनेगा ? पर चतुर इंद्र ने आशा न छोड़ी। वह बड़ी विनय से राजा नल से बोले, ‘राजन्, कृपा करके आप मेरा एक काम कर दीजिए।’
‘आदेश दीजिए, देवराज। आपका प्रिय कार्य मैं अवश्य पूरा करूँगा।’ मीठे स्वर में राजा नल ने वचन दिया।
कपट भाव से भरे इंद्र ने कहा, ‘आप हमारे दूत बनकर राजकुमारी दमयंती के पास जाइये। उनसे हम देवताओं में से किसी एक का वरण करने के लिए राजी कीजिये।’ राजा नल को देवताओं से ऐसे प्रस्ताव की आशा न थी। मन ही मन उन्हें बुरा लगा, पर वह वचन दे चुके थे। उन्होंने देवराज से अदृश्य होने की शक्ति प्राप्त की और दमयंती के महल में जा पहुँचे।
दमयंती उस समय अपनी माँ से भेंट कर रही थी। इंद्र द्वारा भेजी दूतियाँ भी वहीं उपस्थित थीं। वे चारों देवताओं में से किसी एक को अपना पति चुनने के लिए दमयंती को समझा रही थीं। एक-एक देवता के रूप, शक्ति और गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर बता रही थीं। पर दमयंती पर कोई असर न हो रहा था। वह अपने चेहरे पर चिढ़ का भाव लिए उनकी बातें सुन रही थी। जब दूतियों द्वारा देवताओं का बखान पूरा हो चुका तो दमयंती ने साफ शब्दों में कह दिया कि वह राजा नल को ही अपना पति चुनेगी। किसी दूसरे को पति बनाने का वह सोच भी नहीं सकती। दमयंती का ऐसा निश्चय सुनकर दूतियाँ निराश होकर वहाँ से चली गईं। दमयंती की माता भी अपने महल में वापस चली गईं।
अदृष्य नल दूतियों और दमयंती की बातचीत सुन रहे थे। जब दमयंती का उत्तर उन्होंने सुना तो उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। बहुत देर तक वह दमयंती का सुंदर चेहरा निहारते रहे। फिर प्रकट होकर उसके सामने खड़े हो गए। एक तेजस्वी और रूपवान पुरुष को एकाएक सामने खड़ा देख दमयंती और उसकी सखियाँ हड़बड़ा गईं। क्षण भर बाद वे अपना आसन छोड़कर नल को अचम्भे में भरकर देखने लगीं उनके अनुपम स्वरूप को देखकर दमयंती की आँखों में अनुराग उमड़ आया। उसे ऐसा लगा कि सामने खड़ा पुरुष राजा नल ही हैं। यह महसूस कर दमयंती ने राजा नल का उचित सत्कार किया। फिर उनसे परिचय पूछा। राजा नल बोले, ‘हे राजकुमारी, इस समय मेरा परिचय यही है कि मैं देवराज इंद्र, अग्नि, अरुण और यमराज का भेजा हुआ दूत हूँ। ये सभी देवता आपसे गहरा प्रेम करते हैं, इसलिए उनमें से किसी एक को वरण कर उन्हें अपना पति बना लीजिए।’
नल की बातें सुनकर दमयंती ने कहा, ‘मैंने आपका परिचय पूछा था, पर आप देवताओं का पक्ष लेने को कह रहे हैं। ये बेकार की बातें छोड़कर मुझे अपना नाम और कुल के बारे में बताइये।’
मन ही मन प्रसन्न होते हुए नल बोले, ‘राजकुमारी, दूत का नाम और कुल पूछकर आप क्या करेंगी ? आप देवताओं के संदेश का उत्तर देने की कृपा कीजिए।’
यह सुनकर दमयंती ने का, ‘बिना आपका परिचय जाने देवताओं के प्रस्ताव का उत्तर नहीं मिलेगा।’
अब नल क्या करें, यदि वे सही परिचय देते हैं तो बात बनेगी नहीं। इसलिए उन्होंने अपना झूठा परिचय दमयंती को दिया। उसे सुनकर दमयंती बोली, ‘आपने अपना कर्तव्य कर दिया। अब मेरा उत्तर देवताओं तक पहुँचा दीजिए। मैंने राजा नल को अपना पति चुन लिया है। अब साक्षात् भगवान विष्णु का भी मैं वरण नहीं कर सकती। देवताओं को मुझे पाने का विचार त्याग देना चाहिए। यदि उन्होंने कपट और ताकत के बल पर नल को मुझसे छीना तो मैं आत्महत्या कर लूंगी। मेरे इस पक्के निश्चय को आप देवताओं को बता दें।’
राजा नल ने दमयंती के विचारों को गहराई से जानने के लिए कहा, ‘राजकुमारी तुम बड़ी भोली हो। देवराज इंद्र को छोड़कर साधारण मनुष्य नल को वरण करने का तुम्हारा हठ वैसा ही है जैसे ऊँट मीठे गनने को छोड़कर काँटेदार झाड़ी की ओर लपकता है। आत्महत्या करके भी तुम स्वर्ग में इंद्र के ही पास पहुँचोगी। वहाँ कल्पवृक्ष से इंद्र तुम्हें माँग लेंगे। आग में जलोगी तो अग्नि देव तुम्हें पा लेंगे। पानी में डूबने पर वरुण के पास अपने आप पहुँच जाओगी। यम तुम्हें अगस्त्य से माँग लेंगे। फिर देवताओं को नाराज करने से मंगल नहीं होता। यदि अग्नि देव रूठ गए तो नल से विवाह के समय वह प्रगट नहीं होंगे। बिना अग्नि की साक्षी के विवाह कैसे होगा ? यदि यमराज का कोप वर या वधू, किसी पर भी हो गया तो विवाह कैसे होगा ? वरुण के रूठने पर तुम्हारे पिता बिना जल के तुम्हारा दान कैसे कर सकेंगे इसलिए अच्छा होगा कि तुम किसी एक देवता को पति स्वीकार कर लो।’
राजा नल से ऐसे तर्क सुनकर दमयंती रो पड़ी। आँसू बहाती हुई बोली, ‘हे भगवान, बिना नल के मैं जीवित नहीं रहना चाहती। मर जाने पर किसी से वैर नहीं रहेगा। हे पवन, कृपा कर मेरी चिता की भस्म को निषध देश के राजा नल के पास पहुँचा देना। तब मेरा जीवन सफल हो जायेगा। हे देवताओं, मेरा विचार छोड़ दो। आप लोग अपनी ताकत से मुझ जैसी अनेक युवतियाँ पैदा कर सकते हैं।
हे प्राणों के आधार, दूर रहने से तुम मेरी दशा नहीं जानते। वह प्यारा हंस भी पास नहीं है, नहीं तो वह मेरी दुखभरी कथा तुम्हें सुनाता। तब तुम अवश्य मुझे संकट से उबार लेते। पर यह दुख मेरे भाग्य का ही फल है। तुम मेरे जीवन हो। इस जन्म में तो मैं तुम्हें नहीं पा सकी, पर अगले जन्मों में तुम्हें ही पति रूप में पाती रहूँ, यही मेरी अंतिम कामना है।’ कहते-कहते दमयंती फफक-फफक कर रो पड़ी।
अपनी प्रियतमा को करुण विलाप करते देख राजा नल से रहा न गया। उनकी आँखों में भी आँसू छलछला आए। भरे दिल से वह बोले, ‘राजकुमारी धीरज धरो। मैं ही वह निष्ठुर नल हूँ जिसके कारण तुम्हें इतना कष्ट सहन करना पड़ रहा है। कर्त्तव्य से बँधे होने के कारण मुझे वह सब कहना पड़ा जिससे तुम्हारे कोमल हृदय को पीछ़ा पहुँची। तुम सदा मेरे मन में विराजमान रहोगी। इसलिए रोना बंद कर प्रसन्न हो।’ फिर नल ने मन ही मन में देवताओं से क्षमा माँगी।
तभी वह सुनहला हंस वहाँ आ पहुँचा। उसने महाराज नल से कहा, ‘महाराज, आप दमयंती को बिना किसी भय के स्वीकार करें। दमयंती सब तरह से आपकी महारानी बनने योग्य है।’
हंस की बात सुनकर राजा नल दमयंती से बोले, ‘शायद देवतागण मुझसे अप्रसन्न होंगे, पर अब तुम्हें अधिक दुख न दूँगा।’
महाराज नल के इस तरह प्रकट होने पर दमयंती लजा गई। मन ही मन वह बहुत प्रसन्न हुई। उसका चेहरा खुशी से दमकने लगा। उसके शरीर में फुरफुरी हो आई। पर वह यह सोचकर सकुचा भी उठी कि पता नहीं महाराजा नल उसके बारे में क्या सोचते होंगे।
दमयंती को लजाते देख उसकी सखी नल से बोली, ‘राजन्, मेरी सखी आपके बिना जीवित न रहेगी। आप भरोसा देकर जाइये कि आप स्वयंवर में अवश्य पधारेंगे।’ राजा नल ने स्वयंवर में आने का वचन दिया। फिर वह वहाँ से चल दिये।
राजा नल ने उन चारों देवताओं को दमयंती से हुई बातचीत ज्यों की त्यों सुना दी। देवतागण दमयंती का निश्चय सुन निराश हुए, पर नल की कर्त्तव्य भावना और सच बोलने पर प्रसन्न भी हुए।
स्वयंवर के लिए संसार भर से राजकुमारों का ताँता राजधानी कुंडनपुर में लग गया। देवताओं और मनुष्यों के साथ ही पाताल लोक से नागराज वासुकि भी विवाह की इच्छा लेकर पधारे थे। राजा भीमदेव ने सबका यथोचित स्वागत कर हर एक को उनकी प्रतिष्ठानुसार विभिन्न स्थानों पर ठहराया। उनकी सुख-सुविधा का बढि़या प्रबंध किया।
देवतागण सुन चुके थे कि राजकुमारी दमयंती नल के सिवा किसी दूसरे का वरण नहीं करेगी इसलिए उन्होंने कपट से काम लेने की योजना रची। चारों देवताओं ने अपनी शक्ति से नल का रूप धारण कर लिया। उन्होंने सोचा कि दमयंती हम सब में से किसी एक को नल समझकर वरमाला पहना देगी। ऐसी कल्पना कर नल बने वे चारों देवता स्वयंवर स्थल पर जा विराजे। अनेक सुंदर और प्रसिद्ध राजाओं के साथ पाँच नल वहाँ दिखे तो सभी विस्मित हो गए। ऐसा कौतुक देखने बड़ी भीड़ जुटी। सभी यह देखना चाहते थे कि दमयंती किस नल को वर के रूप में चुनती है। स्वयं भगवान विष्णु अन्य देवताओं और मुनियों के साथ यह तमाशा देखने आकाश में आ विराजे।
जिस भवन में स्वयंवर हो रहा था वह बहुत सुंदर बना था। फिर उसे बड़ी निपुणता से सजाया गया था। उसकी सजावट मनभावन और आँखों को भली लगने वाली थी। लोग उसकी खूब सराहना कर रहे थे। एक से बढ़कर सैकड़ों राजा, राजकुमार और देवता सिंहासनों पर विराजमान थे। उनका ठीक-ठीक परिचय कैसे दिया जाये, परिचय कौन दे, यह चिंता राजा भीमदेव को सता रही थी। उन्होंने इस संकट से बचने के लिए भगवान से प्रार्थना की। उनकी विनय पर भगवान ने देवी सरस्वती को राजा भीम के पास भेज दिया।
अब स्वयंवर आरंभ हुआ। शुभ मुहूर्त में हाथों में वरमाला लिए दमयंती ने भवन में प्रवेश किया। वह सकुचा रही थी। वधू के वेश में उसकी अनुपम सुंदरता दुगुनी हो गई थी। अगणित आँखें उसके अपार रूप को देखकर ठगी रह गईं। सबने सोचा कि इस संसार में तो ऐसी सुंदरता कभी दिखाई नहीं दी, विधाता ने दमयंती की रचना शायद सुंदरता के राजा कामदेव के लिए की होगी।
सरस्वती के साथ लाज के भार से दबी दमयंती धीमे-धीमे कदम रखती हुई देवताओं, विद्याधरों, गंधर्वों, यक्षों तथा राक्षसों के सामने से होती हुई नागराज वासुकि के सामने पहुँची। देवी सरस्वती ने उनकी महानता का बखान आरंभ किया। पर दमयंती पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। तब देवी सरस्वती उसे अनेक देशों के राजाओं के सामने ले गईं। हर राजा के रूप, गुण, कुल ओर ताकत का विस्तार से वर्णन दिया, पर दमयंती ने किसी में भी थोड़ी-सी रुचि भी नहीं दिखाई। आगे नल का वेश धरे चारों देवता और स्वयं नल विराजमान थे। नल को देखकर दमयंती आनंद से भर उठी। पर दूसरे ही क्षण पाँच नल देख आश्चर्य में डूब गई। दमयंती समझ गई कि देवतागण उसे धोखे में डालकर उसको पाना चाहते हैं। वह सोच में पड़ गई। जब उसे कोई उपाय न सूझा तो उन्हीं देवताओं से मनुष्य नल को पहचानने की शक्ति देने की प्रार्थना की।
राजकुमारी दमयंती द्वारा सच्चे और भोले मन से की गई प्रार्थना पर देवतागण पिघल गये। उन्होंने दमयंती के मन को सुझाया कि देवताओं की आँखों के पलक नहीं झपकते। देवताओं के पैर भूमि को छूते नहीं हैं। उन पर धूल-पसीना नहीं आता। उनकी छाया भी नहीं पड़ती। इन अंतरों को जानकर दमयंती असली नल को पहचानने में सफल हुई। उसने देवताओं का उपकार माना। उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। फिर महुए के फूलों से गुँथी वरमाला उसने राजा नल के गले में डाल दी।
सारा उपस्थित जन समूह हर्ष से भर उठा। ‘राजकुमारी दमयंती चिर-सौभाग्यवती हो’ कहकर सभी बड़े-बूढ़ों ने आशीर्वाद दिया। चारों देवताओं ने भी अपने असली रूपों में प्रकट हो प्रसन्न मन से नव दंपति को आशीर्वाद दिया। देवताओं ने राजा नल से कहा, ‘राजन्, आप बिना कपट भाव के हमारे दूत बने थे। उससे हम आप पर प्रसन्न हैं। हम आपके द्वारा किये यज्ञों में सशरीर आया करेंगे। अपने शत्रुओं पर आपकी सदा विजय होगी। जहाँ भी आप चाहेंगे वहाँ जल और अग्नि प्रकट हो जाया करेगी। आपके गले की पुष्प माला के फूल कभी मुरझायेंगे नहीं। उन फूलों से दिव्य सुगंध निकला करेगी।’ ऐसा आशीर्वाद देकर देवतागण फिर दमयंती से बोले, ‘हे दमयंती, हम तुम्हारी पवित्र भावना से बहुत प्रसन्न हैं। हम तुम्हें वरदान देते हैं कि जो कोई बुरी भावना से तुम्हारे शरीर को छुएगा, वह भस्म हो जायेगा।’ देवी सरस्वती ने भी नल को चिंतामणि नामका मंत्र दिया। उस मंत्र की शक्ति से नल की हर मनोकामना दूर हो जायेगी। ऐसा आशीर्वाद और उपहार देकर देवतागण स्वर्ग चले गए।
सभी जानेवाले लोगों को आदर सहित विदा कर राजा भीमदेव ने विवाह की तैयारी करने का आदेश दिया।
राजमहल में विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। तरह-तरह के पकवान और मिठाइयाँ बनने लगीं। मणियों और मोतियों के वंदनवारों से सारी नगरी सजायी गई। कलाकारों ने सुंदर चित्रों को दीवारों पर बनाया। हर दरवाजे पर कलश सजाए गए। केलों के खंभे और आम के पत्तों से सजे घर अनोखी शोभा दे रहे थे। तरह-तरह के बाजे मधुर स्वरों में बजाये जाने लगे। सभी नर-नारी, बालक खुशी से भरे सुंदर कपड़ों में सजे विवाह की बाट देख रहे थे। राजकुमारी दमयंती का दुल्हन के रूप में अनोखा श्रृंगार किया गया। उसका श्रृंगार ऐसा हुआ जिसका वर्णन करना कठिन है। इसके बाद दमयंती ने अपने माता-पिता, गुरुजनों और बड़ी-बूढ़ी स्त्रियों को प्रणाम कर अचल सुहाग का आशीर्वाद लिया।
राजा नल वर के रूप में सजे रथ पर सवार हो बारात के साथ महल की ओर बढ़ने लगे। सड़कों और अटारियों पर दूल्हा बने नल को देखने के लिए अपार भीड़ जुटी। जो उन्हें देखता वही खुशी से भर उठता। उन पर छज्जों से नारियाँ फूल और धान की लाई बरसा रही थीं। उन जैसा वर देखकर नारियाँ दमयंती के भाग्य की सराहना करते न थक रही थीं।
महल के दरवाजे पर बारात के आगमन पर कुमार दम ने आगे बढ़कर सबका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। कुछ क्षणों बाद शुभ लग्न में नल-दमयंती का विवाह संस्कार हुआ। नल और दमयंती ने शास्त्र की आज्ञानुसार कौतुक गृह में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तीन दिन बिताये।
कुछ दिनों ससुराल में रहकर राजा नल रानी दमयंती को विदा कर अपनी राजधानी जाने को तैयार हुए। राजा भीम और उनकी महारानी को अपने गुणवान दामाद और प्यार से बड़ी इकलौती पुत्री के बिछोह का बड़ा दुःख हुआ, पर परम्परा के आगे उन्हें झुक कर अपनी बेटी को विदा करना ही पड़ा। बेटी की विदाई पर न केवल महल में वरन् पूरे नगर में उदासी छा गई। सैकड़ों नर-नारी और दमयंती के माता-पिता, सहेलियाँ आँखों में आँसू भर उसे विदा करने नगर की सीमा तक आये। दमयंती के माता-पिता ने रोते हुए उसे गले लगाया और बोले, ‘बेटी, अब ससुराल में पुण्य ही तुम्हारा पिता और क्षमा ही माता है। लोभहीनता ही तुम्हारा धन और पति नल ही सब कुछ है। अपने कर्तव्यों के पालन में सजग रहना। अपने मीठे स्वभाव से सबको प्रसन्न रखना।’ ऐसा कहकर अपनी छाती पर पत्थर रख आँसू भरी आँखों से सबने दमयंती को विदा किया।
राजा नल के रानी दमयंती सहित आने का शुभ समाचार निषध की राजधानी में पहले ही पहुँच चुका था। आकाश को छूने वाले भवनों से भरी वह नगरी खूब सजाई गई। खुशी से भरे नागरिक मीठे सवरों में बाजे बजा-बजाकर सड़कों पर नाच-गा रहे थे। राजा नल के नगर प्रवेश पर उनका बड़े उललास से सवागत हुआ। प्रसन्न मन से रानी दमयंती सहित राजा नल ने अपने महल में प्रवेश किया।
उधर जब देवतागण स्वर्ग लौट रहे थे, तब द्वापर के साथ कलियुग से उनकी भेंट हुई। कलियुग दमयंती के स्वयंवर में जा रहा था, पर उसे देर हो गई थी। इंद्र ने बताया कि स्वयंवर तो समाप्त हो चुका है और दमयंती ने नल का वरण किया है। अब वहाँ जाना बेकार है। यह सुनकर कलियुग को राजा नल पर बड़ा क्रोध आया। उसने नल से बदला लेने की ठानी। उसने तय किया कि वह किसी भी तरह नल को निषध राज्य और दमयंती से अलग कर देगा। उन्हें तरह-तरह से अपमानित करेगा और कष्ट पहुँचायेगा।
कलियुग के इस हठ को सुनकर देवराज इंद्र को बुरा लगा। उन्होंने नल की तारीफ की और कलियुग को समझाया, पर दुष्ट स्वभाव का कलियुग इंद्र का ही मजाक उड़ाने लगा। यह असभ्य और दुष्ट स्वभाव का कलियुग मानने वाला नहीं, यह सोचकर इंद्र वापस स्वर्ग लौट गये।
कलियुग राजा नल से बदला लेने के लिए निषध की राजधानी की ओर चल दिया। उसने कई तरह से नल ओर दमयंती को सताने के यत्न किए, पर अपनी चतुराई और सदवृत्ति के कारण वे बचते रहे। कलियुग की उनकी सामने एक न चली। हारकर वह नगर के बाहर खड़े पुराने बहेड़े के पेड़ पर रहने लगा और अनुकूल अवसर की प्रतीक्षा करता रहा। परन्तु कलियुग को कई वर्षों तक कोई अवसर न मिला। राजा नल और रानी दमयंती धर्म का आचरण और प्रजा की भलाई करते हुए सुखपूर्वक जीवन बिताते रहे।

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